शौनक ऋषि, महर्षि भृगु की कथा सुनना चाहते थे इसलिए एक बार वे अपने मित्रों व अन्य ऋषियों के साथ, पुराणों व इतिहास के ज्ञाता ऋषि उग्रश्रवा के पास आये | शौनक जी ने उनसे कहा “तात लोमहर्षण कुमार ! पूर्वकाल में आपके पिता ने सब पुराणों का अध्ययन किया था । क्या आपने भी उन सबका अध्ययन किया है ?
पुराण में दिव्य कथाएँ वर्णित हैं । परम बुद्धिमान् राजर्षियों और ब्रह्मर्षियों के आदि वंश भी बताये गये हैं । जिनको पहले हमने आपके पिता के मुख से सुना है | उनमे से प्रथम तो मै भृगुवंश का ही वर्णन सुनना चाहता हूँ । अतः आप इसी से सम्बन्ध रखने वाली कथा कहिये ।
हम सभी लोग आपके मुख से कथा सुनने के लिये सर्वथा उद्यत एवं उत्साहित हैं | ऋषि उग्रश्रवा ने कहा “भृगुनन्दन ! वैशम्पायन आदि श्रेष्ठ ब्राह्मणों और महात्मा द्विज वरों ने पूर्वकाल में जो पुराण भलीभाँति पढ़ा था और उन विद्वानों ने जिस प्रकार पुराण का वर्णन किया है, वह सब मुझे ज्ञात है |
मेरे पिता ने जिस पुराण विद्या का भलीभाँति अध्ययन किया था, वह सब मैंने उन्हीं के मुख से पढ़ी और सुनी है । भृगुनन्दन ! आप पहले उस सर्वश्रेष्ठ भृगुवंश का वर्णन सुनिये, जो देवता, इन्द्र, ऋषि और मरुद्गणों से पूजित है । महामुने ! आपके इस अत्यन्त दिव्य भार्गव वंश का परिचय देता हूँ । यह परिचय अद्भुत एवं युक्तियुक्त तो होगा ही, पुराणों के आश्रय से भी संयुक्त होगा” ।
“इतिहास बताता है कि स्वयम्भू ब्रह्माजी ने वरुण के यज्ञ में महर्षि भृगु को अग्नि से उत्पन्न किया था”, उग्रश्रवा जी ने बताना आरम्भ किया । “भृगु जी के अत्यन्त प्रिय पुत्र च्यवन हुए, जिन्हें भार्गव भी कहा जाता हैं । च्यवन के पुत्र का नाम प्रमति था, जो बड़े धर्मात्मा हुए । प्रमति के घृताची नाम की एक अप्सरा के गर्भ से रुरु नामक पुत्र का जन्म हुआ | रुरु के पुत्र शुनक थे, जिनका जन्म प्रमद्वरा के गर्भ से हुआ था ।
शुनक जी वेदों के पारंगत विद्वान् और धर्मात्मा थे । शौनक जी, वे आपके पूर्व पितामह थे | वे तपस्वी, यशस्वी, शास्त्रज्ञ तथा ब्रह्मवेत्ताओं में श्रेष्ठ थे | धर्मात्मा, सत्यवादी और मन-इन्द्रियों को वश में रखने वाले थे । उनका आहार-विहार नियमित एवं परिमित था” | शौनक जी बोले “उग्रश्रवा जी ! मैं जानना चाहता हूँ कि महात्मा भार्गव का नाम च्यवन कैसे प्रसिद्ध हुआ ? यह मुझे आप बताइये” |
उग्रश्रवा जी ने कहा “महामुने सुनिए ! महर्षि भृगु की पत्नी का नाम पुलोमा था । वह अद्भुत सुंदरी अपने पति को बहुत ही प्रिय थी । उसके उदर में भृगु जी के वीर्य से उत्पन्न गर्भ पल रहा था | पुलोमा यशस्वी भृगु की अनुकूल शील स्वभाव वाली धर्मपत्नी थी ।
उसकी कुक्षि में उस गर्भ के प्रकट होने पर एक समय धर्मात्माओं में श्रेष्ठ भृगु जी स्नान करने के लिये आश्रम से बाहर निकले । उस समय एक राक्षस, जिसका नाम भी पुलोमा ही था, उनके आश्रम पर आया | आश्रम में प्रवेश करते ही उसकी दृष्टि महर्षि भृगु की पतिव्रता पत्नी पर पड़ी और वह काम वासना के वशीभूत हो अपनी सुध-बुध खो बैठा |
सुन्दरी पुलोमा ने उस राक्षस को अभ्यागत अतिथि मानकर वन के फल-मूल आदि से उसका सत्कार करने के लिये उसे न्योता दिया | ब्रह्मन् ! वह राक्षस उस परम सुंदरी पुलोमा को देख कर काम वासना से पीड़ित हो रहा था । उस समय उसने वहाँ, पूरे आश्रम में, पुलोमा को अकेली देख बड़े हर्ष का अनुभव किया, क्योंकि वह सती साध्वी पुलोमा का अपहरण कर ले जाना चाहता था |
मन में उस शुभ लक्षणा सती के अपहरण की इच्छा रखकर वह प्रसन्नता से फूल उठा और मन-ही-मन बोला, ‘मेरा तो काम बन गया’ । वास्तव में पवित्र मुसकान वाली पुलोमा को पहले उस पुलोमा नामक राक्षस ने वरण किया था | किंतु बाद में उसके पिता ने, उस राक्षस के वेद विपरीत आचरण को देखते हुए, अपनी पुत्री पुलोमा का शास्त्र-विधि के अनुसार महर्षि भृगु के साथ विवाह कर दिया था ।
भृगुनन्दन ! उसके पिता का वह अपराध राक्षस के हृदय में सदा काँटे-सा खटकता रहता था | ‘यही अच्छा मौका है’, ऐसा विचार कर उसने उस समय पुलोमा को हर ले जाने का पक्का निश्चय कर लिया । इतने ही में उस राक्षस ने देखा, अग्निहोत्र-गृह में अग्निदेव प्रज्वलित हो रहे हैं ।
तब पुलोमा राक्षस ने उस समय उस प्रज्वलित अग्नि से पूछा “अग्निदेव ! मैं सत्य की शपथ देकर पूछता हूँ, बताओ, तुम देवताओं के मुख हो । अतः मेरे पूछने पर ठीक-ठीक बताओ । पहले तो मैंने ही इस सुन्दरी को अपनी पत्नी बनाने के लिये वरण किया था न |
किंतु बाद में असत्य व्यवहार करने वाले इसके पिता ने भृगु के साथ इसका विवाह कर दिया । यदि यह एकान्त में मिली हुई सुन्दरी भृगु की भार्या है तो वैसी बात सच-सच बता दो; क्योंकि मैं इसे इस आश्रम से हर ले जाना चाहता हूँ । वह क्रोध आज मेरे हृदय को दग्ध-सा कर रहा है । इस सुमध्यमा को, जो पहले मेरी भार्या थी, भृगु ने अन्याय पूर्वक हड़प लिया है” ।
उग्रश्रवा जी कहते है “इस प्रकार वह राक्षस भृगु की पत्नी के प्रति, यह मेरी है या भृगु की-ऐसा संशय रखते हुए, प्रज्वलित अग्नि को सम्बोधित करके बार-बार पूछने लगा | अग्निदेव ! तुम सदा सब प्राणियों के भीतर निवास करते हो । तुम पुण्य और पाप के विषय में साक्षी की भाँति स्थित रहते हो, अतः सच्ची बात बताओ |
‘असत्य बर्ताव करने वाले भृगु ने, जो पहले मेरी ही थी उस भार्या का अपहरण किया है । यदि यह वही है तो वैसी बात ठीक-ठीक बता दो | सर्वज्ञ ! अग्निदेव ! तुम्हारे मुख से सब बातें सुनकर मैं भृगु की इस भार्या को तुम्हारे देखते-देखते इस आश्रम से हर ले जाऊँगा, इसलिये मुझसे सच्ची बात कहो’ | उग्रश्रवा जी कहते हैं, राक्षस की यह बात सुनकर ज्वालामयी सात जिव्हाओं वाले अग्निदेव बहुत दुखी हुए ।
एक ओर वे झूठ से डरते थे तो दूसरी ओर भृगु के शाप से | अग्निदेव बोले “दानवनन्दन ! इसमें सन्देह नहीं कि पहले तुम्हीं ने इस पुलोमा का वरण किया था, किंतु विधि पूर्वक मन्त्रोच्चारण करते हए इसके साथ तुमने विवाह नहीं किया था | पिता ने तो यह यशश्विनी पुलोमा भृगु को ही दी है । तुम्हारे वरण करने पर भी इसके महायशस्वी पिता तुम्हारे हाँथ में इसे इसलिये नहीं देते थे कि उनके मन में तुमसे श्रेष्ठ वर मिल जाने का लोभ था |
दानव ! इसके बाद महर्षि भृगु ने मुझे साक्षी बनाकर वेदोक्त क्रिया द्वारा विधि पूर्वक इसका पाणिग्रहण किया था | यह वही है ऐसा मैं जानता हूँ। इस विषय में, मैं झूठ नहीं बोल सकता । दानवश्रेष्ठ ! लोक में असत्य की कभी पूजा नहीं होती है” | उग्रश्रवा जी कहते हैं “ब्रह्मन् ! अग्नि का यह वचन सुनकर उस राक्षस ने वराह का रूप धारण करके मन और वायु के समान वेग से उसका अपहरण कर लिया |
भृगुवंश शिरोमणे ! उस समय वह गर्भ जो अपनी माता की कुक्षि में निवास कर रहा था, अत्यन्त रोष के कारण योगबल से माता के उदर से च्युत होकर बाहर निकल आया । च्युत होने के कारण ही उसका नाम च्यवन हुआ | माता के उदर से च्युत होकर गिरे हुए उस सूर्य के समान तेजस्वी गर्भ को देखते ही वह राक्षस पुलोमा को छोड़कर गिर पड़ा और तत्काल जलकर भस्म हो गया |
सुन्दर कटि-प्रदेश वाली पुलोमा दुःख और दर्द से मूर्छित हो गयी फिर कुछ समय बाद, होश आने पर, किसी तरह सँभलकर भृगुकुल को आनन्दित करने वाले अपने पुत्र भार्गव च्यवन को गोद में लेकर ब्रह्माजी के पास चली | सम्पूर्ण लोकों के पितामह ब्रह्मा जी ने स्वयं भृगु की उस पतिव्रता पत्नी को रोती और नेत्रों से आँसू बहाती देखा ।
तब पितामह भगवान् ब्रह्मा ने अपनी पुत्रवधू को सान्त्वना दी और उसे धीरज बँधाया । उसके आँसुओं की बूंदों से एक बहुत बड़ी नदी प्रकट हो गयी | वह नदी तपस्वी भृगु की उस पत्नी के मार्ग को आप्लावित किये हुए थी । उस समय लोक पितामह भगवान् ब्रह्मा ने पुलोमा के मार्ग का अनुसरण करने वाली उस नदी को देखकर उसका नाम वधूसरा रख दिया, जो च्यवन के आश्रम के पास प्रवाहित होती है |
इस प्रकार भृगुपुत्र प्रतापी च्यवन के पिता भृगु ने वहाँ अपने पुत्र च्यवन तथा पत्नी पुलोमा को देखा और सब बातें जानकर उन्होंने अपनी भार्या पुलोमा से कुपित होकर पूछा | भृगु बोले “कल्याणी ! तुम्हें हर लेने की इच्छा से आये हुए उस राक्षस को किसने तुम्हारा परिचय दे दिया ? मनोहर मुसकान वाली मेरी पत्नी तुझ पुलोमा को वह राक्षस नहीं जानता था |
प्रिये ! ठीक-ठीक बताओ । आज मैं कुपित होकर अपने उस अपराधी को शाप देना चाहता हूँ। कौन मेरे शाप से नहीं डरता है ? किसके द्वारा यह अपराध हुआ है ? पुलोमा बोली “भगवन् ! अग्निदेव ने उस राक्षस को मेरा परिचय दे दिया । इससे विलाप करती हुई मुझ अबला को वह राक्षस उठा ले गया | आपके इस पुत्र के तेज से मैं उस राक्षस के चंगुल से छूट सकी हूँ । राक्षस मुझे छोड़कर गिरा और जलकर भस्म हो गया” ।
उग्रश्रवा जी कहते हैं “पुलोमा का यह वचन सुनकर परम क्रोधी महर्षि भृगु का क्रोध और भी बढ़ गया । उन्होंने अग्निदेव को शाप दिया-‘तुम सर्वभक्षी हो जाओगे’ । उग्रश्रवा जी कहते हैं “महर्षि भृगु के शाप देने पर अग्निदेव ने कुपित होकर यह बात कही “ब्रह्मन् ! तुमने मुझे शाप देने का यह दुस्साहसपूर्ण कार्य क्यों किया है” ?
“मैं सदा धर्म के लिये प्रयत्नशील रहता हूँ और सत्य एवं पक्षपातशून्य वचन बोलता हूँ; अतः उस राक्षस के पूछने पर यदि मैंने सच्ची बात कह दी तो इसमें मेरा क्या अपराध है” ? जो साक्षी किसी बात को ठीक-ठीक जानते हुए भी पूछने पर कुछ-का-कुछ कह देता या झूठ बोलता है, वह अपने कुल मै पहले और पीछे की सात-सात पीढ़ियों का नाश करता-उन्हें नरक में ढकेलता है |
इसी प्रकार जो किसी कार्य के वास्तविक रहस्य का ज्ञाता है, वह उसके पूछने पर यदि जानते हुए भी नहीं बतलाता, मौन रह जाता है तो वह भी उसी पाप से लिप्त होता है। इसमें संशय नहीं है | “मैं भी तुम्हें शाप देने की शक्ति रखता हूँ तो भी नहीं देता हूँ, क्योंकि ब्राह्मण मेरे मान्य हैं ।
ब्रह्मन् ! यद्यपि तुम सब कुछ जानते हो, तथापि मैं तुम्हें जो बता रहा हूँ, उसे ध्यान देकर सुनो “मैं योगसिद्धि के बल से अपने आपको अनेक रूपों में प्रकट करके गार्हपत्य होत्रों में, अनेक व्यक्तियों द्वारा संचालित सत्रों में, गर्भाधान आदि क्रियाओं में तथा ज्योतिष्टोम आदि मखों ( यशों ) में सदा निवास करता हूँ |
मुझमें वेदोक्त विधि से जिस हविष्य की आहुति दी जाती है, उसके द्वारा निश्चय ही देवता तथा पितृगण तृप्त होते हैं ‘जल ही देवता है तथा जल ही पितृगण हैं । दर्श और पौर्णमास याग पितरों तथा देवताओं के लिये किये जाते हैं ‘अतः देवता पितर हैं और पितर ही देवता हैं । विभिन्न पर्वो पर ये दोनों एक रूप में भी पूजे जाते हैं और पृथक्पृथक भी |
‘मुझमें जो आहुति दी जाती है, उसे देवता और पितर दोनों भक्षण करते हैं । इसीलिये मैं देवताओं और पितरों का मुख माना जाता हूँ | अमावास्या को पितरों के लिये और पूर्णिमा को देवताओं के लिये मेरे मुख से ही आहुति दी जाती है और उस आहुति के रूप में प्राप्त हुए हविष्य का वे देवता और पितर उपभोग करते हैं, सर्वभक्षी होने पर मैं इन सबका मुँह कैसे हो सकता हूँ? |
उग्रश्रवा जी कहते हैं “महर्पियो ! इसके बाद अग्निदेव ने कुछ सोच-विचारकर द्विजों के अग्निहोत्र, यज्ञ, सत्र तथा संस्कार सम्बन्धी क्रियाओं में से अपने आपको समेट लिया । फिर तो अग्नि के बिना समस्त प्रजा ॐकार, वषटकार, स्वधा और स्वाहा आदि से वञ्चित होकर अत्यन्त दुखी हो गयी ।
तब महर्षिगण अत्यन्त उद्विग्न हो देवताओं के पास जाकर बोले “पापरहित देवगण ! अग्नि के अदृश्य हो जाने से अग्निहोत्र आदि सम्पूर्ण क्रियाओं का लोप हो गया है । इससे तीनों लोकों के प्राणी किंकर्तव्यविमूढ़ हो गये हैं; अतः इस विषय में जो आवश्यक कर्तव्य हो, उसे आपलोग करें ।
इसमें अधिक विलम्ब नहीं होना चाहिये’ | तत्पश्चात् ऋषि और देवता ब्रह्माजी के पास गये और अग्नि को जो शाप मिला था एवं अग्नि ने सम्पूर्ण क्रियाओं से जो अपने-आपको समेटकर अदृश्य कर लिया था, वह सब समाचार निवेदन करते हुए बोले “महाभाग किसी कारण वश महर्षि भृग ने अग्निदेव को सर्वभक्षी होने का शाप दे दिया है, किंतु वे सम्पूर्ण देवताओं के मुख, यज्ञभाग के अग्रभोक्ता तथा सम्पूर्ण लोकों में दी हुई आहुतियों का उपभोग करने वाले होकर भी सर्वभक्षी कैसे हो सकेंगे” ?
देवताओं तथा ऋषियों की बात सुनकर विश्वविधाता ब्रह्मा जी ने प्राणियों को उत्पन्न करने वाले अविनाशी अग्नि को बुलाकर मधुर वाणी में कहा “हुताशन ! यहाँ समस्त लोकों-के स्रष्टा और संहारक तुम्ही हो, तुम्हीं तीनों लोकों को धारण करने वाले हो.| सम्पूर्ण क्रियाओं के प्रवर्तक भी तुम्ही हो । अतः लोकेश्वर ! तुम ऐसा करो जिससे अग्निहोत्र आदि क्रियाओं का लोप न हो।
तुम सबके स्वामी होकर भी इस प्रकार मूढ़ ( मोहग्रस्त ) कैसे हो गये ? तुम संसार में सदा पवित्र हो, समस्त प्राणियों की गति भी तुम्ही हो | तुम सारे शरीर से सर्वभक्षी नहीं होओगे । अग्निदेव ! तुम्हारे अपान देश में जो ज्वालाएँ होंगी, वे ही सब कुछ भक्षण करेंगी, इसके सिवा जो तुम्हारी क्रव्याद मूर्ति है (कच्चा मांस या मुर्दा जलाने वाली जो चिता की आग है) वही सब कुछ भक्षण करेंगी ।
जैसे सूर्य की किरणों से स्पर्श होने पर सब वस्तुएँ शुद्ध मानी जाती हैं, उसी प्रकार तुम्हारी ज्वालाओं से दग्ध होने पर सब कुछ शुद्ध हो जायगा । अग्निदेव ! तुम अपने प्रभाव से ही प्रकट हुए उत्कृष्ट तेज हो; अतः विभो ! अपने तेज से ही महर्षि के उस शाप को सत्य कर दिखाओ और अपने मुख में आहुति के रूप में पड़े हुए देवताओं के तथा अपने भाग को भी ग्रहण करो” |
उग्रश्रवा जी कहते हैं “यह सुनकर अग्निदेव ने पितामह ब्रह्मा जी से कहा “एवमस्तु (ऐसा ही हो)”। यों कहकर वे भगवान् ब्रह्मा जी के आदेश का पालन करने के लिये चल दिये | इसके बाद देवर्षि गण अत्यन्त प्रसन्न हो जैसे आये थे वैसे ही चले गये । फिर ऋषि-महर्षि भी अग्निहोत्र आदि सम्पूर्ण कर्मों का पूर्ववत् पालन करने लगे |
देवता लोग स्वर्गलोक में आनन्दित हो गये और इस लोक के समस्त प्राणी भी बड़े प्रसन्न हुए । साथ ही शापजनित पाप कट जाने से अग्निदेव को भी बड़ी प्रसन्नता हुई | इस प्रकार पूर्वकाल में भगवान् अग्निदेव को महर्षि भृगु से शाप प्राप्त हुआ था । यही अग्निशाप सम्बन्धी प्राचीन इतिहास है । पुलोमा राक्षस के विनाश और च्यवन मुनि के जन्म का वृत्तान्त भी यही है |