ब्रह्म एक ही है | एकोहम द्वितीयो नास्ति। उस एक ही सत् (ब्रह्म), को ज्ञानी जन इन्द्र, मित्र, वरूण, अग्नि, दिव्य सुपर्ण गुरूत्मान, यम और मातारिश्वा के नाम से भी पुकारते हैं। भारतीय शास्त्रों के अनुसार नाम दो प्रकार का होता है, एक वर्णात्मक और दूसरा ध्वन्यात्मक।
वर्णात्मक और ध्वन्यात्मक नाम क्या होते है
जो नाम अक्षरों के मेल से बनते हैं उनको वर्णात्मक कहते हैं, जैसे राम, कृष्ण, शिव, दुर्गा, गणेश आदि। सामान्य, भौतिक जगत में इसी प्रकार के नामों का प्रचलन है | ध्वन्यात्मक नाम का अनुभव योगियों को ही होता है। जब योगी का प्राण सुषुम्णा नाड़ी में प्रवेश कर मूलाधार से ऊपर जाता है तो उसे कई प्रकार की दिव्य अनुभूतियां होती हैं।
इन्ही अनुभूतियों में उसे नाद की भी अनुभूति होती है। नाद जो अनाहत होता है अर्थात बिना किसी आघात के उत्पन्न होता है | योगी जन बताते हैं कि इस प्राण का गमन मूलाधार चक्र (जो कि जननेन्द्रियों में होता है) से सहस्रार चक्र तक होता है। प्राण के इस गमन मार्ग में कई ठहराव हैं, जिन्हें चक्र कहते हैं। प्रत्येक चक्र में नाद का एक विशेष रूप होता है, किंतु सभी को अनाहत कहा जाता है। ये अनाहत नाद ही ध्वन्यात्मक नाम होते हैं |
प्रणव क्या है
अंतिम चक्र, सहस्रार, में पहुंच कर साधक को नाद के अति सूक्ष्म रूप का अनुभव होता है, जिसक नाम प्रणव है। इस स्थल पर ही सम्प्रज्ञात समाधि की अस्मितानुगत समाधि होती है और इसके बाद ही साधक ईश्वर का साक्षात्कार कर सकता है। ऐसा कहा जाता है कि इससे ऊपर जहां अस्मिता का लय होता है और असम्प्रज्ञात समाधि का उदय होता है, वहां जीवात्मा और परमात्मा का भेद समाप्त हो जाता है। और जिस भूमिका में ईश्वर का साक्षात्कार होता है, उससे संबंध होने के कारण ही प्रणव को ‘ईश्वर का वाचक’ माना जाता है। योगदर्शन (1।27) में महर्षि पतंजलि ने इसे ही ‘तस्य वाचकः प्रणवः’ कहा है।
प्रणव ही ऊँकार है
प्रणव का अर्थ ऊँकार है, जो अ, उ, म-इन अक्षरों से बना है। ये तीन अक्षर ब्रह्मा, विष्णु और महेश के अर्थ मे व्यवहृत होते हैं | ध्यान रखने वाली बात यह है कि प्रणव वर्णात्मक नहीं होकर ध्वन्यात्मक है, अतः वर्णनातीत है। ब्रह्मा जी द्वारा देवी की स्तुति में यह वर्णन आया है कि-
हे देवि! आप ही जीवनदायिनी सुधा हैं। नित्य अक्षर ‘प्रणव’ में अकार, उकार, मकार-इन तीन मात्राओं के रूप में आप ही स्थित हैं तथा इन तीन मात्राओं के अतिरिक्त जो बिन्दुरूपा नित्य अर्ध मात्रा हैै, जिसका उच्चारण नहीं किया जा सकता, वह भी आप ही हैं।
क्या ऊँ का जप करने से परमात्मा की प्राप्ति हो सकती है
महायोगी दत्तात्रेय जी बताते हैं कि विश्वरूपी परमात्मा का दर्शन करके उनकी प्राप्ति के लिये परम पुण्यमय ‘ऊँ’ इस एकाक्षर-मंत्र का जप करे-
आगे प्रणव के स्वरूप तथा माहात्मय के विषय में वे कहते हैं-अकार, उकार और मकार-ये जो तीन अक्षर हैं, ये ही तीन मात्राएं हैं | ये क्रमश सात्विक, राजस और तामस हैं। इनके अतिरिक्त एक अर्धमात्रा भी है, जो अनुस्वार या बिन्दु के रूप में इन सबके ऊपर स्थित है, वह अर्धमात्रा निगुर्ण है, योगी पुरूषों को ही उसका ज्ञान हो पाता है।
प्रणव ऊँकार धनुष है, आत्मा तीर है और ब्रह्म बेधने योग्य लक्ष्य है। उस लक्ष्य को सावधानी से बेधना चाहिये और बाण की ही भांति लक्ष्य में प्रवेश करके तन्मय हो जाना चाहिये। ऊँकार ही तीनों वेद (ऋक, साम और यजु), तीनों लोक (भूः, भुवः स्वः), तीनों अग्नि (गार्हपत्य, आहवनीय, दक्षिणाग्नि), त्रिदेव (ब्रह्मा-विष्णु-महेश) है। इस प्रणव में साढ़े तीन मात्राएं जाननी चाहिये। पहली मात्रा व्यक्त, दूसरी अव्यक्त, तीसरी चिच्छक्ति तथा चौथी, जो अर्धमात्रा है वह परम पद कहलाती है।
ऊँकार की मात्राएँ क्या हैं
इसी क्रम से इन मात्राओं को योग की भूमिका समझना चाहिये। ऊँकार के उच्चारण से सम्पूर्ण सत और असत ग्रहण हो जाता है। पहली मात्रा हृस्व, दूसरी दीर्घ और तीसरी प्लुत है, किंतु अर्धमात्रा वाणी का विषय नहीं है। इस प्रकार यह ऊँकार पर ब्रह्मस्वरूप है, जो मनुष्य इसे भलीभांति जानता है और इसका ध्यान करता है, वह संसार-चक्र का त्याग करके त्रिविध बन्धनों से मुक्त होकर परमात्मा में लीन हो जाता है।
प्रणव के जप से अभीष्ट सिद्धियां प्राप्त होती है, इस बात को वेदों ने भी स्पष्ट शब्दों में इस प्रकार कहा है ‘सभी वेद जिस परम पद का बारम्बार प्रतिपादन करते हैं, सभी तप जिस पद का लक्ष्य कराते हैं, जिसकी इच्छा से ब्रह्मचर्य का पालन होता है-उस पद को संक्षेप में कहा जा रहा है-वह ऊँकार ही है’।
क्या प्रणव यानी ऊँकार ही साक्षात परब्रह्म है
यह अविनाशी ऊँकार (प्रणव) ही तो ब्रह्म एवं परब्रह्म है। इस तत्व को जानकर साधक दोनों में से किसी को भी प्राप्त कर सकता है। ऊँकार (प्रणव) ही परब्रह्म प्राप्ति का श्रेष्ठ आलम्बन है। परमात्मा के श्रेष्ठ नाम की शरण लेना ही उनकी प्राप्ति का अमोघ साधन है। इस रहस्य को जानकर जो साधक श्रद्धा एवं विश्वास के साथ परमात्मा पर निर्भर हो जाता है, वह उनकी प्राप्ति कर लेता है। इस तथ्य को भगवान श्री कृष्ण भी गीता में कहते हैं|
भाव यह है कि “वेद के ज्ञाता जिस अक्षर रुपी ब्रह्म यानि ऊँकार का उच्चारण करते हैं, वीतराग यति जिसमें प्रवेश करते हैं, जिसकी प्राप्ति हेतु ब्रह्मचर्य का पालन करते हैं, उस पद को संक्षेप में कहता हूं। यह एकाक्षर ब्रह्म ऊँकार है। इस ऊँकार का उच्चारण करते हुए जो अपने शरीर का त्याग करता है, वह मेरा परम पद प्राप्त करता है”।
उपनिषदों ने ऊँकार की किस प्रकार व्याख्या की है
छान्दोग्योपनिषद (1।1।1) के शांकरभाष्य के अनुसार ‘उदीग्थशब्दवाच्य ‘ऊँकार’ का उपासना करें। ‘ऊँ’ यह अक्षर परमात्मा का सबसे प्रिय नाम है। पुनः छान्दोग्योपनिषद के अनुसार जो उदीग्थ है, वही प्रणव है, वही उदीग्थ है| इसी श्रुति में यह रहस्यमय वर्णन आया है कि प्रजापति के पुत्र देवता और दानव किसी कारणवश परस्पर युद्ध करने लगे। उसमें देवताओं ने प्रणव का अनुष्ठान कर विजय प्राप्त कर ली।
महर्षि पतंजलि ने इस प्रणव (ऊँकार) के जप का विधान इस प्रकार किया है ‘तज्जपस्तदर्थभावनम।’ अर्थात इस ऊँकार का जप उसके अर्थस्वरूप परमात्मा का चिंतन करते हुए करना चाहिये।
प्रश्नोपनिषद (5।2)-के अनुसार ‘परं चापरं च ब्रह्म यदोड.कांरः। अर्थात परब्रह्म और अपरब्रह्म भी ऊँकार ही है। पुनः यह उपनिषद आगेकहता है कि ‘बुद्धिमान मनुष्य बाह्य जगत में आसक्त न होकर ऊँकार उपासना द्वारा समस्त जगत के आत्मरूप उन परब्रह्म को प्राप्त कर लेते हैं, जो परम शान्त-सब प्रकार के विकारों से रहित, जहां न बुढ़ापा है, न मृत्यु है, न भय है, जो अजर-अमर निर्भय परमात्मा है’।
तैत्तिरीयोपनिषद भी इसी भाव को अभिव्यक्त करता है। ऊँकार के कीर्तन से परमात्मा की प्राप्ति होती है। ‘एतत्साम गायन्न्ास्ते’ से मंत्र के गान का ही विधान है। माण्डूक्योपनिषद में तो केवल ऊँकार की ही महत्ता का प्रतिपादन हुआ है। ऊँकार यह अक्षर अविनाशी परमात्मा है। यह जगत उसी का विस्तार है। तीनों काल (भूत, वर्तमान और भविष्यत) ऊँकार ही है, जो त्रिकालातीत है, वह परब्रह्म ऊँकार ही है।
क्या समस्त वेदों का सार वह परब्रह्म ऊँकार ही है
महर्षि पतंजलि योगदर्शन में कहते हैं ‘यथाभिमतध्यानाद्वा।’ (यो0द0 1।39) अर्थात अपनी रूचि के अनुसार अपने इष्ट का ध्यान करने से मन स्थिर हो जाता है। जैसे भगवान ‘कर्तुमकर्तुमन्यथाकर्तुं समर्थः’ हैं, वैसे हीभगवन्नाम-जप भी ऐसा करने में समर्थ है। नाम और नाममी में कोई भेद नहीं है।
प्रणव को ‘वेदसार’ भी कहा जाता है। सर्वप्रथम ऊँ का उच्चारण करके ही वेदारम्भ, पाठारम्भ, मंत्रारम्भ करने का विधान है। ‘ऊँकारः पूर्वमुच्चार्यस्ततो वेदमधीयते।’ अर्थात वेदपाठ बंद करने के पूर्व भी ऊँ का उच्चारण करने का नियम है। इस प्रकार प्रणव (ऊँकार) साक्षात परमात्मा का नामावतार है, नादावतार है। इसके जप से भगवान की प्राप्ति हो जाती है। यज्ञोपवीती द्विज (ब्राह्मण, क्षत्रिय, वैश्य) ही इस जप के अधिकारी हैं। अनुपवीती तथा स्त्री और शूद्र को ‘राम’, ‘शिव’ आदि नामों का जप करना चाहिये।