भगवान ने केवल मनुष्य रूप में ही जन्म नहीं लिया है बल्कि विभिन्न योनियों में वे प्रकट हुए हैं | लेकिन भगवान जन्म क्यों लेते हैं? इसके उत्तर में स्वयं प्रभु ही सहज उत्तर दते हैं ‘अनुग्रहाय भूतानाम्’ कितना औदार्य है प्रभु के इस कथन में-प्राणियों पर अनुग्रह करने के लिये। यही ईश्वरत्व है।
वस्तुतः यहां अवतार मीमांसा है। जीव ईश्वर का अपना अंश है और यही अंश जब अपने मूल में लौटना चाहता है तो ईश्वर इसके स्वागत में, इससे मिलने का उद्यत रहते हैं। यह तत्परता ही प्रेम है, जो भगवान और भक्त के मिलन का बहाना ढूंढते रहते हैं और जैसे ही हृदय की पुकार सुनायी दी, तुरंत वे प्रकट हो जाते हैं।
काल, पात्र-कुपात्र, स्त्री, पुरूष, बालक, जड़ चेतन-इसका वे कुछ भी विचार नहीं करते। भगवान का यह स्वभाव ही प्रेमसूत्र है और यह सूत्र ही अवतारवाद का मूल हेतु है। भगवान लीलाधर हैं। वास्तव में प्रेम के साथ-साथ वैचित्र्य भी उनका स्वभाव है। साथ ही वे सर्वशक्तिमान हैं। अतः जड़-चेतन, किसी भी रूप में आने से उन्हें कौन रोक सकता है? बस, उनके संकल्प मात्र की आवश्यकता है।
वे किसी भी रूप में कहीं भी अवतरित हो सकते हैं। मनुष्य, पशु-पक्षी, वृक्ष, नदी, पर्वत और यहां तक कि जड़ रूप में भी उन्हें अवतरित होना पड़ता है। अपनी प्रिय सखी कृष्णा (द्रौपदी) के लिये उन्होंने वस्त्र के रूप में जन्म लिया तो कभी अपनी भाव परिणीता प्यारी मीरा के लिये जहर के रूप में अर्थात विष के रूप में।
विष के रूप में अवतरण ही प्रभु का विशेषावतार है
उस समय मरू-मंदाकिनी मीरा, भगवान श्री कृष्ण की दीवानगी में आकण्ठ डूबी हुई थीं। उनके आचरण और व्यवहार से भक्ति जैसे रिस-रिस जाती थी, टपक पड़ती थी। उनका भाव जगत इतना समृद्ध था कि उनके एक-एक पद में कृष्ण साकार हो उठते थे। जब वे तल्लीन होकर गाती थीं तो लगता था, हर एक शब्द गिरिधर है और हर भाव मीरा।
शब्द, भाव और ध्वनि (करताल) सब मिल कर भक्त और भगवान को एक कर देते थे। परमानन्द का यह ऐक्य ही प्रेमोत्सव है, जिसमें भक्त और भगवान अनादि काल से एक होने की पुष्टि करते हैं। मीरा इसी पुष्टि का प्रसन्न पुष्प है, जिसकी सुरभि के लिये भक्त वत्सल भगवान श्री कृष्ण को विष अर्थात जहर के रूप में अवतरित होना पड़ा।
मीरा जी की कथा
आर्यावर्त भारत की शौर्यधरा राजस्थान। सूर्यनगरी जोधपुर को बसाने वाले सुप्रसिद्ध राठौड़-वीर राव जोधा के पुत्र राव दूहा जी हुए, जो मेड़ता के स्वामी थे। भक्त के रूप में उनकी ख्याति भी खूब थी। उन्हीं की पौत्री मेड़ता नरेश राव रतन सिंह की पुत्री राजकुमारी मीरा थी । बाल्य अवस्था से ही दादा दूहा जी एवं भाई जयमल (ताऊ जी विरमदेव के पुत्र) के संग ने बालिका मीरा को कृष्ण भक्ति में रचा-पचा दिया।
मीरा की आस्था कृष्ण में इतनी बढ़ गयी कि आराधना करते-करते अपने आराध्य के प्रति सख्यभाव और तदनन्तर कान्त भाव कब आ गया, उन्हें पता ही नहीं चला | वह कन्या कृष्ण की भाव-परिणीता बन गयी, कृष्ण को अपना पति मान बैठी और इसी भाव से वह बावरी आगे बढ़ती ही गयी |
मीरा श्री कृष्ण के इस रंग में ऐसा रंग गयी कि उसे बाल्यावस्था और कैशोर्य का कुछ भी ध्यान नहीं रहा, न खेलने की चाह, न बंधन की चाह। बस, भक्ति पंथ, पद पखावज और मिलन की आस-‘गोबिंद कबहुँ मिलै पिया मेरा।।’
मीरा का विवाह हो गया। राजकुमारी मीरा महाराणा सांगा के पुत्र युवराज भोजराज की रानी बन चित्तौड़ राजमहल की चैखट चढ़ीं। सुसंयोग से पति भोजराज भी पत्नी के भक्ति मार्ग में बाधक नहीं बने, किंतु दुर्भाग्यवश महाराज भोज का देहान्त जल्दी ही हो गया। रानी मीरा विधवा हो गयीं, लेकिन भक्त मीरा और भी दृढ़ हुई |
क्या भावना है भक्त की! क्या दृढ़ता! भक्त तो दुःख को भी अपने आराध्य का ही एक रूप मानता है और इस तरह मीरा अपने निर्धारित पथ पर आगे ही आगे बढ़ती गयीं। भक्त के रूप में उनकी शीघ्र ही प्रसिद्धि हो गयी और अनेक साधु-संत उनके पास संत-समागम हेतु आने लगे।
दुर्भाग्य के इसी दौर में उनके पिता रतन सिंह और श्वशुर महाराणा सांगा का प्राणोत्सर्ग हुआ। मीरा का रहा सहा सम्बल भी शून्य हो गया। उस समय राजवंश की एक रानी के साथ साधु-संतों का मिलना और नृत्य-कीर्तन राज परिवार को अच्छा नहीं लगा।
मीरा को इससे विरत करने के लिए अनेक प्रयत्न किये गये, लेकिन मीरा तो जैसे दुःख में भी अपने गिरिधर की छवि निहारती थी और दुःखों का स्वागत करती थी। यह भक्ति की पराकाष्ठा है। भक्त का यह स्वभाव है कि वह ईश्वर से दुःख की नित्य कामना करता है |
वह कहता है ‘हे जगदगुरो! हमारे जीवन में हर पग पर विपत्तियां आती रहें, क्योंकि विपत्ति में ही निश्चित रूप से आपके दर्शन होते रहते हैं और आपके दर्शन के बाद जन्म-मृत्यु के चक्कर में आना नहीं पड़ता। और वास्तव में मीरा के प्रभु गिरिधर हर बार उनके दुःख दूर करते गये।
राणा जी ने एक पिटारी में सांप रखवा कर ले जाने वाले को आदेश दिया कि इसे मीरा के हाथ में ही देना। ऐसा ही हुआ। लेकिन नहा-धोकर मीरा ने टोकरी खोली तो निहाल हो गयी-कण्डिये में शालीग्राम बिराज रहे थे। वाह प्रभु! धन्य है हैं आप और आपकी माया, भक्त के लिये क्या-क्या नहीं करते आप! विषरूप उस विषधर को ही आपने अपने में मिला लिया और अपने शालीग्राम रूप को भक्त के दर्शन के लिये पिटारी में बंद कर दिया।
वाह रे मुक्तिदाता! तू खुद बंधन में बँध गया। जय हो प्रभु! तेरी जय हो। जहर का क्या सानिध्य किया है। ये विशेष अवतार ही भगवान के कलावतार, अंशावतार और आवेशावतार को पुष्ट करते हैं; क्योकि इन्हीं में भक्त का कल्याण निहित है-अर्थात जीवों का कल्याण करने के लिये ही भगवान अवतार लेते हैं। और आज तो हद ही हो गयी, जब राणा जी ने अपनी भाभी और महारानी मीरा के लिये जहर का प्याला ही भेज दिया।
मीरा अपने पूजा कक्ष में नित्यानुसार गिरिधर की आराधना में लीन हैं। इधर, राणा ने हलाहल जहर मंगवाया और उसे एक प्याले में भरकर पुजारी जी के हाथ षडयंत्रपूर्वक मीरा जी के लिये भिजवाया-यह कहकर कि ‘यह भगवान का चरणामृत है।’
पुजारी जी प्रवेशाज्ञा चाहते हैं। भक्त निश्चल होते हैं अतः मीरा ने भी अनुमति दे दी। पुजारी जी आदर सहित वह कटोरा अर्पित करके कहते हैं-चरणामृत है, राणा जी ने भिजवाया है। मीरा प्रसन्न हो गयीं। वाह प्रभु! आज कृतार्थ हो गयी। चरणामृत और वह भी राणा जी ने।
उन्होंने विस्मय मिश्रित संतोष व्यक्त किया। बड़े आदर के साथ रानी स्वीकार करती हैं और शीश नवा कर कृत कृत्य होती हैं। गिरिधर का चरणामृत जानकर उनके रोम-रोम में पुलक जग जाता है। बड़ी बावली हो जाती हैं, भक्त जो ठहरीं।
उनकी ननद मातली और एक दासी उस षडयंत्र को जानती हैं, वे दोनों दौड़ी हुई वहाँ पहुंचीं अपनी भक्त भावज के पास उन्हें यथार्थ-बोध कराने। वे इसे नहीं पीने का अनुनय करती हैं। लेकिन मीरा अचल भाव से कहतीी हैं-यह मेरे गिरिधर का चरणामृत है, इसे अवश्य ग्रहण करूंगी। उसके नाम से आया है न! यह परम प्रसाद है।
वाह रे भक्ति! आस्था और विश्वास का अभेद्य दुर्ग। भाभी! अनर्थ हो जायगा। यह चरणामृत नहीं परम घातक विष है। यह सुनने पर मीरा कहती हैं-देखूं तो और प्याले में झांकती हैं तो प्याले में अपने गिरधर की छवि निहार निहाल हो जाती हैं। आनंद का पारावार नहीं रहा। मीरा मगन हो जाती हैं और हरिगुन गुनगुनाने लगती हैं-‘मीरा हो गयी मगन।’
मीरा ने प्याला मस्तक से लगाया, कान्हा का रूप निहारा, आंखों को सुख मिला और गटक गयी बावरी उस हलाहल को कृष्ण के नाम पर। सब स्तब्ध! अहा! क्या स्वाद था! यह तो मीरा ही जाने। आज भक्त के कारण भगवान विष का रूप लेने में भी नहीं हिचकिचाये और विष, विष न रहकर अमृत हो गया। होता भी क्यों नहीं, कृष्ण जो उसमें घुल गए । आज दीनबन्धु दीनानाथ ने विषावतार जो धारण किया था!
वाह कन्हैया, तेरा पार कहां? तू क्या नहीं करता! धन्य हो गयी मीरा भगवान के इस विषावतार के रूप से, जहां जड़ और चेतना में भी कोई फर्क नहीं। तभी तो शास्त्रों ने आगाह किया है-‘सुहृदं सर्वभूतानाम।’
भगवान का विष से सम्बन्ध
भगवान और विष का यह पहला संबंध नहीं है। कृष्ण को तो जन्म लेते ही इसका स्वाद लग गया था। कंस के कहने पर पूतना अपने स्तन पर कालकूट (हलाहल) जहर लेप कर कृष्ण को स्तनपान कराने आयी थी। बड़ी चतुराई से वह छलरूपिणी बालक कृष्ण तक पहुंची और उन्हें अपना दूध पिलाने लगी। लेकिन कृष्ण तो कृष्ण ठहरे, चाहे शिशु ही क्यों न हों। जहर के साथ पूतना का जीवन रस तक पी गये और यह उनका ईश्वरत्व ही तथा कि पूतना को भी सदगति प्रदान की-
अर्थात पापिनी पूतना ने अपने स्तनों में हलाहल विष लगाकर श्री कृष्ण को मार डालने की नियत से उन्हें दूध पिलाया था, उसको भी भगवान ने वह परम गति दी जो धाय को मिलनी चाहिये। उन भगवान श्री कृष्ण के अतिरिक्त और कौन दयालु है, जिसकी शरण ग्रहण करें।
कालिय-मर्दन, अघासुर-उद्धार आदि प्रसंग भी भगवान के विषवरण के ही विविध कथानक हैं; तभी तो गोपियां, गोपी-गीत में श्री कृष्ण उपकारों का स्मरण करती हुई कहती हैं ‘यमुना जी में विषमय जल से होने वाली मृत्यु, अजगर के रूप में खा जाने वाले अघासुर, इन्द्र की वर्षा, आंधी, बिजली, दावानल आदि से आपने हमारा रक्षण किया है।
माता कुन्ती जी भगवान के उपकार का स्मरण करती हुई स्तुति करती हैं ‘आपने मेरे भीम को दुर्योधन द्वारा जहर के लडडू खिलाने पर बचाया था।
इस तरह भगवान श्री कृष्ण के और विष-जहर के विविध वृतान्त हमारे शास्त्रों में सुवर्णित हैं, परंतु विष में श्री कृष्ण की छवि अंकित होने की एकमात्र घटना मीरा के विषपान की ही है |
इसके पश्चात् मीरा ने मेवाड़ छोड़ वृन्दावन पदार्पण किया। वहां से वे द्वारका गयीं। वहां भगवान द्वारकाधीश में सदेह समा गयीं और उन्होंने इन पंक्तियों को सार्थक कर दिया | ‘हे गोविन्द! हे दामोदर! हे माधव! हे विष्णो! आप मुझे अपने कर कमलों का आश्रय प्रदान कीजिये’।