कहते हैं कि सत्ययुग में भगवान नृसिंह का अवतार हुआ था, त्रेता में भगवान श्री रामचन्द्र जी अवतरित हुए, और द्वापर में भगवान श्री कृष्ण मुरारी का अवतार हुआ इसी प्रकार से वर्तमान में, कलियुग में भगवान के नाम रूप का अवतार है। वास्तव में देखा जाए तो नामावतार तो पुरातन, सनातन एवं शाश्वत है। यह तो सभी युगों में हुए अवतारों के साथ विद्यमान रहता ही है।
भगवान नृसिंह, मर्यादा पुरूषोत्तम श्री रामचन्द्र, भगवान श्री कृष्ण, ये सभी अपनी-अपनी लीला पूर्ण करके अपने-अपने लोकों में लौट गये, परंतु नाम भगवान तो अभी भी विराजमान हैं। सत्ययुग में ध्यान और यौगिक साधनाओं की प्रधानाता थी, त्रेता युग यज्ञ प्रधान था और द्वापर पूजा और उपासना प्रधान|
किंतु उपर्युक्त युगों में जो गति पूजा, यज्ञ तथा योग द्वारा प्राप्त होती थी, वही गति इस कलियुग मे भगवान के नाम से प्राप्त हो जाती है। श्रीकाक भुशुण्डिजी ऐसी घोषणा भी करते हैं|
करूणा वरूणालय भगवान ने अपने भक्तों के कल्याण की भावना से प्रेरित एवं द्रवित होकर नामावतार द्वारा अपनी कृपा शक्ति को प्रकाशित किया है। जिन-जिन हेतुओं के लिये परबह्म परमात्मा साकार रूप में अवतरित हुए, वे ही हेतु इस युग में ‘नामावतार’ द्वारा भी सम्पादित किये जा रहे हैं। श्री तुलसीदास जी कहते हैं कि भगवान श्री राम का नाम साक्षात नृसिंह भगवान है।
कलियुग का समय साक्षात् मूर्तिमान हिरण्यकशिपु है और राम नाम का जप करने वाला जापक प्रहलाद है। जिस प्रकार सत्ययुग में हिरण्यकशिपु के अत्याचारों से संत्रस्त प्रहलाद के संकट का निवारण नृसिंह के रूप में प्रकट होकर भगवान करते हैं, उसी प्रकार आज भी कलियुग में नाम भगवान द्वारा हमारी समस्याओं-हमारे संकटों से हमें छुटकारा मिलता है।
प्रहलाद को अपने ही पिता राक्षसराज हिरण्यकशिपु द्वारा यातनाएं दी जाती हैं, उन्हें अग्नि में जलाया जाता है, सर्प से डंसाया जाता है, पर्वत से गिराया जाता है तथा भूख से सताया जाता है।
विचार करके देखें तो साधक के साथ भी यही कुछ होता है, चाहे वह बाहर का सांप न हो, बाहर का पहाड़ न हो तथा बाहर की आग न हो, पर क्या ईर्ष्या, द्वेष एवं क्रोध अग्नि से साधक संत्रस्त नहीं होता? क्या चिंता की आग में सभी लोग नहीं जल रहे हैं?
दुर्गुणों के सांप साधक को डंसने के लिये तैयार रहते हैं। विषयों का विष उतरता ही नहीं। चिंता की अग्नि सदैव जलाती रहती है। अंहकार का पर्वत गिराने के लिये सर्वदा तत्पर रहता है।
अभिमन्यु के पुत्र राजा परीक्षित के राज्य काल की घटना है। राजा परीक्षित को मालूम हुआ कि उनके राज्य में कलियुग का प्रवेश हो गया है, तो वे सेना लेकर दिग्विजय के लिये निकल पड़े। एक स्थान पर उन्होंने देखा कि धर्म बैल का रूप धारण करके एक पैर से घूम रहा है। एक स्थान पर उन्हें गायरूपी पृथ्वी मिली, उसके नेत्रों से आंसू झर रहे थे।
राजा परीक्षित ने पृथ्वी से पूछा “तुम दुःखी क्यों हो”? पृथ्वी ने बताया “धर्म! भगवान श्री कृष्ण ने इस समय इस लोक से अपनी लीला का संवरण कर लिया है और यह संसार पापमय कलियुग की कुदृष्टि का शिकार हो गया है, यही देख कर मुझे बड़ा दुःख एवं भय हो रहा है”।
आगे बढ़ने पर राजा परीक्षित ने पुनः देखा कि एक राजवेषधारी शूद्र हाथ में डंडा लिये हुए है और गाय-बैल के उस जोड़े को पीट रहा है। राजा ने पूछा “अरे नराधम ! तू कौन है? इन्हें क्यों पीट रहा है”? उसने उत्तर दिया “राजन! मैं कलि हूं, मैं अपना कर्त्तव्य कर रहा हूं”। राजा ने क्रुद्ध होकर कहा “मैं तुम्हें यहां नहीं रहने दूंगा”।
कलि ने कहा “राजन! पहले मेरे गुण-दोष तो सुन लो, तब निर्णय लेना। मेरे काल में धन-सम्पत्ति के लिए भाई-भाई लड़ेंगे । स्त्री-पुरूष मर्यादा का उल्लंघन करने वाले होंगे। कोई-कोई नारी मर्यादा में रहने वाली होगी, किन्तु अधिकांश उच्श्रंखल होंगी । मेरे समय में हिंसा का प्राधान्य रहेगा। मानव अल्पायु एवं अल्प-बुद्धि होंगे।
लोग मद्य-मांस का ही सेवन अधिक करेंगे”। उस समय कलि की घोषणा सुन राजा परीक्षित तिलमिला कर बोले “बस-बस, हद हो गयी, तुम्हारे प्रभाव से तो मानवता ही लुप्त हो जायगी, अतः मैं तुम्हें मार डालूंगा”। कलि ने आगे कहा “महाराज! मुझमें एक बड़ा भारी गुण भी है, कृपया इसे भी सुन लें-सत्ययुग में दीर्घकालीन जप-तप, उपवास, व्रत, ध्यान आदि करने से, त्रेता में बड़े-बड़े यज्ञों के करने से, द्वापर में भगवत्सेवा-पूजा आदि से जितना पुण्य मिलता है, उतना पुण्य मेरे काल में प्रेमपूर्वक राम-नाम के जपने से मिलेगा”।
इसी बात की श्री शुकदेव जी परीक्षित को बताते हुए कहते हैं कि “राजन! यों तो कलियुुग दोषों का खजाना है, परंतु इसमें एक बहुत बड़ा गुण भी है। वह गुण यही है कि कलियुग मे केवल भगवान का नाम-संकीर्तन करने मात्र से सारी आसक्तियां छूट जाती हैं और परमात्मा की प्राप्ति हो जाती है तात्पर्य यह है कि कलियुग में भगवान नामावतार के रूप में जीवों का कल्याण करते हैं। अतः जो साधक भगवन्नाम का आश्रय लेते हैं, उनकी रक्षा के लिये अन्ततोगत्वा एक दिन भगवान अपनी पूर्ण शक्ति के साथ प्रकट या अप्रकट रूप में हिरण्यकशिपुरूपी कलियुग का संहार अवश्य करते हैं। इस प्रकार साधक की साधना सफल होती है।
कलियुग की बुराईयों, विघ्न-बाधाओं के मध्य रहते हुए भी नाम उपासना का आश्रय लेना-यह भगवान की कृपा का प्रत्यक्ष प्रमाण है। जीवन्त उदाहरण हैं-गोस्वामी श्री तुलसीदास जी एवं भक्ति शिरोमणि श्री सूरदास जी। इन्होंने नाम की आराधना की। भगवान ने कृपा करके उनके चित्त का शुद्धीकरण करके उन्हें वंदनीय बना दिया और उनकी रचनाओं को अमर।
नाम उपासना भक्ति प्रधान है। भक्ति का मार्ग उनका है, जिनके पास अपना बल नहीं है। इस पथ का पथिक यदि किसी भी प्रकार अपने बल का स्वयं अनुभव करे अथवा उसे अपने पुरूषार्थ का तनिक भी अभिमान हो तो वह भक्तिमार्ग का सच्चा यात्री नहीं। यह मार्ग उनका है, जो अपने अहं का हनन कर चुके हैं।
संत कनकदास जी से जो कोई पूछता, ‘क्या मैं परम धाम जाऊँगा?’ तो वो कहते ‘नहीं, जब मैं नहीं जायगा, तो तू नहीं जायगा।’ किसी को उत्तर देते-‘जब मैं जायगा, तो तू जायगा।’ पूछने वाले इन वचनों को एक अहंकारी के वचन समझते। उनसे फिर पूछा गया “क्या आप परम धाम जायेंगे”? उन्होंने उत्तर दिया “हाँ! जब मैं जायगा, तो ‘मैं’ जाऊँगा।”
लोगों को अब सही समझ आयी कि संत किस ‘मैं’ की बात समझा रहे हैं। मान को उलटा करें तो नाम बनता है। ये दोनों एक साथ नहीं रह सकते-अतः ‘नाम’, मान को, या अहं को मारने की अचूक दवा है। ‘नाम’ उसे कहते हैं जो ‘नम’ कर दे अर्थात झुका दे। नाम एक ओर जीव को झुकना सिखा देता है, दूसरी ओर भगवान को झुका देता है।
दोनों के झुकनेे पर जीवात्मा और परमात्मा का मिलन हो जाता है। नाम तो श्री नाम अवतार को भी झुका देता है । प्रभु से प्रेम जन्म-जन्मान्तरों का मोह मिटा देता है। नाम भगवान श्री राम को हर समय अंग-अंग मानने का अर्थात दिव्य प्रेम में हर समय डुबकी लगाये रखने का एवं श्रीराम कृपा को सर्वदा याद रखने का सामर्थ्य प्रदान करता है। ऐसा जापक झुकने की, विनम्र रहने की कला सीख कर परमात्मा के परम-प्रेम का पात्र बन जाता है तथा प्रत्येक परिस्थिति को प्रभु-प्रसाद मान कर सम रहता है।
एक बार एक संत के पास ब्राह्मण वेश में कलियुग पधारे, परिचय दिया तथा आदेश दिया ‘सत्संग में आत्मा-परमात्मा की चर्चा एवं श्री रामनामोपासना पर बल मत दिया करें। इससे लोगों का मनोबल, बुद्धिबल बढ़ता है, विश्वास में वृद्धि होती है। तब उन पर मेरी दाल नहीं गलती, वे मेरे प्रभाव से बाहर हो जाते हैं”।
संत ने विनय पूर्वक उनसे कहा “भाई! भीड़ इकटठी करना मेरा उददेश्य नहीं, लोगों में भक्तिभाव जगे, उन्हें सत्स्वरूप का बोध हो, यही सत्संग का लक्ष्य है।” कलियुग ने कहा “इस समय मेरा शासन है, जिसका राज्य हो उसके पक्ष में रहना बुद्धिमानी है।” संत ने हँसते हुए उत्तर दिया “भाई! मैं तेरे राज्य में नहीं, राम राज्य में हूँ, मेरे राजा राम हैं, तू नहीं, युग तो आते-जाते रहते हैं।”
आपकी मेरी अवज्ञा महंगी पड़ेगी। यह धमकी देकर कलि चला गया। अगले ही दिन, सत्संग के समय ही, उन संत के पास एक व्यक्ति आया, और उनसे कहा “महाराज! आपने जो मदिरा मंगवायी थी, उसके पैसे अभी तक नहीं पहुंचे।” संत समझ गये, ‘यह कलि का खेल है।’ उनके जो सत्संगी थे, निंदक हो गये, आश्रम खाली हो गया।
उस शाम कलि प्रकट हुए, पूछा “कैसा है आश्रम? कैसी है भक्ति? सुना है, भगवान मानने वाले शैतान मानने लगे हैं। पुनः कहूंगा, मेरे राज्य में नामोपासना सिखा कर मेरे विरूद्ध न चलो। यदि मान जाओ तो कल से ही दुगने भक्त पधारने लगेंगे।” संत ने पूछा “कैसे”? कलि ने कहा “कल ही दिखा दूंगा”।
अगले ही दिन एक कोढ़ी, उस आश्रम के मार्ग में पड़ा चिल्ला रहा था “अरे कोई मुझे संत के पास ले आओ, यदि वह कृपा करके मुझ पर पानी छिड़केगा तो मेरा कोढ़ दूर हो जायगा-ऐसा भगवान ने मुझे स्वप्न में बताया है”।
मार्ग में जाने वाले कुछ लोग कहते “अरे नहीं, वह तो शराबी है, संत नहीं” । प्रत्युत्तर में वो कहता “अरे, नहीं वह उच्च कोटि का महात्मा है”। कुछ घडी बाद लोग उसे उन्ही संत के पास ले गये। संत ने जल छिड़का, उसका कोढ़ ठीक हो गया, कुछ ही पलों बाद वह वृद्ध से सुंदर युवक हो गया। सभी सत्संगी शर्मिन्दा होकर क्षमा मांगने लगे। अब सत्संग में खूब भीड़ होने लगी” ।
कलि फिर पधारे आश्रम में, उनसे कहा “देख लिया, मेरा प्रताप! इसलिए मुझसे मिल कर रहो” । संत ने तत्काल कहा “नहीं, हम तो प्रभु श्री राम से ही मिल कर रहेंगे, सत्संग जारी रहेगा ताकि लोग विषय-दास, धन-मन के दास न बनें, राम-दास बनें”।
कलि ने फिर धमकाया “संत महाराज आपकी भारी पड़ेगा देख लिया है न आपने मेरा प्रभाव”। “हां देख लिया, निंदा-स्तुति दोनों करवा ली, तूने भी देख लिया न रामराज्य का प्रभाव? मैं दोनों में सम रहा। मैं प्रत्येक परिस्थिति से अप्रभावित अर्थात सम एवं शांत रहता हूं, यह प्रभु की भव्य अनुकूलता का प्रताप है। नाम-भक्ति भगवान को भक्त के अनुकूल बना देता है और समता है परमोच्च अवस्था, जो राम कृपा से भक्त को उपलब्ध होती है”।
उपनिषद भगवान्नाम को सब सारों का सार घोषित करता है और नाम भगवान की उपासना को परमोपासना बताता है। वाचिक, उपांशु तथा मानसिक-ये तीनों प्रकार की उपासनाएं सर्वसुखकारी एवं कल्याणकारी हैं। यद्यपि चारों युगों में नाम का प्रभाव प्रत्यक्ष है, परंतु कलियुग में तो इसका विशेष महत्व कहा गया है।
अनादि काल से इसे सर्वोच्च स्थान दिया जा रहा हे। इस साधना को कल्पतरू अर्थात समस्त कामनाओं को पूर्ण करने वाली एवं सकल भव-व्याधियों को दूर करने वाली बताया गया हैं हिन्दू, मुस्लिम, सिख, ईसाई, एवं यहूदी सभी किसी न किसी रूप में नामोपासना का महत्व स्वीकार करते हैं। इसके मुख्य अंग हैं-नाम-स्मरण, ध्यान एवं कीर्तन।
नाम-स्मरण-
परमेश्वर के पतित-पावन नाम को वाणी अथवा मन से जपना सिमरन (सुमिरन) कहा गया है। नाम-उच्चारण करते-करते उसके गुणों का स्मरण, प्रीतिपूर्वक अथवा भाव सहित जप सिमरन कहलाता है। संत सिमरन की महिमा गाते हुए अघाते नहीं | परमात्मा को सर्वत्र-सर्वदा अपने अंग-संग अनुभव करने का, उससे मन ही मन वार्तालाप करते रहना, उनका मधुर स्मरण, योग कहा जाता है।
राम-नाम जपने का सबको समान अधिकार है, चाहे निपट निरक्षर है या साक्षर, निर्धन है या धनवान, उच्च जाति का है या निम्न का, महिला है या पुरूष, पवित्र है या अपवित्र, पापी है या पुण्यात्मा, मांसाहारी है या निरामिष एवं दुःखी है या सुखी। इसे जेल में, शौचालयों में, श्मशान भूमि में, खेत, अस्पताल अर्थात प्रत्येक स्थान में जपा जा सकता है, हर समय जपा जा सकता है।
नाम-भगवान नरेश हैं, लेकिन जापक के चैकीदार बन कर उसकी पवित्रता तथा उसके सदगुणों की रक्षा करते हैं, उसे दुर्गुणों से बचा कर रखते हैं। दुर्गुणरूपी नागों के लिये नाम की गूँज साक्षात् गरूड़ की हुंकार का कार्य करती है | पशु-पक्षी को भी नाम-पुकार से प्रभु का संरक्षण मिला है।
‘राम’ परब्रह्म परमात्मा का सर्वाधिक प्रिय मधुरतम नाम भी है तथा द्वि-अक्षर मंत्र भी है। इस शब्द के उच्चारण से नाम एवं मंत्र जप दोनों का फल मिलता है। ऐसा सुना गया है कि एक बार धर्मराज युधिष्ठिर ने भीष्म पितामह से पूछा “मंत्र-जप करने वाले को कौन सा लोक प्राप्त होता है”?
भीष्म जी एक कथा के माध्यम से उत्तर देते हैं “एक बार हिमालय के निकट एक तपस्वी ब्राह्मण ने अनेक वर्षों तक राम-नाम का जप किया। प्रभु प्रकट हुए और उन्होंने कहा ‘ब्रह्मर्षि! मैं तुमसे प्रसन्न हूं, वर मांगों’। ब्राह्मण ने कहा ‘हे प्रभो! अधिक मंत्र जप की इच्छा में निरन्तर वृद्धि हो तथा मन की एकाग्रता में बराबर उन्नति हो’। ‘तथास्तु। अब तुम प्रेमपूर्वक नाम जपो’।
ब्राह्मण ने वर्षो जप किया, मन, इन्द्रियों पर पूरा वशीकरण किया, काम, क्रोध, लोभ, मोह पर विजय प्राप्त की। वे दूसरों के दोष कभी नहीं देखते थे। अब धर्मराज पधारे, उनसे कहा ‘महाराज! मैं आपके दर्शन करने आया हूं। नाम मंत्र जप के फलस्वरूप आप देवलोक को लांघ कर जहां इच्छा हो, ऊपर के लोकों में प्रवेश पा सकते हैं’। ऐसी है राम-नाम एवं मंत्र आराधना की महिमा”।
नाम-भगवान ने किस निंदनीय को वंदनीय नहीं बना दिया, यह तो सामान्यजन कों भी राम कृपा का पुण्य पात्र बना देता है। एक बार की बात है, किसी राजा का एक दास (सेवक) राम-दास बनने के लिये हिमालय की घाटी में साधनारत हो गया। राम-नाम की दीक्षा देते समय गुरू जी ने उसे समझाया था “वत्स! राम-मंत्र चलते-फिरते, सैर करते, उठते-बैठते, खाते-पीते, खेलते-कूदते, नहाते-धोते, काम-काज करते, सोते-जागते, श्वास लेते-छोड़ते तथा यात्रा करते-हर समय जपा जा सकता है, हर जगह जपा जा सकत है।
भोजन बनाते, लकड़ी काटते भी राम-राम जपते रहना। ललक लग गयी, उसने अविराम नाम जपा। एकान्त था, समय का सदुपयोग किया। गप-शप, निंदा-चुगली, झूठ, छल-कपट-सब छूट गया। वह सेवक नाम-रंग में रंग गया। नाम-भगवान ने कृपा की, मन का पवित्रीकरण हुआ, आचरण-व्यवहार सुधरा, स्वभाव बदला। भूख-नींद बहुत कम हो गयी, राम-मिलन की तड़प जगी। चित्त शांत हुआ, परम-शान्ति एवं परमानन्द का अनुभव हुआ। चेहरे पर अदभुत तेज प्रकट हुआ। नाम की कृपा से वह संत बन गया।
संत ने एक बार भण्डारे का आयोजन किया। धनवानों ने तथा राजा ने आर्थिक सहायता की। बाद में उस संत ने सबको नाम की महिमा समझायी, भजन-कीर्तन हुआ। विदा लेते समय सबने संत को प्रणाम किया। राजा भी पहुंचे, कहा “महात्मन! कोई चमत्कार नहीं दिखाया। संत ने मुसकराकर विनयपूर्वक उत्तर दिया-राजन्! चमत्कार तो हो गया। मैं वही आपका सेवक, जो कुछ वर्ष पूर्व आपको ही नहीं आपके अधिकारियों को भी प्रणाम किया करता था, आज आप सहित सब मुझे दण्डवत प्रणाम कर रहे हैं। इससे बड़ा चमत्कार और क्या हो सकता है”? यह सुनकर सबको बड़ा आश्चर्य हुआ। कितनी सुगमता से नाम- भगवान रीझ कर अपनी महिमा को चमत्कारी ढंग से भक्त में प्रकट कर देते हैं।
नाम-ध्यान अर्थात ध्यानपूर्वक नाम-जप
जप चाहे वाचिक ही हो आत्मशक्ति को जगा देता है। यदि मानसिक हो अथवा श्वास के साथ जपा जाय तथा प्रभु के नाम की ध्वनि पर मन एकाग्र किया जाय तो शब्द ब्रह्म (अजपा-जप) एवं नाद ब्रह्म (अनाहत नाद) आप ही आप प्रकट हो जाते हैं। नाम-ध्यान मन की सारी मैल धोने, कुसंस्कारों को जलाने तथा आत्मस्वरूप को जान लेने का एक सहज एवं उत्कृष्ट साधन है। अनंत के मिलाप का यह परम उपाय है| जीवन के दिव्यीकरण का अर्थात श्री राम के सदगुणों को अपने भीतर खींचने का अति शक्तिशाली साधन है नाम-ध्यान।
नाम-संकीर्तन
काम-वासना (कामिनी), कंचन और कीर्ति मनुष्य को कुपुरूष बना देते हैं, इनकी चिकित्सा होती है चौथे ककार से अर्थात कीर्तन से। सभी प्रकार के कीर्तनों में नाम-कीर्तन सर्वाधिक महत्वपूर्ण है। नाम-संकीर्तन के विषय में कहा गया है-यह पापरूपी पर्वतों को चूर्ण-विचूर्ण करने में वज्र के समान है। सुख-दुःख, मान-अपमान आदि द्वन्द्वों के उभार को दूर करने वाली सिद्धौषधि है और अज्ञानरूपी रात्रि के प्रगाढ़ अंधकार को नष्ट करने के लिये सूर्य के उदय के समान है।
अतिशय सुंदर भक्तिभावपूर्ण स्तोत्रों, भजन-गीतों द्वारा तन्मय होकर प्रभु चरणों में अपने आपको समर्पित करना संकीर्तन का सदृश्य स्वरूप है। श्री राम ऐसे स्थान पर जहां उनके भक्त एकत्र होकर प्रभु का गुणगान करते हैं, स्वयं विराजमान रहते हैं। जिस कीर्तन में रोमांच हो जाय, प्रेमाश्रु बहने लगे तथा आवेश आ जाय, ऐसा कीर्तन सारे तन को, मन को, स्नायु को और सारे मज्जा जाल को प्रभावित कर देता है।
आत्मा को इससे सहज ही शांति प्राप्त हो जाती है। संतों ने सत्य ही कहा है कि नाम का आराधन अति सुगम है और भगवत्प्रेम प्राप्ति का सर्वोच्च उपाय है। जिस प्रकार ताली बजाने पर पेड़ पर बैठे पक्षी उड़ जाते हैं, उसी प्रकार संकीर्तन में ताली बजाने से पाप-पंछी उड़ जाते हैं। श्री रामगुण-गान की महिमा का वर्णन करते हुए श्री तुलसीदास जी कहते हैं कि श्री राम जी की अपेक्षा जिन्हे राम-नाम अधिक प्रिय है, उसका इस घोर कलियुग में कल्याण निश्चित है। किसी के पूछने पर गोस्वामी जी नामोपासना की विधि भी बताते हैं|
मन की तीन दशाएँ होती हैं। वह कभी शान्त होता है, कभी दुःखी और कभी सुखी होता है। श्री तुलसीदास जी सुझाते हैं-‘जब मन शान्त हो तो राम-राम ऐसे जपो कि ध्यानस्थ हो जाओ। यदि मन दुःखी हो तो राम-राम रटो-रट मेरी रसना, राम राम राम। बीमारी अथवा संकट में मन नहीं लगता तो भी राम-राम जपते रहे। जब मन आनन्दित हो तो राम-राम से खेलो।’
श्री तुलसीदास जी समझाते हैं जब हम वाद्य यंत्रों तथा संगीत के साथ संकीर्तन करते हैं, ताली बजती है, हाथ उठते हैं तथा नृत्य होता है, यही नाम- भगवान से खेलना है, रमना है। अतएव श्री तुलसीदास जी भी नामावतार की उपासना के उक्त वर्णित तीन ही अंग वर्णन करते हुए स्वीकारते हैं। स्वामी श्री सत्यानन्द जी दृढ़तापूर्वक एवं विश्वासपूर्वक इसी के लिए आश्वस्त करते हैं|
गुरूनानक भी ऐसी ही वाणी बोलते हैं| एक बार किसी सज्जन ने स्वामी श्री अखण्डानन्द जी से पूछा “महाराज! कोई ऐसा साधन बतायें जो सरल, संक्षिप्त, सामग्री विहीन सबको सुलभ हो और शीघ्र फलित होने वाला हो”। महाराज जी बोले-‘भगवन्नामोंपासना।’
दूसरे ने पूछा “विषय-वासना कैसे दूर हो”? महाराज जी ने कहा “रास नाम जब सुमिरन लागा। कहे कबीर विषय सब भागा।।” इतिहास साक्षी है-
अन्य अवतार तो किसी एक या कुछेेक के लिये, गिने-चुने प्रयोजन सिद्ध करने हेतु हुए, परंतु नाम अवतार तो सबके लिये, सर्व प्रयोजन सम्पूर्ण करने के लिये सर्वत्र सर्वदा प्राप्त ही है। ऐसे श्री नाम भगवान को बारम्बार प्रणाम है।