शुक्ल यजुर्वेद (7।42) – में प्रत्यक्ष देव भगवान भुवन भास्कर की महिमा के विषय में कहा गया है कि “जो तेजोमयी किरणों के पुंज हैं; मित्र, वरूण, अग्नि आदि देवताओं एवं समस्त जगत के प्राणियों के नेत्र हैं और स्थावर तथा जङ्गम-आदि सबके अन्तर्यामी आत्मा हैं, वे सूर्य, आकाश, पृथ्वी और अंतरिक्ष लोक को अपने प्रकाश से प्रकाशित करते हुए आश्चर्य जनक रूप से उदित हो रहे हैं।
भगवान सूर्य नारायण सम्पूर्ण विश्व में प्रत्यक्ष देवता हैं। सूर्य देव से ही इस सृष्टि के भूत – प्राणी उत्पन्न होते हैं और उन्हीं से प्राणि मात्र अपनी जीवन-प्रक्रिया को गतिशील रखते हैं।
ऋषियों की यज्ञ – प्रक्रिया के अनुशास्ता सूर्य देव ही हैं। सूर्य से यज्ञ, यज्ञ से मेघ, मेघों से वर्षा, वर्षा से अन्न – फल – जल तथा औषधि आदि उत्पन्न होते हैं। अन्न से अन्नमयकोश, बल – वीर्य एवं चेतना, आत्मा का आविर्भाव होता है।
बिना सूर्य के सृष्टि चक्र, वनस्पति, औषधि, पेड़ – पौधे, अन्न, फल, फूल आदि की कल्पना करना भी सम्भव नहीं है। माता अदिति के पुत्र आदित्य कहे गये हैं ‘अदितिपुत्रः आदित्यः।’ आदित्य से वायु, भूमि, जल, प्रकाश – ज्योति, दिशाएं, अंतरिक्ष, देव, वेद आदि उत्पन्न होते हैं।
भगवान भास्कर तमसाच्छन्न अंधकारमय भूमण्डल पर अमृतमय किरणों से प्रकाश करते हुए देदीप्यमान स्वर्णिम रथ पर आरूढ़ होकर चौदह भुवनों को देखने के लिये आते हैं। ऋषि लोग सूर्योदय, सूर्यास्त तथा मध्याह्न के समय त्रिकाल – संध्या द्वारा सूर्य देवताओं की सतत उपासना करते रहे हैं।
गायत्री मंत्र वस्तुतः सूर्य देव की ही आराधना है। सविता देवता की उपासना ही इसमें मुख्य है। सूर्यगायत्री मंत्र में भी सहस्र रश्मि प्रवाहक सूर्य देव से कल्याण की प्रार्थना की गयी है।
ऋषिगण दीर्घायुष्य – प्राप्ति, दृष्टि, श्रवण शक्ति, वाक – शक्ति और धन – धान्य की सम्पन्नता के लिये भी सूर्य देव से ही प्रार्थना करते हैं। पंचदेव उपासना में भी सूर्य देव की आराधना होती है। सूर्य नारायण की अमृतमय किरणें आरोग्यदायक, जीवाणु – कीटाणु – विषाणु आदि की नाशक होती हैं।
आज कल वैज्ञानिक भी सूर्य की किरणों से विटामिन – डी प्राप्त होना स्वीकारते हैं। आयुर्वेद में सूर्य स्नान या धूप स्नान, सूर्य किरण स्नान प्रशस्त है। सूर्य किरणों से रंग चिकित्सा भी की जाती है। भगवान सूर्य नारायण के एक ध्यान स्वरूप में बताया गया है कि सविता मण्डल के मध्य में स्थित रहने वाले भगवान सूर्य नारायण कमल आसन पर विराजमान हैं।
वे केयूर, मकराकृत कुण्डल, किरीट तथा हार धारण किये हैं। उनका शरीर स्वर्णिम कान्ति से सम्पन्न है और वे हाथों में शंख तथा चक्र धारण किये हुए हैं। मनुष्य मात्र को सूर्य नारायण देव की नित्य आराधना करनी चाहिये।
सूर्य देव को प्रातः जलार्घ्य या दुग्धार्घ्य लाल पुष्प, लाल चंदन एवं अक्षत से देना चाहिये। आदित्य हृदयस्तोत्र पाठ, रविवार का व्रत एवं संध्या उपासना सूर्य देवता को अत्यन्त प्रिय हैं। अर्घ्य प्रदान करने का एक मंत्र (हिंदी में) इस प्रकार है।
“हे सहस्र किरणों वाले, तेज की अनंत राशिरूप जगत के स्वामी हे सूर्यदेव् ! आप मेरे समक्ष आइये। हे दिवाकर! मुझ पर आप कृपा कीजिये और मेरे द्वारा भक्तिपूर्वक प्रदत्त इस अर्घ्य को स्वीकार कीजिये।”
सूर्य देव को भगवान ने अपना स्वरूप बताया है। अदिति पुत्र आदित्य सूर्य देव के नाम से नवग्रहों के अधिपति हैं। प्रकृति विज्ञान, खगोल विज्ञान, ज्योतिष विज्ञान में सूर्य प्रमुख ग्रह है।
ज्योतिष में सूर्य को आत्म कारक, आत्म बलदायक ग्रह माना गया है। द्वादश राशियों में प्रथम मेष राशि ही इनकी उच्च राशि तथा सिंह राशि स्वगृही होती है।
आज तक ज्योतिष विज्ञान में लग्न कुण्डली एवं चन्द्र कुण्डली की तरह सुदर्शन चक्र में सूर्य कुण्डली भी बनायी जाती है। माणिक इनका प्रिय रत्न है। उत्तरायण सूर्य का विशेष महत्व है। भीष्म आदि ने इच्छा मृत्यु के लिये इसे ही ध्यान में रखा। सूर्य ग्रहण एवं संक्रान्ति पर्व का धर्म शास्त्रीय व्रतोत्सव पर्वों में स्नान दान कर्म हेतु विशेष महत्व है। मकर संक्रान्ति तो मुख्य धार्मिक पर्व है।
भगवान सूर्य देव की एक प्रार्थना में कहा गया है “कि समस्त संसार को उत्पन्न करने वाले, सृष्टि, पालन, संहार करने वाले किंवा विश्व में सर्वाधिक देदीप्यमान एवं जगत को शुभ कर्मों में प्रवृत्त करने वाले हे परब्रह्म स्वरूप सविता देव! आप हमारे आधि भौतिक, आधि दैविक, आध्यात्मिक दुरितों को हम से बहुत दूर ले जायं, अर्थात हमसे दूर करें। और जो कल्याणप्रद है , श्रेय है, मंगलमय है उसे विश्व के समस्त प्राणियों के लिये चारों ओर से सम्यक् प्रकार से ले आयें।”