‘अवतार’ शब्द ‘अव’ उपसर्गपूर्वक ‘तृ’ धातु में ‘घ´’ प्रत्यय के संयोग से निष्पन्न हुआ है, जिसका शाब्दिक अर्थ है – अपनी स्थिति से नीचे उतरना। इसके विभिन्न अर्थ भी हैं , जैसे – उतार, उदय, प्रारम्भ, प्रकट होना इत्यादि।
जैसे कोई अध्यापक किसी छात्र को पढ़ाता है तो वह अध्यापक उस छात्र की स्थित में ही आकर पढ़ाता है, तो यह छात्र के प्रति शिक्षक का अवतार हुआ।
इसी प्रकार भगवान मनुष्यों को शिक्षा – दीक्षा, सत – असत एवं मोक्ष आदि के ज्ञान के लिये, उनकी रक्षा के लिये अवतार लेते हैं। उनका अवतार मानव अवतार से भिन्न होता है। वे केवल लीला करते हैं अर्थात मनुष्यों की तरह माँ के गर्भ में आते हैं।
गीता में भगवान श्री कृष्ण कहते हैं कि मैं अजन्मा और अविनाशी स्वरूप वाला होते हुए भी एवं समस्त प्राणियों का ईश्वर होते हुए भी अपनी प्रकृति को अधीन करके अपनी योगमाया से प्रकट होता हूँ।
आदि गुरू शंकराचार्य भी कहते हैं कि जब संसार को क्षुब्ध कर देने वाली धर्म की ग्लानि होती है, तो उस समय जो लोकेश्वर, संत प्रतिपालक, वेद वर्णित, शुद्ध एवं अजन्मा भगवान उनकी रक्षा के लिये शरीर धारण करते है; वे ही शरणागत वत्सल, निखिल भुवनेश्वर व्रजराज श्री कृष्ण चन्द्र मेरे नेत्रों के विषय हों।
नित्य उदीयमान भगवान भुवन भास्कर तो पोषणी शक्ति से सम्पृक्त होकर नित्य ही जीवन में प्राणों का संचार करते हैं और अंधकार से प्रकाश की ओर चलने की प्रेरणा देते हैं। भगवान सूर्य तो प्रत्यक्ष अवतार हैं। इसीलिये सन्ध्या उपासना में मूलरूप से भगवान सविता की ही उपासना होती है।
भगवान सूर्य को ब्रह्म का साकार रूप कहा गया है। ‘ऊँ असावादित्यो ब्रह्म।’ ( सूर्योपनिषद )। ये ही प्रत्यक्ष अवतार सविता देव स्थावर -जंगम सम्पूर्ण भूतों की आत्मा हैं। ‘सूर्य आत्मा जगतस्तस्थुषश्च।’ सृष्टि के आदि देव तथा आदि अवतार भगवान सूर्य ही हैं।
सूर्य से ही वृष्टि होती है, वृष्टि से अन्न उत्पन्न होता है और अन्न ही प्राणियों का जीवन आधार है। इस प्रकार नित्य अवतरित होने वाले भगवान सूर्य सारी सृष्टि का पालन करते हैं।
जब सृष्टि क्रम में जगत के समस्त प्राणी उस विराट पुरूष से उत्पन्न हुए, उसी क्रम में उनके नेत्रों से भगवान सूर्य का प्रादुर्भाव हुआ – यहाँ पर एक प्रश्न उठता है कि भगवान सूर्य का प्रादुर्भाव नेत्र से ही क्यों हुआ, किसी और अंग से क्यों नहीं हुआ?
कारण यह है कि वैशेषिक दर्शनानुसार तेज का लक्षण ‘ उष्णस्पर्शवत्तेजः ’ बतलाया गया है और यह दो प्रकार का होता है – नित्य एवं अनित्य। परमाणु रूप में तेज नित्य है और कार्य रूप से अनित्य। पुनः कार्य रूप से शरीर, इन्द्रिय और विषय के भेद से तीन प्रकार का है।
तैजस शरीर सूर्य लोक में है। रूप का प्रत्यक्ष ज्ञान कराने वाली चक्षु इन्द्रिय नेत्र के अंदर काली पुतली के अग्र भाग में रहती है। अर्थात उसमें तेज रहता है, इसलिये भगवान सूर्य का प्रादुर्भाव विराट पुरूष के नेत्रों से हुआ।
व्याकरण शास्त्र ने ‘आदित्य’ शब्द की व्युत्पत्ति इस प्रकार की है ‘अदितेः अपत्यं पुमान् – आदित्यः’। यह बारह आदित्यों ( सूर्य का भाग ) – का समुदाय वाचक नाम है। ये बारह आदित्य केवल प्रलय काल में एक साथ उदित होते हैं।
कलियुग का प्रलय इन्हीं बारह आदित्यों के उदय से होगा। सूर्य का प्रादुर्भाव विराट पुरूष के नेत्रों से होने के बाद लोक मर्यादा की रक्षा के लिये उन्होंने अदिति के गर्भ से जन्म लिया। ब्रह्म पुराण से उदधृत इनकी कथा संक्षिप्त रूप में दी जा रही है।
प्रजापति दक्ष की साठ कन्याएं हुईं जो श्रेष्ठ और सुंदरी दोनों थीं। उनके नाम अदिति, दिति, दनु और विनता आदि थे। उनमें से तेरह कन्याओं का विवाह दक्ष ने कश्यप जी के साथ किया था। अदिति ने कश्यप जी के तेज़ से तीनों लोकों के स्वामी देवताओं को जन्म दिया।
दिति से दैत्य और दनु से बलाभिमानी दानव उत्पन्न हुए। विनता आदि अन्य स्त्रियों ने भी स्थावर -जङ्गम आदि भूतों को जन्म दिया। कश्यप के पुत्रों में देवता प्रधान हैं, वे सात्त्विक हैं। इनके अतिरिक्त दैत्य आदि राजस और तामस हैं। देवताओं को यज्ञ का भागी बनाया गया, किंतु दैत्य और दानव उनसे शत्रुता रखते थे।
उन सबने मिल कर देवताओं को खूब सताया और उनके राज्यादि नष्ट कर दिये। तब अदिति भगवान सूर्य की आराधना करने लगीं। भगवान सूर्य ने उनकी तपस्या से प्रसन्न होकर दर्शन दिया और कहा “देवि! आपकी जो इच्छाएं हों, उनके अनुसार एक वर मांग लो”।
अदिति बोलीं “देव! अधिक बलवान दैत्यों ने मेरे पुत्रों के हाथ से त्रिलोकी का राज्य छीन लिया है। गोपते! उन्हीं के लिये आप मेरे ऊपर कृपा करें। अपने अंश से मेरे पुत्रों के भाई होकर आप उनके शत्रुओं का नाश करें। मेरे पुत्रों के भाई होकर आप उनके शत्रुओं का नाश करें”।
भगवान बोले “देवि! मैं अपने हजारवें अंश से तुम्हारे गर्भ का बालक होकर प्रकट होऊँगा और तुम्हारे पुत्रों के शत्रुओं का नाश करूँगा”। यह कह कर भगवान भास्कर अन्तर्हित हो गये और देवी अदिति भी अपना समस्त मनोरथ सिद्ध हो जाने के कारण तपस्या से निवृत्त हो गयीं।
वर्ष के अंत में भगवान सूर्य ने अदिति के गर्भ से जन्म लिया और अपनी दृष्टि मात्र से समस्त दैत्यों का नाश किया फिर तो देवताओं के हर्ष की सीमा न रही।
भगवान सूर्य भी अपने स्थान पर अधिष्ठित होकर जीवों का आप्यायन करने लगे। ग्रह और नक्षत्रों के अधिपति भगवान सूर्य अपने ताप और प्रकाश से तीनों लोकों को प्रकाशित करते रहते हैं। ये ज्योतिश चक्र के अधिपति हैं और ग्रहाधिपति के रूप में प्रतिष्ठित हैं।
अरूण इनका सारथि है। इनके रथ के आगे बालखिल्यादि साठ हजार ऋषि इनकी स्तुति करते रहते हैं। भगवान सूर्य का रथ प्रति मास भिन्न – भिन्न आदित्य, ऋषि, गंधर्व, अप्सरा, यक्ष आदि गणों से अधिष्ठित रहता है।
सूर्य भगवान के 12 नाम
धाता, अर्यमा, मित्र, वरूण, इन्द्र, विवस्वान, पूषा, पर्जन्य, अंश, भग, त्वष्टा तथा विष्णु – ये द्वादश आदित्यों के नाम हैं। यहां पर प्रत्येक का विवरण संक्षिप्त रूप में दिया जा रहा है।
1. चैत्र मास में सूर्य के रथ पर ‘धाता’ नामक आदित्य निवास करते हैं।
2. वैशाख मास में ‘अर्यमा’ नामक आदित्य सूर्य के रथ पर निवास करते हैं।
3. ज्येष्ठ मास में ‘मित्र’ नामक आदित्य सूर्य के रथ पर रहते हैं।
4. आषाढ़ मास में ‘वरूण’ नामक आदित्य भगवान भास्कर के रथ पर वास करते हैं।
5. श्रावण मास में ‘इन्द्र’ नामक आदित्य भगवान सूर्य के रथ पर वास करते हैं।
6. भाद्रपद मास में ‘विवस्वान्’ नामक आदित्य सूर्य के रथ पर निवास करते हैं।
7. अश्विनी मास में ‘पूषा’ नामक आदित्य सूर्य के रथ पर निवास करते हैं।
8. कार्तिक मास में ‘पर्जन्य’ नामक आदित्य सूर्य के रथ पर वास करते हैं।
9. मार्गशीर्ष मास में ‘अंश’ नामक आदित्य का सूर्य रथ में वास करते हैं।
10. पौष मास में ‘भग’ नामक आदित्य उनके रथ पर निवास करते हैं।
11. माघ मास में ‘त्वष्टा’ नामक आदित्य उनके रथ पर निवास करते हैं।
12. फाल्गुन मास में उनके रथ पर ‘विष्णु’ नामक आदित्य निवास करते हैं
और ये ही आदित्य अपने – अपने समय पर उपस्थित होकर वसन्त , ग्रीष्म , वर्षा तथा शरद आदि षड् ऋतुओं के कारण बनते हैं।