प्राचीन समय की बात है, दुर्गम नाम का एक महान दैत्य था जिसकी आकृति बहुत ही भयंकर थी। उसका जन्म हिरण्याक्ष के वंश में हुआ था तथा उसके पिता का नाम रूरू था।
ब्रह्मा जी के वरदान से दुर्गम महाबली हो गया था क्योंकि उसने अपनी तपस्या से ब्रह्मा जी को प्रसन्न कर उसने चारों वेदों को मांग अपने हाथ में कर लिया और भूमण्डल पर अनेक उत्पात मचाने शुरू कर दिये।
वेदों के अदृश्य हो जाने पर सारी धार्मिक क्रियाएं नष्ट हो गयीं, सभी यज्ञ – यागादि बंद हो गये तथा देवताओं को यज्ञ लाभ भी मिलना बंद हो गया। मंत्र शक्ति के अभाव में ब्राह्मण भी अपने पथ से च्युत हो गये।
नियम , धर्म , जप , तप , संध्या , पूजन तथा देव कार्य एवं पितृ कार्य – सभी कुछ लुप्त से हो गये। धर्म – मर्यादाएं खंडित हो गयीं। अब न कहीं दान होता था , न यज्ञ होता था। जिसका परिणाम यह हुआ कि पृथ्वी पर सौ वर्षों तक के लिये वर्षा बंद हो गयी और तीनों लोकों में हाहाकार मच गया।
सब लोग दुःखी रहने लगे साथ ही सबको भूख – प्यास का महान कष्ट सताने लगा। कुआं , बावली , सरोवर , सरिताएं और समुद्र भी जल से रहित हो गये। समस्त वृक्ष और लताएं भी सूख गयीं। समस्त प्राणी भूख व प्यास से बेचैन होकर मृत्यु को प्राप्त होने लगे।
देवताओं तथा भूमण्डल के सभी प्राणियों की ऐसी दशा देखकर दुर्गम बहुत खुश था , परंतु इतने पर भी उसे चैन नहीं हुआ अतः उसने अमरावती पर भी अपना अधिकार जमा लिया। देवता उसके भय से भाग खड़े हुए , पर जायं तो जायं कहां , सब ओर तो दुर्गम का ही उत्पात मचा हुआ था।
देवी शताक्षी कौन हैं
तब उन्हें शक्तिभूता सनातनी भगवती महेेश्वरी का स्मरण आया – ‘ क्षुधातृषार्ता जननीं स्मरन्ति। ’ सभी देवगण हिमालय पर्वत पर स्थित महेश्वरी योग माया की शरण में पहुंच गए। सभी ब्राह्मण भी जगत कल्याणार्थ देवी की उपासना तथा प्रार्थना करने के लिये उनकी शरण में आ गये।
देवता कहने लगे – ‘ हे महामाये! अपनी सारी प्रजा की रक्षा करो, रक्षा करो। माँ! जैसे आपने शुम्भ, निशुम्भ, धूम्राक्ष, चण्ड – मुण्ड, मधु – कैटभ तथा महिषासुर का वध कर संसार की रक्षा की है – देवताओं का कल्याण किया है, उसी प्रकार जगदम्बिके! इस दुर्गम नामक दुष्ट दैत्य से हम सबकी रक्षा करो।
माँ! घोर अकाल पड़ गया है इसीलिए हम आपकी शरण आए हैं। हे देवि! आप ही कोई लीला दिखायें, नही तो यह सारा ब्रह्माण्ड विनष्ट हो जायगा। हे महेशानि! आप शरणागतों की रक्षा करने वाली हैं, भक्त वत्सला हैं, समस्त जगत की माता हैं।
माँ! आप में अपार करूणा है, आपकी एक ही कृपा कटाक्ष से प्रलय हो जाता है, आपके सभी पुत्र असहनीय कष्ट पा रहे हैं; अतः हे मातेश्वरि! आज आप क्यों इतना विलम्ब कर रही हैं, हमें दर्शन दें।’
ऐसी ही प्रार्थना ब्राह्मणों ने भी की। अपने पुत्रों की यह हालत माँ से देखी न गयी। भला; पुत्र कष्ट में हो तो माँ को कैसे सहन हो सकता है, फिर देवी तो जगन्माता हैं, माताओं की भी माता हैं। उनके कारूण्य की क्या सीमा? अपने पुत्रों को कष्ट में देख करूणा से उनका हृदय भर आया।
वह तत्क्षण ही वहां प्रकट हो गयीं। उस समय त्रिलोकी की ऐसी व्याकुलता भरी स्थिति देखकर कृपामयी माँ की आंखों से आंसू छलक आये। भला दो आंखों से हृदय का दुःख कैसे प्रकट होता अतः माँ ने सैकड़ों नेत्र बना लिये। इसी वजह से उन्हें शताक्षी ( शत – अक्षी ) भी कहा जाता है।
नीली – नीली कमल – जैसी दिव्य आंखों में माँ की ममता आंसू बन कर उमड़ आयी। इसी रूप में माता ने सबको अपने दर्शन दियें। उनका मुखारविन्द अत्यन्त ही मनोरम था, वह अपने चारो हाथों में कमल – पुष्प तथा नाना प्रकार के फल लिये हुई थीं।
करूणार्द्र हृदया भगवती भुवेनश्वरी प्रजा का कष्ट देख कर लगातार नौ दिन और नौ रात रोती रहीं। उन्होंने अपने सैकड़ों नेत्रों से अश्रु जल की सहस्रों धाराएं प्रवाहित कीं।
देवी शाकम्भरी कौन हैं
देवी शताक्षी के सैकड़ों नेत्रों से जो अश्रु जल की सहस्रों धाराएं प्रवाहित हुईं, उनसे नौ दिनों तक त्रिलोकी में महान वृष्टि होती रही। इस अथाह जल से पृथ्वी की सारी जलन मिट गयी और सभी प्राणी तृप्त हो गये। सरिताओं और समुद्रों में अगाध जल भर गया।
पृथ्वी की सम्पूर्ण औषधियां भी तृप्त हो गयीं। उस समय भगवती ने अनेक प्रकार के शाक तथा स्वादिष्ट फल देवताओं तथा अन्य सभी को अपने हाथ से बांटे और खाने के लिये दिये और भांति – भांति के अन्न सामने उपस्थित कर दिये।
उन्होंने गोओं के लिये सुंदर हरी – हरी घास और दूसरे प्राणियों के लिये उनके योग्य भोजन दे दिया। अपने शरीर से उत्पन्न हुए शाकों ( भोज्य सामग्रियों ) द्वारा उस समय देवी ने समस्त लोकों का भरण – पोषण किया, इसलिये देवी का अवतरण ‘शाकम्भरी’ नाम से विख्यात हुआ।
देवी शाकम्भरी की कृपा से देवता, ब्राह्मण और मनुष्यों सहित सम्पूर्ण ब्रह्माण्ड संतुष्ट हो गया। सबकी भूख – प्यास मिट गयी, उन सभी को अपनी माता के दर्शन हो गये। संपूर्ण जीव लोक हर्ष से भर गया। उस समय देवी ने पूछा ‘देवताओं! अब तुम्हारा कौन – सा कार्य मैं सिद्ध करूँ।’
सभी देवता समवेत स्वर में बोले ‘देवि! आपने सब लोगों को संतुष्ट कर दिया है। अब कृपा करके दुर्गमासुर के द्वारा अपहृत वेद लाकर हमें दे दीजिये।’ देवी ने ‘तथास्तु’ करते हुए कहा ‘देवताओ! आप लोग अपने – अपने स्थान को जायं, मैं शीघ्र ही उस दुर्गम दैत्य का वध कर वेदों को ले आऊँगी।’
यह सुनकर देवता बड़े प्रसन्न हुए और वे देवी को प्रणाम कर अपने – अपने स्थानों को चले गये। हर तरफ से जय – जयकार की ध्वनि गूंजने लगी। तीनों लोकों में महान कोलाहल मच गया। इधर अपने दूतों से दुर्गम दैत्य ने सारी स्थिति को समझ लिया।
उसके विपक्षी देवता फिर सुखी हो गये हैं, यह देखकर उस दैत्य ने सेना लेकर न केवल स्वर्ग लोक को बल्कि पृथ्वी लोक तथा अंतरिक्ष लोक को भी घेर लिया। एक बार पुनः देवता संकट में पड़ गये। उन्होंने पुनः माता से रक्षा की गुहार लगायी। माँ तो सब देख ही रही थीं, वह बस इसी अवसर की प्रतीक्षा में थीं।
देवी दुर्गा कौन हैं
शीघ्र ही भगवती ने अपने दिव्य तेजो मण्डल से तीनों लोकों को व्याप्त कर एक घेरा बना डाला और देवता, मनुष्य आदि उस घेरे में सुरक्षित हो गये। स्वयं देवी घेरे से बाहर आकर दुर्गम के सामने खड़ी हो गयीं। दुर्गम भी अपनी सेना के साथ युद्ध के लिये तैयार खड़ा था।
क्षण भर में ही लड़ाई शुरू हो गयी। दोनों ओर से दिव्य बाणों की वर्षा होने लगी। इसी बीच देवी के श्री विग्रह से काली, तारा, छिन्नमस्ता, श्रीविद्या, भुवनेश्वरी, भैरवी, वगला, धूम्रा, त्रिपुर सुंदरी तथा मातङ्गी नाम वाली दस महा विद्याएं उत्पन्न हुईं, जो अस्त्र – शस्त्र लिये हुई थीं। तत्पश्चात दिव्य मूर्ति वाली असंख्य मातृकाएं उत्पन्न हुई।
उन सबने अपने मस्तक पर चंद्रमा का मुकुट धारण कर रखा था तथा वे सभी दिव्य आयुधों से सुसज्जित थीं। उन मातृ गणों के साथ दैत्यों का भयंकर युद्ध हुआ। मातृकाओं ने दुर्गम दैत्य की सेना को तहस – नहस कर दिया जो लगभग दस दिन तक चलता रहा। दैत्य सेना का विनाश देख कर ग्यारवें दिन स्वयं दुर्गम सामने आ डटा।
वह लाल रंग की माला और लाल वस्त्र धारण किये हुए था। एक विशाल रथ में बैठ कर वह महाबली दैत्य क्रोध के वशीभूत हो देवी पर बाणों की बौछार करने लगा। इधर देवी भी अपने रथ पर आरूढ़ हो गयीं। उन्होंने भी बाणों का कौशल दिखाना प्रारम्भ कर दिया।
युद्ध बहुत ही भयंकर हुआ, किंतु भगवती काल रात्रि के सामने दुर्गम भला कब तक टिका रहता ? देवी ने एक ही साथ पंद्रह बाण छोड़े। चार बाणों से दुर्गम के रथ के चारों घोड़े गिर पड़े। एक बाण ने उसके सारथी का प्राण ले लिया। दो बाणों ने दुर्गम के दोनों नेत्रों को तथा दो बाणों ने उसकी भुजाओं को बांध डाला। एक बाण ने रथ की ध्वजा को काट डाला। शेष पांच तीक्ष्ण बाण दुर्गम की छाती में जाकर घुस गये।
रूधिर वमन करता हुआ वह दैत्य परमेश्वरी के सामने ही अपने प्राणों से हाथ धो बैठा। उसके शरीर से एक दिव्य तेज निकला जो भगवती के शरीर में प्रविष्ट हो गया। इस तरह देवी के हाथों उसका उद्धार हो गया।
देवी भुवनेश्वरी ने दुर्गम दैत्य का वध किया था, इसलिये वह ‘ दुर्गा ’ के नाम से प्रसिद्ध हो गयीं। उन्होंने वेदों को पुनः देवताओं तथा ब्राह्मणों को समर्पित कर दिया। उस दैत्य के मर जाने पर त्रिलोकी का संकट दूर हो गया और सब ओर प्रसन्नता छा गयी।