महामुनि मेधा ने राजा सुरथ और समाधि वैश्य को महा सरस्वती का चरित्र इस प्रकार सुनाया। प्राचीन काल में शुम्भ और निशुम्भ नामक दो परम पराक्रमी दैत्य उत्पन्न हुए थे। तीनों लोकों में उनका भय व्याप्त हो गया था।
उनके अत्याचारों से प्रजा त्राहि – त्राहि कर रही थी। उन दोनों भाईयों ने इन्द्र के राज्य को तो हथिया ही लिया था, यज्ञ भाग का भी अपहरण कर लिया था। सूर्य, चन्द्र, कुबेर, यम और वरूण के अधिकार भी छीन लिये थे तथा देवताओं को अपमानित कर स्वर्ग से निकाल दिया था।
तब देवताओं ने माँ भगवती की शरण ली। हिमालय पर जाकर उन्होंने रूंधे कण्ठ से भगवती की स्तुति की। उनकी स्तुति से पार्वती देवी प्रसन्न हो गयीं और बोलीं “आप लोग किसकी स्तुति कर रहे है ?” इसी बीच उनके शरीर से सुंदर कुमारी प्रकट हो गयीं।
वे बोलीं “माँ! ये लोग मेरी ही प्रार्थना कर रहे हैं। ये शुम्भ और निशुम्भ दैत्यों से अतिशय प्रताड़ित और अपमानित हैं, अतः अपनी रक्षा चाह रहे हैं।” पार्वती के शरीर कोश से वे कुमारी निकली थीं, इसलिये उनका नाम कौशिकी पड़ गया। ये ही शुम्भ और निशुम्भ का नाश करने वाली महा सरस्वती हैं।
इन्हीं के अन्य नाम उग्रतारा और महेन्द्रतारा भी हैं। माता पार्वती के शरीर से उत्पन्न होने के कारण उनका नाम मातङ्गी भी है। उन्होंने समग्र देवताओं से प्यार भरे शब्दों में कहा “आप लोग निर्भय हो जाओ। मैं स्वतंत्र हूँ। अतः किसी का सहारा लिये बिना ही आप लोगों का कार्य कर दूंगी। आप लोग अब निश्चिन्त हो जाईये।”
इतना कह कर देवी अन्तर्धान हो गयीं। एक दिन शुम्भ और निशुम्भ के विश्वस्त सेवक चण्ड और मुण्ड ने कुमारी देवी को देखा। इतनी सुंदरता उन्होंने इसके पहले कभी नहीं देखी थी। वे मोहित और आनंद के कारण चेतनाहीन हो गये।
चेतना आने पर उन्होंने शुम्भ और निशुम्भ से कहा “महाराज! हम दोनों ने एक कुमारी को देखा है। वह सिंह पर सवारी करती है और अकेले रहती है। उसमें इतना अधिक सौन्दर्य है, जो आज तक कहीं नहीं देखा गया। वह तो नारी रत्न ही है।”
यह सुनकर शुम्भ ने सुग्रीव नामक असुर को दूत बनाकर देवी के पास भेजा। वह कुशल संदेशवाहक था। देवी के पास पहुंचकर उसने कहा “देवि! शुम्भासुर का नाम विश्व में विख्यात है। उन्हें कौन नहीं जानता ? सम्पूर्ण विश्व आज उनके चरणों में है।”
“उन्होंने जो संदेश भेजा है, उसे आप सुनाने का कष्ट करें।” देवी के ऐसा कहने पर उस दूत ने कहा, उनका सन्देश है कि “मैं जानता हूँ कि तुम नारियों में रत्न हो और मैं रत्नों की खोज में ही रहता हूँ। इसलिये तुम मुझे या मेरे भाई को अपना पति बना लो।”
देवी बोलीं “दूत! तुम्हारा कथन सत्य है, किंतु विवाह के संबंध में मेरी एक प्रतिज्ञा है। पहले उसे तुम सुन लो युद्ध में जो मुझे जीत ले, जो मेरे अभिमान को चूर कर दे, उसी को मैं अपन पति बनाऊँगी। तुम मेरी इस प्रतिज्ञा को उन्हें सुना दो। फिर इस विषय में वे जैसा उचित समझें, करें। अच्छा तो यह होगा कि वे स्वयं यहां पधारें और मुझे जीत कर मेरा पाणि ग्रहण कर लें।”
सुग्रीव ने कहा “देवि! मालूम पड़ता है, तुम्हारा गर्व तुम्हारी बुद्धि पर आरूढ़ हो गया है। भला, जिससे इन्द्र आदि सम्पूर्ण देवता हार गये; दानव, मानव, नाग हार गये; उससे तुम सुकुमारी अकेले कैसे लड़ सकोगी ? जरा बुद्धि पर बल देकर सोचो। मैं तुम्हारी हित की बात कह रहा हूँ। तुम मेरे साथ चली चलो। अपना अपमान मत कराओ।”
देवी ने कहा “दूत! तुमने अपनी समझ से मेरे हित की बात कही है; परंतु इस बात पर भी तो विचार करो कि प्रतिज्ञा कैसे तोड़ी जाय ? यद्यपि यह प्रतिज्ञा मैंने बिना सोचे – समझे की है, तथापि दूत! प्रतिज्ञा प्रतिज्ञा होती है। अतः तुम लौट जाओ और आदरपूर्वक मेरा संदेश उन्हें सुना दो।”
असुर सुग्रीव, देवी की वक्तृत्व – शक्ति से अत्यन्त विस्मय में पड़ गया अतः ‘छोटे मुँह बड़ी बात’ समझ कर उसे क्रोध हो आया और लौटकर उसने दैत्यराज से सब बातें कह सुनायीं।
दैत्यराज तो क्रोध का पुतला था ही अतः वह देवी का संदेश सुनकर ऐड़ी से चोटी तक क्रोध के मारे कांप उठा और सेनापति से बोला “धूम्रलोचन! तुम शीघ्र जाओ और उस दुष्ट कन्या के केश पकड़कर घसीटते हुए यहां ले आओ। वह संसार में रहकर मेरा गौरव नहीं जानती। उसका यही दण्ड है। मालूम पड़ता है, वह देवताओं पर भरोसा कर बैठी है, अतः उसको मार – पीटकर घसीट कर लाओ।”
धूम्रलोचन का वध
धूम्रलोचन साठ हजार सेना के साथ वहां पहुंचा और सुकुमार अंगों वाली उस कुमारी को देख कर उसके बचपने से चिढ़कर बोला “अरी! शुम्भ के पास प्रसन्न मन से चली चल, नहीं तो मैं तेरे केश पकड़ कर घसीट कर ले जाऊँगा, फिर आगे क्षमा न करूँगा।”
देवी बोलीं “सेनापति! तुम बलवान हो, तुम्हारे पास सेना भी है। यदि तुम बलपूर्वक ले जाओगे, तो मैं क्या कर सकती हूँ।” धूम्रलोचन आग – बबूला होकर झपटा, किंतु देवी के हुंकारते ही वह जलकर भस्म हो गया। देवी के सिंह ने उसकी सम्पूर्ण सेना का सफाया कर डाला।
चण्ड और मुण्ड का वध
यह समाचार पाकर दैत्यराज की क्रोधाग्नि भभक उठी और गुस्से से उसने चण्ड और मुण्ड को देवी को लाने के लिये भेजा। वहां पहुंचकर उन दैत्यों ने देवी को मुस्कुराते हुए पाया जिसके बाद उन सब ने देवी के ऊपर चारों ओर से आक्रमण कर दिया गया। यह देखकर भयंकर क्रोध के कारण भगवती का रंग काला हो गया और उनकी भृकुटी से महाकाली प्रकट हो गयीं।
वे चीते के चर्म की साड़ी और नरमुण्डों की माला पहने हुई थीं। उनका शरीर हडिडयों का ढांचामात्र था। इस तरह वे बहुत ही भयानक दीख रही थीं। उन्हें देख कर दैत्यों के रोंगटे खड़े हो गये।
देवी सभी दैत्यों पर टूट पड़ीं जिसके बाद दैत्य सेना में भगदड़ मच गयी। वे घोड़ा हाथी सहित योद्धाओं का संहार करने लगीं, सभी अस्त्र – शस्त्रों को चबाने लगीं तथा तलवार की एक चोट से सेना की पंक्तियों का सफाया करने लगीं। इस प्रकार क्षणभर में सारी सेना समाप्त हो गयी।
उसके बाद उन्होंने चण्ड को तलवार के एक ही आघात से काट गिराया। मुण्ड भी उनके रोष का शिकार हुआ। शेष सेना यह सब देख भय से भाग खड़ी हुई।
तत्पश्चात महाकाली चण्ड और मुण्ड के कटे मस्तक को हाथ में लेकर भगवती के पास आयीं और विकट अटटहास करती हुई बोलीं “चण्ड – मुण्ड को तो मैंने मार गिराया, अब शुम्भ – निशुम्भ का वध तुम करोगी।” भगवती ने कहा “तुमने चण्ड और मुण्ड का संहार किया है, अतः तुम्हारा नाम ‘ चामुण्डा ’ होगा। ’
चण्ड और मुण्ड के मारे जाने पर शुम्भ के क्रोध का ठिकाना न रहा। उसने उदायुध नामक राक्षस जाती के छिआसी सेनापतियों, कम्बु नाम वाले दैत्यों के चौरासी सेनापतियों, कोटिवीर्य कुल के पचास और धौम्र कुल के सौ सेनापतियों को अपनी – अपनी सैनिक – टुकड़ियों के साथ भेजा।
कालक, दौर्हृद, मौर्य और कालकेय भी भेजे गये। असंख्य सेनाओं द्वारा देवी चारों ओर से घेर ली गयीं । तब देवी ने माहेश्वरी, वैष्णवी, कार्तिकेयी, ऐन्द्री आदि शक्तियों को अपने – अपने विशेष अस्त्र – शस्त्रों के साथ प्रकट कर सेना के संहार में लगा दिया।
रक्तबीज का वध
थोड़ी ही देर में सेना का सफाया हो गया और शेष दैत्य प्राण बचाकर भाग खड़े हुए। तब अदभुत पराक्रमी रक्तबीज युद्ध के लिये आया, उसमें यह विशेषता थी कि उसके शरीर से रक्त की जितनी बूंदें गिरतीं, उतने ही नये रक्तबीज उत्पन्न हो जाते थे। वह अपने को अजेय समझता था, अतः बड़े गर्व के साथ आकर युद्ध करने लगा।
ऐन्द्री के वज्र प्रहार और वैष्णवी के चक्र प्रहार से उसके शरीर से बहुत अधिक मात्रा में रक्त पृथ्वी पर गिरा , जिस से सारा जगत रक्तबीजों से भर गया। वे सब के सब मातृगुणों से जूझ रहे थे। जितने मारे जाते थे, उससे कई गुने बढ़ रहे थे। यह दृश्य देखकर देवता लोग घबरा गये।
देवताओं को घबराया देखकर देवी ने काली से कहा “चामुण्डे! तुम गिरते हुए इनके रक्त कणें को चाटती जाओ और रक्तबीजों को उदरस्थ करती जाओ।” चामुण्डा ने थोड़ी ही देर में रक्तबीजों को समाप्त कर दिया।
अंत में देवी ने रक्तबीजों को मारा और चामुण्डा ने उसके सारे रक्त को पृथ्वी पर गिरने से पहले ही मुख में डाल लिया। काली के मुंह में भी बहुत से रक्तबीज उत्पन्न हुए; परंतु माँ सबको चबा गयीं। इस तरह उस दुष्ट की सारी क्रियायें व्यर्थ सिद्ध हुईं और वह मारा गया। इधर मातृगणों का उद्धत नृत्य होने लगा।
शुम्भ और निशुम्भ का वध
निशुम्भ यह दृश्य देखकर क्रोध से तिलमिला उठा। मातृगणों से युद्ध करते हुए उसने देवी को अपना लक्ष्य बनाया। शुभ ने भी निशुम्भ का साथ दिया और दोनों मिलकर देवी पर चढ़ आये। निशुम्भ ने तीक्ष्ण तलवार से देवी के वाहन सिंह के मस्तक पर प्रहार किया। देवी ने क्षुरप्र से उसकी तलवार और ढाल को काट दिया।
इसके बाद निशुम्भ ने शूल, गदा और शक्ति नामक हथियार चलाये; किंतु देवी ने सबको काट गिराया। अंत में निशुम्भ फरसा लेकर देवी की ओर दौड़ा जिसके बाद देवी ने बाणों से मारकर उसे धराशायी कर दिया।
भाई को गिरते देख शुम्भ क्रोध से विहृल हो गया। उसने अपने आठों हाथों में आठ दिव्यास्त्र लेकर देवी पर आक्रमण किया। देवी ने शंख और घंटा बजाया जिसके शब्दों ने दैत्यों के तेज को हर लिया। देवी के सिंह की दहाड़ भी दैत्यों को दहला रही थी।
उधर महाकाली ने आकाश में उछलकर पृथ्वी पर दोनों हाथों से चोट की जिससे इतना भयानक शब्द हुआ कि दैत्य थर्रा उठे। शिवदूती ने घोर अटटहास करके उस शब्द को और भी भयावना बना दिया।
शुम्भ इन कार्यकलापों से और क्षुब्ध हो उठा। उसने पूरी शक्ति लगाकर देवी पर शक्ति से प्रहार किया जिसको देवी ने उसे उल्का से शान्त कर दिया। पुनः देवी के चलाये बाणों को शुम्भ ने और शुम्भ के चलाये बाणों को देवी ने टुकड़े – टुकड़े कर दिये।
तदुपरान्त देवी ने एक प्रचण्ड शूल से शुम्भ पर आघात किया, जिससे वह मूर्छित होकर गिर पड़ा। इस बीच निशुम्भ होश में आ चुका था। उसने दस हजार हाथ उत्पन्न कर उनसे एक साथ दस हजार चक्र चलाये। उस समय देवी चक्रों से ढक सी गयीं।
क्षणमात्र में ही उन्होंने सभी चक्रों को बाणों से काट कर धूल में मिला दिया। इसी तरह उसकी गदाएं और तलवारें भी काट डाली गयीं जिसके बाद निशुम्भ ने शूल लेकर देवी पर धावा बोल दिया।
देवी ने झट अपने शूल से उसे बींध दिया और वह पछाड़ खाकर पृथ्वी पर गिर पड़ा। शीघ्र ही उसकी छाती से दूसरा महाकाय दैत्य ‘ खड़ी रह , खड़ी रह ’ कहते हुए निकला। देवी ठहाका मारकर हंस पड़ीं और तलवार के एक ही वार से उसके दो टुकड़े कर दिये।
निशुम्भ के मरने से शुम्भ को महान दुःख हुआ; क्योंकि वह उसका प्राण से भी बढ़ कर प्यारा भाई था। तत्पश्चात वह अत्यन्त कुपित होकर बोला “तू घमण्ड मत कर। तेरा अपना कोई बल नहीं है। तूने तो दूसरों का सहारा ले रखा है।”
जगदम्बा ने कहा “मैं तो एक ही हूँ। मुझसे भिन्न दूसरी कौन है ? ये जो और दिखायी दे रही हैं, वे मेरी ही भिन्न – भिन्न शक्तियाँ हैं। देखो, मैं अपनी शक्तियों को समेट रही हूँ।” इसके बाद सब शक्तियाँ भगवती में लीन हो गयीं। उस समय केवल देवी ही रही गयीं। तदनन्तर पुनः दोनों में युद्ध प्रारम्भ हो गया।
शुम्भ ने बहुत से अस्त्र – शस्त्र चलाये; किंतु उन्हें खेल – खेल में ही देवी ने नष्ट कर दिया। देवी के द्वारा छोड़े गये अस्त्रों को शुम्भ ने भी काट डाला और फिर उसने भी बाणों की झड़ी लगा दी। देवी ने उन्हें काटकर उसके धनुष को भी काट दिया। तब वह शक्ति लेकर दौड़ा।
भगवती ने उसकी शक्ति को भी नष्ट कर दिया। पुनः वह ढाल और तलवार लेकर दौड़ा। देवी ने बाणों से उन दोनों के टुकड़े – टुकड़े कर दिये और उसके घोड़े और रथ को भी ध्वस्त कर दिया। अब उसने मुगदर लेकर धावा किया। देवी ने झट मुगदर को काटकर चूर – चूर कर दिया।
तब शुम्भ ने झपट कर देवी की छाती में मुक्का मारा जिसके बदले में देवी ने भी उसे ऐसा थपेड़ा जमाया कि वह भूतल पर जा गिरा। थोड़ी देर बाद वह फिर झपटटा मारकर देवी को आकाश में उठा ले गया जहां दोनों निराधार आकाश में ही लड़ने लगे।
अंत में देवी ने शुम्भ को पकड़ कर चारों ओर घुमाकर बड़े वेग से पृथ्वी पर पटक दिया। वह पुनः उठकर देवी को मारने दौड़ा लेकिन तब देवी ने शूल से ऐसा वार कर दिया कि उसके आघात से उसके प्राण पखेरू उड़ गये। उसके मरते ही चारों और प्रसन्नता छा गयी। पहले जो उत्पातसूचक उल्कापात आदि हो रहे थे, वे सब शांत हो गये।
देवगण हर्षित होकर पुष्प वृष्टि करने लगे, गंधर्व बाजा बजाने लगे और अप्सराएँ नाचने लगीं। मेधा मुनि ने राजा सुरथ और समाधि वैश्य को शक्ति के अवतार के ये तीन चरित सुनाये तथा अंत में बतलाया कि वे देवी नित्य, अज, अमर और व्यापक हैं, फिर भी अवतार लेकर विश्व का त्राण करती रहती हैं तथा विश्व को मोहित भी करती हैं, किंतु पूजा करने पर धन, पुत्र, बुद्धि देती हैं और मोह को दूर करती हैं, तुम दोनों उन्हीं की शरण में जाओ।
तब दोनों ने मुनि को प्रणाम किया और वे तपस्या के लिये तत्पर हो गये। एक नदी के तट पर जाकर दोनों महानुभावों ने भगवती के दर्शनार्थ तपस्या प्रारम्भ कर दी, साथ ही मिटटी की मूर्ति बनाकर वे षोडशोपचार पूजा भी करने लगे।
वे पहले भोजन की मात्रा कम करते गये, फिर निराहार रहकर ही आराधना करने लगे। तीन वर्षों के बाद भगवती ने दर्शन दिया और उन्हें मुँह माँगा वरदान प्रदान किया। उसके प्रभाव से सुरथ ने अपना राज्य प्राप्त किया और मरणोपरान्त यही सावर्णि मनु हुए। वैश्य महोदय को ज्ञान प्राप्त हुआ, जिससे उनकी मुक्ति हो गयी।