कर्म काण्ड का अबाधित महत्त्व है। इससे अभ्युदय तो होता है, किंतु यह ब्रह्म का स्थान ग्रहण नहीं कर सकता। प्रकृति ब्रह्म की बहिरंग शक्ति हैं। वह जब स्वयं ब्रह्म के सम्मुख नहीं जा सकती, तब अपने उपासकों को ब्रह्म के सम्मुख कैसे पहुंचा सकती है ?
उन दिनों भृगु आदि ऋषि वेद के कर्म काण्ड – भाग से सर्वात्मना प्रभावित होकर ‘ब्रह्मवाद’ को भूल बैठे थे। शिव पुराण – कल्प में त्रिदेवों में भगवान शंकर परमात्मा के अवतार थे, उस पद पर कोई जीव न था।
महामाया सती के अवतार का क्या प्रयोजन था
वे सगुण ब्रह्म थे फिर भी उन निस्त्रैगुण्य मार्ग को सन्मार्ग ही समझ रहे थे। सती के अवतार का यह एक प्रयोजन था। दूसरा प्रयोजन था – प्रेम रूप सगुण ब्रह्म से प्रेम करना, जिसका सूत्रपात तो उन्होंने सती – अवतार में किया; किंतु इसकी पूर्णता पार्वती – अवतार में हुई।
इसकी पूर्ति के लिये उन्हें फिर आना था। विष्णु जी, ब्रह्मा जीऔर नारद आदि मुनिश्रेष्ठ इसकी भूमिका तैयार करने में तत्पर थे। वे हिमालय के पास पहुंचे जहाँ सभी देवता और ऋषि उनके साथ थे। अपने द्वार पर समस्त देवों और ऋषियों को आया देख हिमालय को महान हर्ष हुआ।
वे अपने भाग्य की सराहना करते हुए उन्हें साष्टांग प्रणाम कर गदगद वाणी से बोले “मैं तो आप लोगों का सेवक हूँ, आज्ञा प्रदान करें, कौन सी सेवा करूँ ?” देवों की ओर से ब्रह्मा जी ने कहा “महाभाग! महासती के सम्बन्ध में तुम तो जानते ही हो। वे आदि शक्ति की अवतार थीं।
वह अपने पिता से आहत होकर अपने धाम चली गयी हैं यदि वह शक्ति तुम्हारे घर पुत्री के रूप में प्रकट हो जायें, तो विश्व का कल्याण हो जाये।” यह सुन कर हिमालय का हर्ष अत्यधिक बढ़ गया। वे बोले “इससे बढ़ कर सौभाग्य वाली बात और क्या होगी मेरे लिए? एतदर्थ (इसके लिए) जो कुछ करना हो, उसे मैं प्राणपण से करूंगा।”
देवताओं ने उन्हें तपस्या की विधि बतला दी और ढांढस दिया कि “आप तो तप करोगे ही, हम लोग भी मिल कर भगवती से प्रार्थना करेंगे कि वे आपके यहां पुत्री के रूप में अवतार लें।” देवताओं ने अपने वचन को पूर्ण किया।
वे एकजुट होकर आदि शक्ति को पुकारने लगे। विष्णु जी की पुकार थी, ब्रह्मा जी की पुकार थी और नारद आदि संतों की पुकार थी, इसलिये शक्ति को प्रकट होना ही पड़ा। उनका श्री विग्रह करोड़ों सूर्यों के समान प्रकाशित हो रहा था।
उस प्रकाश में आह्लादकता थी और उनके रूप – लावण्य की कोई तुलना नहीं थी। वह एक अदभुत ममतामयी झांकी थी जिसे देख कर सब संतृप्त हो उठे। प्रणाम और स्तुति के बाद देवताओं ने कहा “माँ आपने सती का अवतार लेकर विश्व का कल्याण किया था।
अपनी प्रतिज्ञा के अनुसार दक्ष से अनादृत होकर आप अदृश्य हो गयीं। हम लोग पुनः आपके वियोग से व्यथित रहते हैं, दूसरे विश्व का कल्याण अवरूद्ध हो गया है। आप माँ हैं, बालकों पर कृपा करें।”
उन महामाया आह्लादिनी शक्ति ने कहा “मैं अपने बालकों के हितार्थ अवश्य अवतार लूंगी। मैं यह भी जानती हूँ कि जब से मैंने शरीर का त्याग किया है, तब से भगवान शंकर मेरी स्मृति में निमग्न रहते हैं। दिगम्बर तक बन गये हैं। हिमालय मेरे लिये तपस्या कर रहे हैं, मैं उन्हीं के यहां अवतार लूंगी अतः आप लोग निश्चिंत रहें।”
समय आने पर आदि शक्ति ने अपना वचन पूरा किया, वे मैना के गर्भ में आ गयीं। जब से वे गर्भ में आयीं, तब से मैना दिव्य तेज से घिरी रहने लगीं। सभी देवता मैना के यहाँ उपस्थित हुए। बड़े उत्साह के साथ उन्होंने शक्ति की स्तुति करके उन्हें प्रणाम किया। नवां महीना बीतने पर शक्ति का प्राकट्य हुआ।
उस समय उनका अपना ही स्वरूप था जिसका सभी देवताओं ने प्रत्यक्ष दर्शन किया। वे हर्षोत्फुल्ल होकर स्तुति करने लगे। माता मैना को भी प्रत्यक्ष दर्शन हुए। वे आनंद से विहृल हो उठीं। तत्पश्चात शक्ति ने शिशु का रूप धारण कर लिया। मैना ने जब शिशु को गोद में लिया, तब उससे प्रसृत किरणों से वे खिल उठीं।
जिस तरह शुक्ल पक्ष में चन्द्रमा की कला और उसकी चांदनी दिन प्रतिदिन बढ़ती जाती है, उसी तरह पार्वती बढ़ रही थीं और उनका सौन्दर्य भी स्फुट हो रहा था। पार्वती ने जब पढ़ना – लिखना प्रारम्भ किया, तब सभी विद्याएं उन्हें अपने – आप स्मरण हो आयीं।
एक दिन देवर्षि नारद हिमालय के घर आये जहाँ माँ पार्वती अपने पिता के पास ही बैठी थीं। नारद जी ने भविष्यवाणी की “यह कन्या अपने प्रेम से भगवान शिव के आधे अंग की स्वामिनी अर्थात अर्धांगिनी बन जायगी।” देवर्षि नारद के इस वचन ने हिमालय को बहुत कुछ निश्चिन्त कर दिया। उन्होंने दूसरा वर खोजना ही छोड़ दिया।
बालिका अब वयस्क हो चुकी थी। इसी बीच भगवान शंकर हिमालय के गंगोत्तरी तीर्थ में तपस्या करने लगे थे। सती से वियुक्त होने पर वे सब विषयों का परित्याग कर निरंतर ब्रह्मानंद में लीन हो लम्बी – लम्बी समाधि लगाये रहते। प्रथम गण चारों ओर बैठ कर पहरा देते थे। उनमे से भी कुछ समाधि लगाते और शेष पहरा देते।
हिमालय को जब पता लगा कि भगवान शंकर गंगोत्तरी में आये हैं, तब अवसर देख कर पुत्री के साथ बहुमूल्य पूजा की सामग्री लेकर वे वहां जा पहुंचे और विधि – विधान से उनकी पूजा करने लगे तथा पुत्री को आदेश दिया कि सखियों के साथ निरंतर भगवान की सेवा में उपस्थित रहें।
पार्वती फूल चुन कर कुश और जल लाकर, वेदी को अच्छी तरह धो – पोंछकर तत्परता से भगवान की सेवा करने लगीं। इधर तारकासुर से त्रस्त देवताओं को पता था कि उसका संहार भगवान शंकर के वीर्य से उत्पन्न पुत्र से ही सम्भव है।
कामदेव का जल कर भस्म होना
अतः वे पहले से ही इस प्रयत्न् में लगे हुए थे कि प्रभु शंकर का विवाह शीघ्र से शीघ्र हो जाय। पार्वती की सेवा करते देख कर उन्हें अपने प्रयत्न् की सफलता पर विश्वास हो गया। देवताओं ने कामदेव को समझााया कि तुम ऐसा उपाय करो कि शंकर के मन में पार्वती के प्रति प्रेम उत्पन्न हो जाय।
कामदेव इस कार्य में तत्परता से जुट गए। वह वसन्त के साथ भगवान के स्थान पर आ धमकेऔर देखते ही देखते अनवसर ही वसन्त पूरे वैभव के साथ वहां शोभित होने लगा।
इधर कामदेव ने पूरी शक्ति लगा कर अपनी माया फैला दी थी। कामदेव ने अवसर पाते ही भगवान शंकर पर अपने पंचकुसुम – बाण चला दिये जिससे भगवान के मन में पार्वती के प्रति आकर्षण होने लगा।
भगवान शंकर झट से समझ गये कि यहां कोई विघ्न करने वाला आ गया है अतः इधर – उधर दृष्टि दौड़ाने पर उन्हें कामदेव दीख पड़े जिसके कारणवश उनका वह अमोघ बाण मोघ हो गया। उसकी दुश्चेष्टा से भगवान को क्रोध आ गया और उनके तीसरे नेत्र से निकली लपट से कामदेव तुरंत जल कर वही भस्म हो गए।
काम पत्नी रति ये सब देख तुरंत मूर्छित हो गयीं और सभी देवता हाहाकार करने लगे। वे भगवान की स्तुति करते हुए बोले “कामदेव ने तारकासुर के वध के लिये और समस्त देवताओं के कष्ट मिटाने के लिये ही यह कार्य किया है, क्षुद्रबुद्धि से नहीं; अतः इसे क्षमा कर दें। रति भी संज्ञा शून्य हो रही है कृपया करके उसे सान्त्वना दें।”
भगवान शंकर का क्रोध यह सब जानने के बाद शान्त हो गया। भगवान शंकर रति को यह कह कर शम्बरासुर के नगर में भेज दियें कि वहां कामदेव ‘प्रद्युम्न’ बनकर उससे सदेह मिलेंगें । यह भयानक घटना माँ पार्वती के सामने घटी थी अतः वे हतप्रभ हो गयीं।
इस घटना के तुरंत बाद देखते ही देखते उनके प्रियतम शंकर अदृश्य हो गये जिसने माँ पार्वती का दुःख और भी बढ़ा दिया। प्रियतम के विरह से वे बहुत ही व्याकुल हो उठी थीं अतः वे विवश होकर रोती हुई घर लौट गयीं। उन्हें कहीं न तो सुख मिल रहा था, न शांति बस हृदय में हाहाकार उठ रहा था।
सबके समझाने पर भी वे समझ न पाती, शंकर जी की प्रत्येक चेष्टा उन्हें स्मरण हो आती और उनके हृदय को मथ देती। वे बार – बार मूर्छित हो जाया करतीं। इस विषम परिस्थिति में आशा की किरण बन कर देवर्षि नारद उनके निकट पधारे और समझाने लगे “तुमने शंकर जी की सेवा तो अवश्य की; किंतु इसमें त्रुटियों रह गयीं। तुम्हें गर्व न करना था। उसे नष्ट कर भगवान ने तुम पर दया ही दिखलायी है।
प्रेम में गर्व कैसा ? अब तुम वापस तपस्या करो। सब ठीक हो जायेगा। मैं उसका प्रकार बतला देता हूँ।” गंगोत्तरी के श्रृंगी तीर्थ में पार्वती ने घोर तपस्या प्रारम्भ कर दी। पहला वर्ष तो उन्होंने फलाहार पर बिताया, फिर वे केवल पत्ता चबा कर रहने लगीं। इसके बाद उन्होंने पत्ता खाना भी छोड़ दिया।
वे निरन्तर शिव का चिंतन करती रहतीं। इस प्रकार तीन हजार वर्ष बीत गये। पार्वती की तपस्या मुनियों के लिये भी दुष्कर थी। हिमालय और मैना अत्यन्त उद्विग्न हो गये। सभी पर्वत इकट्ठे हुए और पार्वती को तपस्या से विरत करने लगे। पार्वती ने बड़ी ही नम्रता से उन्हें लौटाया।
शिव पार्वती विवाह
वे अपनी तपस्या को उग्र से उग्रतर और उग्रतर से उग्रतम बनाती चली गयीं। फलतः तपस्या से सारा विश्व संतप्त हो उठा। सभी प्राणी बेचैन हो गये। तब विष्णु जी और ब्रह्मा जी अन्य देवों एवं ऋषियों के साथ भगवान शंकर के पास गए, किंतु वे समाधि में लीन रहे।
तब नन्दिकेश्वर की सहायता ली गयी। उन्होंने प्रभु से बहुत धीरे – धीरे विश्व को संताप से बचाने की प्रार्थना की जिसके बाद प्रभु की समाधि टूटी। भगवान ने देवों से पूछा “आप लोग कैसे आये हैं ?” देवों के बहुत अनुनय – विनय करने पर भगवान शंकर विवाह के लिये तैयार हुए।
इसके बाद परीक्षाओं का दौर चल पड़ा। सप्तर्षियों को पार्वती की परीक्षा के लिये भेजा गया। तत्पश्चात स्वयं भगवान शंकर ने जटिल ब्रह्मचारी बन कर उनकी कठोर परीक्षा ली। पार्वती की परीक्षा हो जाने के बाद उनके माता – पिता की परीक्षा वैष्णव ब्राह्मण के वेष में ली गयी।
पार्वती तो परीक्षा में उत्तीर्ण होती गयीं, किंतु माता और पिता पर उस परीक्षा ने गहरा असर डाला। विवाह में भयानक विघ्न उपस्थित हुआ था। सप्तर्षियों के प्रभाव से वह विघ्न टल गया।
मंगलवार आरम्भ हो गया। विश्वकर्मा ने दिव्य मण्डप और देवताओं को ठहराने के लिये दिव्य अदभुत भवनों का निर्माण किया। मंगल पत्रिका पाकर भगवान शंकर ने देवर्षि नारद का स्मरण किया। देवर्षि ने सभी देवताओं को आमंत्रित किया। समग्र ऐश्वर्य के साथ देवता आ उपस्थित हुए। ऋषि – मुनि , नाग , यक्ष , गंधर्व सभी सज धज कर आये।
शुभ मुहूर्त में मंगलाचार एव ग्रह पूजन के साथ बारात का प्रस्थान हुआ। विश्व का कल्याण करने वाले बाबा विश्वनाथ का वह विवाह धूमधाम से सम्पन्न हुआ। आज भी प्रत्येक हिन्दू प्रतिवर्ष इस विवाह के उपलक्ष्य में व्रत रहते हैं और उत्सव मनाते हैं।
शिव पार्वती के मिलन से कार्तिकेय का जन्म हुआ
बहुत दिनों के बाद शिव और शिवा का मिलन हुआ। पार्वती से छः मुख वाले कार्तिकेय जी का जन्म हुआ। कृत्तिका नाम की छः स्त्रियों के द्वारा पाले जाने से उनकी संतुष्टि के लिये उन्होंने छः मुख धारण किये और अपना नाम ‘कार्तिकेय’ ( कृत्तिका के पुत्र ) रखा। इन्होंने देवताओं द्वारा अवध्य तारकासुर का उद्धार किया।
माँ पार्वती के दूसरे पुत्र गणेश जी हैं। उबटन लगाने से जो मैल गिरा, उसे हाथ में लेकर पार्वती जी ने एक बालक की प्रतिमा बनायी। बालक बड़ा सुंदर बना था अतः देवी ने उसमें प्राण का संचार कर दिया। वही प्रथम पूजनीय ‘गणेश’ हुए। पराम्बा ने कार्तिकेय के द्वारा देवताओं के संकट दूर किये तथा गणाधीश के पद पर गणेश को नियुक्त कर दिया।
पार्वती के अवतार का मुख्य प्रयोजन अभी पूरा नहीं हुआ था। सती – जन्म में आत्मदान कर इन्होंने भगवान शंकर से ‘श्रीरामचरितमानस’ का निर्माण करा लिया था। ‘लोमश’ आदि विशिष्ट लोगों को परम्परा से वह प्राप्त भी हो चुका था।
अभी उसका व्यापक प्रचार न हो पाया था। अब उसे सबको सुलभ कराना शेष था; क्योंकि अवतारवाद का रहस्य, उनके दो जन्मों के अवतार और प्रश्नोत्तर द्वारा इसी ग्रंथ से स्पष्ट होता है।
ब्रह्म के विषय में पार्वती जी का संदेह
अतः सती जन्म वाला अज्ञता का अभिनय पार्वती ने भी प्रारम्भ कर दिया। वे अवसर पाकर बोलीं “नाथ! कल्प वृक्ष की छाया में जो भी रहता है, वह दरिद्र नहीं रह जाता। आप ज्ञान के कल्प वृक्ष हैं और मैं आपकी छाया में रहती हूँ। मैं ज्ञान की दरिद्रा हूँ।
गरीबी मुझे सता रही है। उसे दूर कर दीजिये। मैं पृथ्वी पर माथा टेक कर आपको प्रणाम और हाथ जोड़ कर विनती कर रही हूँ। पहले जन्म से ही मैं आर्त हूँ और उस भ्रम से आज भी आर्त हूँ। नाथ! मेरी इस आर्ति को दूर कीजिये। मैं आपकी दासी हूँ, मेरी अज्ञता पर क्रोध न कीजियेगा।”
“आपने बतलाया था कि दशरथ नन्दन श्री राम ‘ ब्रह्म ’ हैं। मैंने परीक्षा कर उन्हें ब्रह्म ही पाया; किंतु कुछ ऐसे प्रश्न हैं, जिनसे बुद्धि को संतोष नहीं होता। जैसे-
(क) ब्रह्म को अज ( अजन्मा ) कहा जाता है; किंतु दशरथ नन्दन श्री राम का तो पिता से जन्म हुआ था, फिर वे ‘अज’ कैसे हुए ?
(ख) ब्रह्म को ‘ज्ञानरूप’ कहा जाता है; किंतु दशरथ नन्दन श्री राम को यह भी ज्ञान नहीं था कि पेड़ – पौधे उनके प्रश्न का उत्तर दे सकेंगे या नहीं?
(ग) ब्रह्म का निराकार कहा जाता है, किंतु दशरथ नन्दन श्री राम हाड़ – मांस – चाम के बने हुए स्पष्ट दिखलायी देते थे।
(घ) ब्रह्म ‘अमर’ होता है, किंतु दशरथ नन्दन श्री राम तब पृथ्वी पर थे; किंतु आज तो नहीं हैं ?
(ड़) ब्रह्म ‘व्यापक’ माना जाता है; किंतु वे प्रायः एक जगह ही रहते थे; आँख से ओझल होते ही फिर न दिखलायी पड़े तो उन्हें व्यापक कैसे कहा जाय ? यदि व्यापक होते तो दशरथ जी को उनके वियोग में मरना नहीं चाहिये था ?
भगवती ने ‘अज्ञता’ का ऐसा सच्चा अभिनय किया कि लाख हाथ जोड़ने पर भी भगवान शंकर को इनकी अज्ञता पर तरस आ ही गया। उन्होंने मीठी फटकार सुना ही दी। इन्हीं प्रश्नों का उत्तर ‘श्रीरामचरितमानस’ है, जिन्हें बड़ी तपस्या से भगवती ने प्राप्त किया।