परम ज्ञानी श्री शुकदेव जी ने अवतार तत्व की मीमांसा करते हुए राजा परीक्षित से कहा – हे राजन! भगवान प्रकृति के विकास और विनाश , प्रमाण और प्रमेय आदि गुणों से रहित हैं। वे अप्राकृत अनंत गुणों के आश्रय हैं और उन्होंने अपनी लीला को जीव के कल्याण के लिये ही प्रकट किया है ।
वेदान्त दर्शन का उदघोष है ‘ लोकवत्तु लीलाकैवल्यम्।।’ (ब्र0सू0 2।1।33) इसका भाव यह है कि भगवान को जगत रचना आदि कर्मों से या मनुष्य आदि अवतार धारण करके भांति – भांति के लोक पावन चरित्र करने में कोई प्रयोजन नहीं है तथा इसमें कर्तापन का अभिमान भी नहीं है। अतः भगवान के कर्म लीला मात्र ही हैं।
जब भगवान अपने अंश से पृथ्वी पर अवतीर्ण होते हैं तो अवतार कहे जाते हैं। भगवान श्री कृष्ण का परिपूर्णतम प्राकट्य हुआ है , वे स्वयं भगवान हैं । भगवान के परिपूर्णतम अवतार के विषय में बताते हुए श्री गर्गाचार्य जी कहते हैं कि जिसके अपने तेज में अन्य सभी तेज विलीन हो जाते हैं , भगवान के उस अवतार को श्रेष्ठ विद्वान पुरूष ‘ परिपूर्णतम ’ अवतार बताते हैं।
महर्षि वेद व्यास एवं अन्य ऋषियों ने अंशांश , अंश , आवेश , कला , पूर्ण और परिपूर्णतम – ये छः प्रकार के अवतार बताये हैं। मरीचित आदि अंशांशावतार , ब्रह्मा आदि अंश अवतार , कपिल आदि कला अवतार , परशुराम आदि आवेश अवतार कहे गये हैं।
अर्थात् श्री नृसिंह , श्री राम , श्वेतद्वीपाधिपति हरि , वैकुण्ठ , यज्ञ और नर – नारायण ये पूर्ण अवतार हैं। भगवान श्री कृष्ण ही ‘ परिपूर्णतम ’ अवतार है। असंख्य ब्रह्माण्डों के अधिपति वे प्रभु गोलोक धाम में विराजते हैं।
जिन्होंने श्री राम , नृसिंह , वामन आदि विग्रहों में नित्य कला के रूप में विभिन्न अवतार लिये , परंतु जो भगवान श्री कृष्ण के रूप में स्वयं प्रकट हुए , उन आदि पुरूष गोविन्द का मैं भजन करता हूं। भगवान श्री हरि युग – युग में धर्म रक्षणार्थ वामन आदि के रूप में शरीर धारण किया करते हैं। भगवान श्री हरि ने त्रिविक्रम रूप में वामन अवतार लिया तथा द्वापर में श्री कृष्ण रूप में अवतरित हुए।
अर्थात प्रजा पालक परमेश्वर सभी के अंदर विचरते हैं। वे अजन्मा होकर भी अनेक रूपों में प्रकट हो जाते हैं। इनके मूल स्वरूप को ज्ञानीजन देखते हैं , जिस से सभी भुवन व्याप्त हैं। भगवान श्री कृष्ण गीता ( 4।6 ) – में अपने जन्म की विलक्षणता बतलाते हुए कहते हैं कि वे अजन्मा और अविनाशी हैं , फिर भी सभी जीवों के स्वामी हैं।
वे युग – युग में अपने आदि दिव्य रूप में प्रकट होते हैं। भगवान कहते हैं कि वे अपने ही शरीर में नहीं वास करते है। प्राकृत जगत में जीव का कोई स्थायी शरीर नहीं होता है। जीव हमेशा ही एक शरीर से दूसरे शरीर में देहान्तरण करता रहता है।
महाभारत में एक कथा है कि जब अर्जुन और भगदत्त का युद्ध हो रहा था तो भगदत्त के द्वारा चलाये गये वैष्णवास्त्र से अर्जुन की रक्षा भगवान श्री कृष्ण ने की थी। भगदत्त द्वारा छोड़ा गया वह अस्त्र सब का विनाश करने वाला था।
भगवान श्री कृष्ण ने अर्जुन को अपने पीछे ओट में छिपा के स्वयं ही अपनी छाती पर उस अस्त्र की चोट सह ली। भगवान श्री कृष्ण की छाती पर वह अस्त्र वैजयन्ती माला के रूप में परिणत हो गया। अर्जुन के मन में बड़ा ही क्लेश हुआ और यह पूछने पर कि आपने मुझे पीछे ओट में क्यों किया ? भगवान ने यह रहस्य अर्जुन से व्यक्त किया।
“सम्पूर्ण लोकों की रक्षा करने हेतु मैं चार रूप धारण करता हूं। अपने को यहां अनके रूपों में विभक्त कर देता हूं। मेरी एक मूर्ति इस पृथ्वी पर स्थित हो तपस्या करती है और दूसरी मूर्ति परमात्मा के रूप में शुभ – अशुभ कर्म करने वालों को साक्षी रूप से देखती है।
तीसरी मूर्ति से ( मैं स्वयं ) मनुष्य लोक का आश्रय लेकर नाना प्रकार के कर्म करता हूं तथा चौथी मूर्ति सहस्र युगों तक एकार्णव के जल में शयन करती है। सहस्र युग के उपरान्त मेरा यह चौथा रूप जब योग निद्रा से जागता है तो उस समय वर पाने के योग्य श्रेष्ठ भक्तों को उत्तम वर प्रदान करता है।
भगवान भगवद्धाम में स्थित रहते हैं जब वे भौतिक जगत में उतरते हैं , अवतार कहे जाते है। अवतार कई प्रकार के होते हैं। जैसे गुण अवतार , लीला अवतार , पुरूष अवतार , शक्त्यावेश अवतार , मन्वन्तर अवतार तथा युग अवतार आदि इन सबका ब्रह्माण्ड में अवतरण होता है परंतु भगवान श्री कृष्ण आदि भगवान हैं तथा सभी अवतारों के उदगम हैं।
श्री नरसिंहपुराण ( 53 । 34 – 36 ) – में ऐसा वर्णन मिलता है कि भगवान श्री कृष्ण ने सज्जनों की रक्षा और दुष्टों का संहार करने के लिये अपनी उन दो शक्तियां – गौर एवं कृष्ण को भेजा। उनमें से गौर शक्ति वसुदेव द्वारा देवकी के गर्भ से प्रकट हुई।
रोहिणी नन्दन ने ‘ राम ’ नाम धारण किया और देवकी नन्दन का नाम ‘ श्री कृष्ण ’ रखा गया। श्रीमद भागवत ( 10।।2।8 – 9 ) – के अनुसार भगवान श्री कृष्ण योग माया से कहते हैं – इस समय मेरा अंश , जिसे शेष कहते हैं , देवकी के उदर में गर्भ रूप में स्थित है , उसे वहां से हटाकर रोहिणी के उदर में रख दो। कल्याणी ! अब मैं अपने समस्त ज्ञान , बल आदि अंशों के साथ देवकी का पुत्र बनूंगा और तुम नन्द बाबा की पत्नी यशोदा के गर्भ से जन्म लेना।
भगवान श्री कृष्ण 16 कलाओं ( छः ऐश्वर्य , आठ सिद्धि , कृपा – दया तथा लीला ) – के साथ प्रकट हुए। सम्पूर्ण ऐश्वर्य , धर्म , यश , श्री , ज्ञान और वैराग्य – इन छः का नाम भग है। अणिमा , लघिमा , महिमा , प्र्राप्ति , प्राकाम्य , ईशित्व , वशित्व और कामावसायित्व – ये आठ सिद्धियां कहीं जाती हैं। भगवान श्री कृष्ण जहां कृपा निधान हैं , वहीं वे लीला पुरूषोत्तम हैं।
अर्थात् ऋषिगण , मनु , देवता , प्रजापति , मनु पुत्र तथा जितने भी महान शक्तिशाली हैं , वे सभी भगवान के अंश ही हैं। भगवान श्री कृष्ण तो स्वयं भगवान ही हैं अतः जब लोग अत्याचार से व्याकुल हो जाते हैं , तब युग – युग में प्रकट होकर भगवान उन सबकी रक्षा करते हैं।
श्री ब्रह्म संहिता ( 5।1 ) – का उद्घोष है – गोविन्द के नाम से विख्यात श्री कृष्ण ही परमेश्वर हैं। उनका विग्रह सच्चिदानन्द है तथा वे सभी कारणों के कारण हैं। महर्षि गर्गाचार्य ने श्री गर्ग संहिता में भगवान श्री कृष्ण को परिपूर्णतम अवतार बताया है , जो सम्पूर्ण विश्व की रक्षा करते हैं।
“हे गोविन्द! आप अंशांश , अंश , कला , आवेश तथा पूर्ण – समस्त अवतार समूहों से संयुक्त हैं। आप परिपूर्णतम परमेश्वर सम्पूर्ण विश्व की रक्षा करते हैं तथा वृन्दावन में सरस रास मण्डल को भी अलंकृत करते हैं।”
अवतरण का उपक्रम
दानव , दैत्य , असुर स्वभाव के मनुष्य और दुष्ट राजाओं के भारी मार से अत्यन्त पीड़ित होकर पृथ्वी गौ का रूप धारण करके अनाथ की भांति रोती – बिलखती हुई अपनी आन्तरिक व्यथा निवेदन करने के लिये ब्रह्मा जी की शरण में चली गयी। ब्रह्मा जी ने व्यथा सुनकर शिव जी को साथ लेकर वे भगवान विष्णु के वैकुण्ठ धाम में गये।
वहां जाकर ब्रह्मा जी ने भगवान विष्णु को प्रणाम करके सारा अभिप्राय निवेदन किया। तब भगवान लक्ष्मी पति श्री विष्णु ने कहा – हे ब्रह्मा जी! साक्षात भगवान श्री कृष्ण जो अगणित ब्रह्माण्डों के स्वामी , परमेश्वर , अखण्ड स्वरूप तथा देवातीत हैं, उनकी कृपा के बिना यह कार्य कदापि सिद्ध नहीं होगा।
अतः आप उन्हीं के अविनाशी एवं परम उज्जवल धाम में शीघ्र जायं। ब्रह्मा जी सभी देवताओं के साथ भगवान श्री कृष्ण की शरण में उपस्थित हुए। वहां उन्होंने देखा कि भगवान श्री हरि उठे और भगवान श्री कृष्ण के श्री विग्रह में लीन हो गये। भगवान नृसिंह भी पधारे और वे भी भगवान श्री कृष्ण के तेज में समा गये।
इसके उपरान्त श्वेत द्वीप के स्वामी पधारे, वे भी भगवान श्री कृष्ण के विग्रह में प्रविष्ट हो गये। भगवान श्री राम भी पधारे तथा वे भी श्री कृष्ण विग्रह में लीन हो गये। यज्ञ नारायण हरि भगवान नर – नारायण भी पधारे तथा वे भी श्री कृृष्ण विग्रह में लीन हो गये।
यह देखकर ब्रह्मा जी के साथ सभी देवगण आश्चर्यचकित हो गये। जो भगवान श्री कृष्ण पूर्ण पुरूष , पर से भी परे, यज्ञों के स्वामी , कारणों के भी परम कारण , परिपूर्णतम परमात्मा और साक्षात गोलोक धाम के अधिवासी हैं , उन परम पुरूष राधावर को हम सादर नमस्कार करते हैं।
योगेश्वर लोग कहते हैं कि आप परम तेजःपुंज हैं , शुद्ध अन्तःकरण वाले भक्तजन आपको लीला अवतार मानते हैं , परंतु हम लोगों ने आज आपके जिस स्वरूप को जाना है , वह अद्वैत एवं अद्वितीय है। अतः आप महत्तम तत्वों एवं महात्माओं के भी अधिपति हैं , आप पर ब्रह्म परमेश्वर को हमारा नमस्कार है।
देवगणों द्वारा की गई स्तुति पर भगवान ने अवतार धारण का वचन देकर उन्हें आश्वस्त किया।
परिपूर्णतम अवतार का प्रयोजन
जब भी अधर्म की प्रधानता तथा धर्म का लोप होने लगता है , भगवान स्वेच्छा से प्रकट होतेे हैं। भगवान भक्तों का उद्धार तथा दुष्टों का संहार करने के लिये अवतार ग्रहण करते हैं। जीवन्मुक्त अवस्था प्राप्त हो जाने पर भी जगत कल्याणार्थ कार्य करते रहते हैं। उन्हीं की प्रार्थना पर भगवान का अवतार होता है। ऐसे भगवद्विभूति सम्पन्न महापुरूषों के परोपकार गुण का वर्णन श्री शंकराचार्य जी ने विवेक चूड़ामणि ( 39 – 40 ) – में किया है –
शान्त स्वभाव के जीवन्मुक्त महात्मा वसन्त ऋतु के समान संसार का हित करते हैं। वे स्वयं भी संसार – सागर से तारते हैं। जैसे चन्द्रमा सूर्य की प्रभा से संतप्त पृथ्वी को शीतलता प्रदान करता है , वैसे ही दूसरे के दुःख को नाश करना इन महात्माओं का स्वभाव है। भगवान श्री कृष्ण भक्तों की चिन्ताओं को दूर करने के विशिष्ट प्रयोजन से अवतार ग्रहण करते हैं। भगवान श्री कृष्ण के परिपूर्णतम अवतार का प्रयोजन प्रेमी भक्तों को प्रसन्न करना है।