प्राचीन काल में राजस्थान के बाड़मेर जिले की उण्डू एवं काश्मीर रियासत में राजा अजमल राज्य करते थे। उनके भाई का नाम धनरूप था। एक बार की बात है कि धनरूप जी वैराग्य धारण कर घर से निकल पड़े। तीर्थाटन करते हुए अन्ततः वह मेवाड़ में मंडी मियाला गांव में पहुंचे और वहीं जीवित समाधि लेकर अन्तर्धान हो गये। इस घटना से ठाकुर अजमल बहुत दुःखी हुए।
अब वह अपना अधिकांश समय द्वारकाधीश भगवान श्री कृष्ण की भक्ति में व्यतीत करने लगे। ठाकुर अजमल निःसंतान थे जिसके कारणवश वह दुःखी रहा करते थे, साथ ही उन्हें यह भी कष्ट सताता था कि एक आतंकवादी राक्षस भैरव, पोकरण क्षेत्र में भयंकर उत्पात मचाया करता है।
उस राक्षस ने आस – पास के सारे गांव उजाड़ दिये थे। अतः एक तो पुत्र प्राप्ति हेतु तथा दूसरे राक्षस भैरव के नाश करने की कामना पूर्ती के लिए वह बराबर द्वारकाधीश के दरबार में जाया करते।
एक बार उनके क्षेत्र में अच्छी वर्षा हुई। किसान खेत जोतने घरों से निकल पड़े, पर अजमल जी को सम्मुख आते देखकर लौट पड़े क्योंकि वह निःसंतान थे। अजमल जी को जब इस बात का पता लगा तो उन्हें बड़ा ही दुःख हुआ। उन्होंने तुरंत रानी मैना देवी के साथ द्वारकाधीश की यात्रा करने का निश्चय किया। इसके पूर्व उन्होंने काशी ( वाराणसी ) पहुंच कर भगवान आशुतोष शिव का भक्ति भाव से पूजन किया।
भगवान शिव ने प्रकट होकर उन्हें द्वारकाधीश श्री कृष्ण के पास जाकर अपनी मनोकामना पूर्ण करने की प्रार्थना करने का आदेश दिया। भगवान शिव के आदेश अनुसार रानी मैना देवी तथा भक्तजनों सहित अजमल जी द्वारका पहुंचे। द्वारकाधीश के मंदिर में उन्होंने भगवान से साक्षात दर्शन की आर्त स्वर में पुकार की।
जब उन्हें दर्शन नहीं हुए तो उन्होंने रानी के हाथ के पूजा के थाल से चूरमे का लडडू लेकर द्वारकाधीश के विग्रह पर क्रोधपूर्वक मारा और कहा “मैंने ऐसे कौन से पाप किये, जिसकी सजा आप मुझे दे रहे हैं ? मेरी पुकार यदि नहीं सुनी गयी, तो मैं अपने प्राणों की यही आहूति दे दूंगा।”
यह देख कर मंदिर के पुजारी ने कहा “महाराज! यहां तो भगवान का विग्रह है। आपको उनके साक्षात दर्शन हेतु स्वर्णपुरी द्वारका के सागर में जाकर उनसे मिलने का प्रयत्न् करना चाहिये, वहां वह शेषनाग की शय्या पर लक्ष्मी सहित विराजते हैं।”
इसके बाद राजा अजमल सागर किनारे जाकर द्वारकाधीश के ध्यान में मग्न हो कर बैठ गये जिसके कुछ क्षणों बाद उन्हें आवाज सुनायी दी “आ जाओ!” जिसे सुन कर अजमल जी सागर में कूद पड़े। जल के भीतर उन्हें स्वर्णपुरी द्वारका दीख पड़ी जहाँ उन्हें श्री कृष्ण के साक्षात दर्शन हुए।
भक्त को देख कर श्री द्वारकाधीश ने उन्हें गले लगाया। अजमल जी ने उनके माथे पर बंधी पटटी के विषय में पूछा तो उन्होंने कहा “मृत्यु लोक में एक भक्त ने लडडू मार कर मेरा माथा फोड़ दिया, अतः यह पटटी बांधनी पड़ी।”
अजमल जी उनके चरणों में गिरकर क्षमा – याचना करने लगे। भगवान श्री कृष्ण ने उन्हें सात्वना देते हुए कहा “तुम्हारे यहां तक आने का क्या कारण है?” राजा कहने लगे “हे अन्तर्यामी! आप तो सब जानते हैं। एक तो मेरे संतान नहीं है तथा दूसरा यह कि मेरे क्षेत्र में एक असुर ने आतंक मचा रखा है , जिसे मारना मेरे वश में नहीं है अतः इन्हीं दो कारणों से मैं आपकी सेवा में आया हूं।”
एक कारण स्वार्थ का दूसरा कारण परमार्थ का। प्रभु बोले “राजन्! तुम्हारी दोनों कामनाएं पूरी होंगी।” इसके बाद प्रभु ने अपनी वैजयन्ती माला से एक पुष्प मोेती तोड़ कर अजमल जी को देते हुए कहा “लो, घर जाकर इसकी पूजा करना। इसे अपने होने वाले पुत्र के साथ रखना।”
साथ ही पीताम्बर और आमल डाबली (माला का श्याम पुष्प) भी दिया और बताया कि ‘इन्हें पूजा सामग्री के साथ रखना। पुष्प को पालने में झुलाना और पहले पुत्र का नाम वीरमदेव तथा दूसरे का नाम रामदेव रखना। जब घर में पूर्णिमा सदृश चांदनी हो तो समझना मैं आ गया हूं अर्थात मैं स्वयं तुम्हारे पुत्ररूप में जन्म लूंगा।’
‘उस समय तुम्हारे सम्पूर्ण गढ़ एवं गांव में तेज प्रकाश व्याप्त होगा। तुम्हारे घर के आंगन का पानी दूध के रूप में परिणत हो जायगा, सभी स्थानों पर शंख ध्वनि, घण्टा ध्वनि होने लगेगी। घर में कुमकुम के नन्हें पैरों के चिन्ह बन जायेगें।’
ऐसा वरदान देकर अजमल जी को द्वारकाधीश ने विदा किया और चलते समय पूजा में रखने के लिये एक शंख भी दिया। तदुपरान्त अजमल जी को सभी लोगों ने समुद्र जल से ऊपर आते देखा। रानी मैना देवी को अजमल जी ने सारा वृत्तान्त बताया।
भगवान की महिमा को जानना बड़ा कठिन है। सब लोगों ने अजमल जी के माथे पर तिलक देखा तो उनके वचन पर सभी को विश्वास हो गया। अपने राज्य में पहुंचने पर सभी जनों ने राजा – रानी का स्वागत किया। भक्तजनों को गढ़ में ले जाकर राजा ने यज्ञादि कराया , पूर्णाहुतियां दीं। ब्राह्मणों को भोजन कराकर दक्षिणा देकर संतुष्ट किया तथा दीन – दुःखियों को भी धन – सम्पत्ति देकर प्रसन्न किया।
भगवान के वचनानुसार रानी मैना देवी ने माघ माह में शुक्ल पंचमी संवत 1406 में एक पुत्र को जन्म दिया, जिसका नाम वीरमदेव हुआ। अजमल जी एवं रानी अपने पुत्र की बाल – लीलाओं को देख प्रसन्न रहने लगे।
तदुपरान्त भगवान श्री कृष्ण ने भादो सुदी पंचमी संवत 1409 में मैना देवी की कोख से जन्म लिया। उनके वचनानुसार उण्डू – काश्मीर गांव के सभी मंदिरों की घंटियां बज उठीं, शंख ध्वनि होने लगी।
तेज प्रकाश से सारा गांव चमकने लगा और आँगन में रखा सारा जल दूध में परिवर्तित हो गया। महल के मुख्य द्वार से रानी के पलंग तक कुमकुम के पद चिन्ह बन गये। राजा एवं प्रजा ने इस अवसर पर द्वारकाधीश की जय – जयकार की।
दुखियों और ब्राह्मणों को राजा अजमल जी ने यथोचित दान दिया। इस प्रकार अजमल जी के घर साक्षात श्री कृष्ण ने अवतार लिया। उनका नाम ‘रामदेव’ रखा गया। यही ‘रामदेव’ अपनी अलौकिक लीलाओं द्वारा सारे राजस्थान एवं गुजरात प्रदेश में श्री कृष्ण के कलियुगी अवतार कहलाते हैं।
उनकी अनेक चमत्कारपूर्ण अलौकिक लीलाओं से उन्हें द्वारकाधीश श्री कृष्ण का ही अवतार माना जाता है। लोक कल्याण करते हुए उन्होंने भाद्र शुक्ल नवमी संवत 1442 के दिन समाधि ले ली।
सारा ढूंढार – प्रदेश रामदेव जी को भगवान के रूप में पूज्य मानता है। उन्होंने आसुरी शक्तियों का नाश कर, लोगों में हिन्दू धर्म के प्रति सच्ची आस्था जगाने का अनोखा कार्य किया; जब कि उस समय भारत देश बर्बर आतताइयों के अधिकार में था।
श्री रामदेव जी सच्चे अर्थों में संत थे। उन्होंने समाज में व्याप्त कुरीतियों को मिटाकर सच्चे ज्ञान का प्रकाश किया। वह जाति – पाति , ऊँच – नीच में विश्वास नहीं रखते थे। हिन्दू और मुसलमान दोनों ही उनके भक्त थे। उन्होंने भगवद भक्ति और सत्संग पर विशेष जोर दिया।
भगवान शिव के जैसे ग्यारह रूद्रावतार हैं, भगवान विष्णु के दस अवतार अथवा चौबीस अवतार हैं, उसी प्रकार श्री रामदेव जी की भगवान विष्णु के अवतार के रूप में प्रसिद्धि है। लोग अपनी मन्नतें मांगने पोकरण के पास रामदेवरा में आते हैं। उनकी अदभुत एवं अलौकिक लीलाओं के गीत राजस्थान में भोपाओं द्वारा रतजगा के रूप में अभी भी गाये जाते हैं।