शास्त्रों में धर्म , अर्थ , काम तथा मोक्ष – इन चार पुरूषार्थ का सम्यक रूप से वर्णन हुआ है, परंतु भगवद्विमुख मानव – जीवन में भगवान के प्रति प्रेम का उदय एवं संवर्द्धन हो कैसे – ऐसे दिव्य सर्वसाधन – सार ‘प्रेम’ नाम के ‘पंचम पुरूषार्थ’ का चैतन्य महाप्रभु जी ने स्वयं जीवन में आचरण कर ऐसा प्रकाश किया है, जिनका भक्तजन गान करते हैं।
भाव यह है कि जिनके चरण कमलों की भक्ति से ‘प्रेम’ नामक परम पुरूषार्थ प्राप्त होता है, उस जगत के लिये मंगलों के भी मंगल चैतन्य चन्द्र को बार-बार नमस्कार है।
प्रेम किसे कहते हैं
सर्वप्रथम संक्षेप में प्रेम किसे कहते हैं ? प्रेमावतार किसे कहते हैं, इसे जान लेने की आवश्यकता है। देवर्षि नारद प्रेम के, प्रीति के तथा भक्ति के आचार्य हैं। आपने लोक पर अनुग्रह करते हुए भक्ति संबंधी चौरासी सूत्रों का प्रणयन किया है, जिन्हें ‘नारद भक्तिसूत्र’ के नाम से भी जाना जाता है।
प्रेम तत्व को परिभाषित करते हुए श्री नारद जी प्रेम के स्वरूप के प्रकार बताते हैं – अर्थात प्रेम, प्रेम के अनुभव, प्रेम के भाव तथा आंतरिक लीलाएं अनिर्वचनीय हैं। उन्हें कोई केवल अनुभव ही कर सकता है; क्योंकि प्रेम के विषय को अनुभव करने में स्थूल इन्द्रियां अक्षम हैं।
प्रेमानंद तो हृदय का विषय है परन्तु हृदय में इन्द्रियां नहीं होतीं कि वह उस प्रेमानंद को बाहर तक व्यक्त कर सके। अनायास हृदय में उठने वाले प्रेम के भावों को वाणी से व्यक्त नहीं किया जा सकता है।
अतः वे कहते हैं – जिस प्रकार कोई गूंगा व्यक्ति तरह – तरह के व्यंजनों का आस्वादन करता है, परंतु स्वाद का वर्णन नहीं कर पाता, उसी प्रकार प्रेमी भी प्रेम में ऐसा डूबा, रंगा, और खोया रहता है कि उसका समग्र ज्ञान, सारी चेतना लुप्तप्राय रहती है।
जो कुछ चेतनाशेष रहती है, उससे वह उस प्रेमानुभव को व्यक्त करने में असमर्थ रहता है। इसलिये कहा गया है कि किसी योग्य पात्र में कभी – कभी कुछ छटा प्रकाशित होती है।
उस आंतरिक स्थिति का पूर्णतया शब्दों में निरूपण तो नहीं हो सकता, किंतु बाह्य लक्षणों से अनुमान लगाया जा सकता है। नारद जी ने कदाचित शब्दों का प्रयोग कर व्यक्त किया है कि ऐसे भक्त विरले होते हैं।
नारद जी के अनुसार प्रेम क्या है
प्रेमतत्व के रहस्य को बताते हुए श्री नारद जी कहते हैं कि ‘प्रेम जगत के सत्व, रज, तम – तीनों गुणों से अतीत होता है। प्रेम में माया के तीनों गुणों का सर्वथा अभाव रहता है। वह प्रेम तत्व प्रेमी के लिये सर्वथा एकतान रहता है। प्रेमी सदा प्रेमास्पद को ही देखा करता है।
उसे अंतः और बाह्य जगत में अपने प्रेमी से भिन्न कुछ दिखायी नहीं देता। कामनाओं का संबंध जगदासक्ति से है। राग – द्वेष होने से मनुष्य किसी वस्तु, व्यक्ति, व्यवस्था को प्राप्त करना चाहता है या अपने से हटाना चाहता है, परंतु प्रेम तत्व के उपासक के मन में गुणों का प्रभाव ही नहीं रहता। इसलिये वह कभी किसी से प्रभावित नहीं होता।
कामना के रहते ही काम्य की प्राप्ति पर प्रसन्नता और अप्राप्ति पर अप्रसन्नता रहती है। प्रेम तत्व के लिये अलौकिक क्रियाशीलता में कभी ऊबन या थकावट देखने में नहीं आती है। वह क्रियाशीलता कभी क्षीण नहीं होती, सदैव नवयौवना बनी रहती है तथा वह प्रेमी को नवानन्द प्रदान करती है।
धीरे – धीरे क्रियाओं में सूक्ष्मता आती रहती है, किंतु यह सूक्ष्मता स्थूल स्तर से ऊपर उठता रहता है, क्रिया अधिकाधिक सूक्ष्म, किंतु अधिकाधिक आनंददायिनी होती जाती है। उसमें कभी व्यवधान नहीं होता।
व्यवहार के समय भी खाते – पीते, बैठते, बोलते, चलते, परम प्रेमरूपा आहृादिनी क्रियाशीलता बनी रहती है। शुभारम्भ समय अथवा स्थान हो, उसमें अजस्र आंनद प्रवाहित होता रहता है, वह अजस्र आनंद सूक्ष्म से सूक्ष्मतर तथा सूक्ष्मतर से सूक्ष्मतम स्तरों पर रमण करता रहता है।
उसकी अलौकिक क्रिया को स्थूल इन्द्रियां अनुभव नहीं कर पातीं। यदि कभी उसकी ऐसी क्रियाशीलता स्थूल इन्द्रियों को आधार बनाकर प्रकट होती भी है तो उसका आस्वादन प्रेमी भक्त का अन्तर्हृदय ही उठा पाने मे समर्थ होता है –
गोपी प्रेम परम प्रेमरूपा भक्ति का सर्वोत्कृष्ट उदाहरण है, इसीलिए गोपियों का स्मरण कर नारद जी ने अपने आपको धन्य कर लिया। नारद जी जैसे परम प्रेममर्मज्ञ यदि गोपियों को परम प्रेम के आदर्श के रूप में प्रस्तुत करते हैं तो इसमें अवश्य ही कुछ महत्वपूर्ण बात होगी।
सभी गोपियां कृष्ण की दिवानी थीं, वे अपने कानों से कृष्ण की बात सुनतीं, आंखों से उनके रूप – माधुर्य का पान करती थीं। वे जगद्विषयों से पूर्ण वैराग्यवती थीं ‘त्यक्त्वा च सर्वविषयांस्तव पादमूलम्’ अर्थात सब कुछ त्याग कर वे श्री कृष्ण शरणापन्न थीं। गोपियों में अग्रणी श्री राधाजू तो श्री कृष्णाकर्षिणी आहृादिनी आत्मस्वरूपा ही थीं।
चैतन्य महाप्रभु जी कौन थे
तप्तकांचनगौरांग राधा कान्ति कलेवर श्री चैतन्य महाप्रभु राधा भाव से भावित रहकर नित्य – निरंतर कृष्णरस का पान करते थे। जगज्जीवों के उद्धार हेतु प्रेम तत्व का वितरण करने के लिये ही शक संवत 1407 की फाल्गुनी पूर्णिमा के दिन नवद्वीप (नदिया नगर , प0 बंगाल) में महाप्रभु चैतन्य देव का, श्री जगन्नाथ मिश्र के पुत्र रूप में माता शची के गर्भ से प्राकट्य हुआ।
संयोगवश उसी रात्रि पूर्ण चन्द्रग्रहण होने से सभी भावुक भक्त ‘हरि बोल, हरि बोल’ भगवन्नाम का उच्चारण सहज ही कर रहे थे, तभी कलिदोषाच्छन्न काल में नाम-संकीर्तन, प्रवर्तनार्थ प्रेमावतार कलि पावन अवतार, श्री चैतन्य महाप्रभु जी का भक्त वेश में इस धराधाम पर अवतार हुआ।
माता वसुन्धरा कृतार्थ हुई और नीम के पेड़ के तले जन्म होने से माता वसुन्धरा उन्हें निमाई कहती थी। चन्द्रग्रहणवश चन्द्रमा काला पड़ गया था। ये पांचभौतिक विग्रह में तप्तकांचनगौरांग थे, अतः गौरचन्द्र कहे गये।
‘अन्तः कृष्णः बहिर्गौरः’ होने से गौरांग कहे गये। षडैश्वर्य-सम्पन्नता के प्रतीकार्थ में माता-पिता ने विश्वम्भर नाम दिया। पश्चात विष्णुप्रिया प्राणधन , नदिया बिहारी, श्री कृष्ण – चैतन्य, भक्त वत्सल, प्रेमावतार, कलिपावनावतार, प्रेमपुरूषोत्तम, रसावतार आदि नामों से इन्हें जाना गया।
श्री कृष्ण द्वैपायन महर्षि वेद व्यास ने श्रीमद भगवत महापुराण के पूर्णता प्रतिपादनार्थ द्वापर के अंत में कलियुग के प्रारम्भ में (युगसन्धि दिवस में) समग्र भावोन्मेष के साथ वंदना करते हुए समाधि भाषा में सूत्र रूप में युग धर्म इस प्रकार संकेतित किया है कि जिन भगवान के नामों का संकीर्तन सारे पापों को सर्वथा नष्ट कर देता है और जिन भगवान के चरणों में आत्मसमर्पण, उनके चरणों में प्रणति सर्वदा के लिये सब प्रकार के दुःखों को शांत कर देती है, उन्हीं परमतत्व स्वरूप श्री हरि को मैं नमस्कार करता हूं।
इससे पूर्व भी वेद व्यास जी ने कहा कि कलियुग में भगवान प्रकट नहीं, अपितु वेष बदल कर प्रच्छन्न अवतार लेते हैं। उन्होंने कहा है “हे पुरूषोत्तम! इस प्रकार आप मनुष्य, पशु – पक्षी, ऋषि, देवता और मत्स्य आदि अवतार लेकर लोकों का पालन तथा विश्व के द्रोहियों का संहार करते हैं।
इन अवतारों के द्वारा आप प्रत्येक युग में उसके (उस युग के) धर्मों की रक्षा करते हैं। कलियुग में आप छिपकर गुप्त रूप से ही रहते हैं, इसलिये आपका एक नाम ‘ त्रियुग ’ भी है।
द्वापर में लीला पुरूषोत्तम श्री कृष्ण का अवतार हुआ था अर्थात् यह जो सांवला – सांवला है, यह प्रत्येक युग में शरीर ग्रहण करता है। पिछले युगों में इसने क्रमशः श्वेत , रक्त और पीत – ये तीन विभिन्न रंग स्वीकार किये थे।
अबकी यह कृष्ण वर्ण हुआ है, इसलिये इसका नाम ‘कृष्ण’ होगा”। आगे चतुर्युग – धर्मनिरूपण में युगावतार के स्वरूप लक्षण एवं आयुध के निरूपण में व्यास जी कहते हैं “हे राजन! द्वापर युग में इस प्रकार लोग जगदीश्वर भगवान की स्तुति करते हैं, अब कलियुग में अनेक तंत्रों के विधि – विधान से भगवान की जैसी पूजा की जाती है, उसका वर्णन सुनो – कलियुग में भगवान का श्री विग्रह होता है कृष्ण वर्ण – काले रंग का। जैसे नीलम मणि में से उज्जवल कान्तिधारा निकलती रहती है, वैसे ही उनके अंग की छटा भी उज्जवल होती है।
वे हृदय आदि अंग, कौस्तुभ आदि उपांग, सुदर्शन आदि अस्त्र और सुनन्दप्रभृति पार्षदों से संयुक्त रहते हैं। कलियुग में श्रेष्ठ बुद्धि सम्पन्न पुरूष ऐसे यज्ञों के द्वारा उनकी आराधना करते हैं, जिनमें नाम, गुण, लीला आदि के कीर्तन की प्रधानता रहती है।
प्रेमावतार चैतन्य महाप्रभु ने राधा कांति कलेवर धारण कर श्री राधा भाव से भावित रहकर तथा अपने पार्षदों से आवृत रहकर अपनी समस्त लीलाएं की हैं।
श्री राधा की जिन विरह – भाव दशाओं का वर्णन गीत गोविन्दकार श्री जयदेव जी ने किया है, वे महाप्रभु चैतन्य के जीवन में प्रतिक्षण घटित होती रहीं। जिस भाग्यवान के अन्तस् में भगवान का प्रेम हिलोरें लेता है, उसके कदम – कदम पर, रोम – रोम में, बातचीत में, प्रत्येक इन्द्रियों में, हाव – भाव में, प्रेम छलक कर बाहर बिखरता रहता है।
प्रेम की मात्रा हृदय में बढ़ जाती है, तब संभाले नहीं संभलती। नित्य – निरंतर महाप्रभु जी कृष्ण विरह में इस प्रकार करूण क्रन्दन, रूदन करते रहते थे। विरह के रोमांच, कम्प, अश्रु, उन्माद, रूदन,प्रपीड़न आदि सात्त्विक भावों के उद्रेक में रहते हुए जगज्जीवों को भगवत्प्रेम कैसे करना चाहिये – ऐसी शिक्षा उन्होंने दी।
मानवों की तो बात ही क्या! श्री वृन्दावन धाम के प्रकाशनार्थ झाड़ी खण्ड के रास्ते में जाते हुए महाप्रभु को वन के भयंकर सिंह, बाघ, रीछ आदि हिंसक जीव भी उन्हीं की महाविरह – भाव दशा में ‘कांहां जाऊं कांहां पांऊं मोर प्राणधन,कान्हा वृजेन्द्रनन्दन’ – इस प्रकार अश्रुप्रपात करते हुए, भुजाएं उठाकर नृत्य करते हुए देख कर दो पिछले पैरों पर खड़े होकर जैसे मदारी नचाता है, वैसे नृत्य करने लगे। ऐसे प्रेमाविष्ट महाप्रभु ही विश्व में प्रेम पुरूषोत्तम कहलाये।
महाप्रभु चैतन्य देव ने तत्कालीन क्रूरकर्मा जगायी – मधाई, चांदकाजी आदि अनेक यवनों को भी प्रेमधन लुटाया, उन्हें गले लगाया, वे वैष्णव बन गये, श्री हरिदास आदि यवन उनके पार्षद थे, उनका हृदय परिवर्तित हो गयां तत्कालीन विद्वत्परिषद में वे अग्रणी थे।
नव्यन्याय के मूर्धन्य अधिकारी विद्वान थे। उन्होंने वर्ग, सम्प्रदाय, कुल, विद्याा, धनाभिमान, सम्मान आदि के आग्रह से मुक्त रहकर सबको कीर्तन का उपदेश दिया। तिनके से भी अपने आपको नीचा समझ कर, वृक्ष से भी अधिक सहिष्णु बनकर, अपमान करने वाले को भी मान प्रदान करते हुए नित्य – निरंतर हरिनाम – संकीर्तन करते रहने की महाप्रभु जी ने शिक्षा दी और सर्वत्र प्रेम भक्ति का प्रचार किया।
तभी श्री नाभादास जी ने भक्तमाल में लिखा – चैतन्य देव जी ने जीवनमात्र पर दया करना , भगवन्नाम से सतत रूचि रखना और जगत हितकारी सदाचार सम्पन्न विनीत व्यक्तित्व वालों का संग करना यही धर्म का सार अपने परम अनुयायी पार्षद सनातन गोस्वामी के समक्ष विश्व को अवदान के रूप में निरूपित किया।