इस ब्रह्म सृष्टि में पृथ्वी पर नर्मदा मैया का अवतरण तीन बार हुआ है। प्रथम बार पाद्यकल्प के प्रथम सतयुग में, दूसरी बार दक्षसावर्णि मन्वन्तर के प्रथम सयतुग में और तृतीय बार वर्तमान वैवस्वत के प्रथम सतयुग मेें। तीनों बार की नर्मदा-अवतरण की कथाएं इस प्रकार हैं|
पहली बार पाद्यकल्प के प्रथम सतयुग में अवतरण
इस सृष्टि से पूर्व की सृष्टि में समुद्र के अधिदेवता पर भगवान् ब्रह्मा जी किसी कारण से रूष्ट हो गये और उन्होंने समुद्र को मानव जन्म-धारण का शाप दिया, जिसके परिणाम स्वरूप पाद्यकल्प में समुद्र के अधिदेवता राजा पुरूकुत्स के रूप में पृथ्वी पर उत्पन्न हुए। एक बार पुरूकुत्स ने ऋषियों तथा देवताओं से पूछा ‘भूलोक तथा दिव्य लोक में सर्वश्रेष्ठ तीर्थ कौन-सा है?’
देवताओं ने बताया ‘रेवा ही सर्वश्रैष्ठ तीर्थ हैं। वे परम पावनी तथा शिव को प्रिय हैं। उनकी अन्य किसी से तुलना नहीं है।’ राजा पुरूकुत्स बोले ‘तब उन तीर्थोत्तम रेवा को भूतल पर अवतीर्ण करने का प्रयत्न करना चाहिये’। ऋषियों तथा देवताओं ने अपनी असमर्थता प्रकट की। उन्होंने कहा ‘वे नित्य शिव-सानिध्य में ही रहती हैं। शंकर जी भी उन्हें अपनी पुत्री मानते हैं, वे उन्हें त्याग नहीं सकते।’
लेकिन राजा पुरूकुत्स निराश होने वालों में से नहीं थे। उनका संकल्प अटल था। विन्ध्य के शिखर पर जाकर उन्होंने तपस्या प्रारम्भ की। पुरूकुत्स की कठोर तपस्या से प्रसन्न होकर भगवान शिव प्रकट हुए और उन्होंने राजा से वरदान मांगने को कहा। पुरूकुत्स बोले ‘परम तीर्थभूता नर्मदा का भूतल पर आप अवतरण करायें। उन रेवा के पृथ्वी पर अवतरण के सिवाय मुझे आपसे और कुछ नहीं चाहिये।’
भगवान शिव ने पहले तो राजा को यह कार्य असम्भव बतलाया, किंतु शंकर जी ने देखा कि ये दूसरा वर नहीं चाहते तो उनकी निस्पृहता एवं लोक मंगल की कामना से भगवान भोलेनाथ बहुत प्रसन्न हुए। उन्होंने नर्मदा मैया को पृथ्वी पर उतरने का आदेश दिया।
नर्मदा जी बोलीं ‘पृथ्वी पर मुझे कोई धारण करने वाला हो और आप भी मेरे समीप रहेंगे, तो मैं भूतल पर उतर सकती हूं।’ शिव जी ने स्वीकार किया कि ‘वे सर्वत्र नर्मदा की सन्निधि में रहेंगे तथा नर्मदा का पावन तट शिव क्षेत्र कहलायेगा’ ।
जब भगवान शिव ने पर्वतों को आज्ञा दी तो उन्होंने नर्मदा मैया के प्रचंड वेग को धारण करना स्वीकार किया। पर्यंक पर्वत ने नर्मदा के मेकल नाम को धारण किया | उस पर्वत की चोटी से, बांस के पेड़ के अंदर से मां नर्मदा प्रकट हुई। इसी कारण इनका एक नाम ‘मेकलसुता’ हो गया। देवताओं ने आकर प्रार्थना की कि यदि आप हमारा स्पर्श करेंगी तो हम लोग भी पवित्र हो जायंगे।
नर्मदा ने उत्तर दिया “मैं अभी तक कुमारी हूं, अतः किसी पुरूष का स्पर्श नहीं करूंगी, पर यदि कोई हठपूर्वक मेरा स्पर्श करेगा तो वह भस्म हो जायगा। अतः आप लोग पहले मेरे लिये उपयुक्त पुरूष का विधान करें”। देवताओं ने बताया कि ‘राजा पुरूकुत्स आपके सर्वथा योग्य हैं, वे समुद्र देव के अवतार हैं, तथा नदियों के नित्यपति समुद्र ही हैं।
वे तो साक्षात नारायण के अंग से उत्पन्न उन्हीं के अंश हैं, अतः आप उन्हीं का वरण करें’। नर्मदा ने राजा पुरूकुत्स को पतिरूप में वरण कर लिया, फिर राजा की आज्ञा से नर्मदा ने अपने जल से देवताओं को पवित्र किया।
दूसरी बार दक्षसावर्णि मन्वन्तर के प्रथम सयतुग में अवतरण
दूसरी बार दक्षसावर्णि मन्वन्तर में महाराज हिरण्यतेज ने नर्मदा मैया के अवतरण के लिये 14 हजार वर्ष तक कठोर तपस्या की। उनकी तपस्या से संतुष्ट होकर भगवान शिव ने उन्हें दर्शन दिया और उनसे वर मांगने को कहा, तब महाराज हिरण्यतेज ने भगवान शंकर से नर्मदा मैया के अवतरण के लिये प्रार्थना की।
देव योग से नर्मदा जी ने इस मन्वन्तर में अवतार लेते समय अत्यन्त विशाल और विकराल रूप धारण कर लिया। ऐसा लगा कि मानो वे द्युलोक तथा पृथ्वी का भी प्रलय कर देंगी। परिस्थीतियाँ बड़ी विकट हो गयीं | ऐसी स्थिति में पर्यंक पर्वत के शिखर पर भगवान शंकर के दिव्य लिंग का प्राकट्य हुआ। उस लिंग से हुंकारपूर्वक, गर्जना करती हुई एक ध्वनि निकली कि ‘रेवा! तुम्हें अपनी मर्यादा में रहना चाहिये’।
उस ध्वनि को सुनकर नर्मदा जी शांत हो गयीं और अत्यन्त छोटे रूप में उस आविर्भूत लिंग को स्नान कराती हुई पृथ्वी पर प्रकट हो गयीं। इस कल्प में जब वे अवतीर्ण हुईं तो उनके विवाह की बात नहीं उठी; क्योंकि उनका विवाह तो इससे पहले के मन्वन्तर के प्रथम कल्प में ही हो चुका था।
तीसरी बार वर्तमान वैवस्वत मन्वन्तर के प्रथम सतयुग मेें अवतरण
इस वर्तमान वैवस्वत मन्वन्तर मे राजा पुरूरवा ने नर्मदा मैया को भूतल पर लाने के लिये तपस्या की। यह ध्यान देने योग्य है कि पुरूरवा ने प्रथम बार अरणि-मंथन करके अग्निदेव को प्रकट किया था और उन्हें अपना पुत्र माना था। वैदिक यज्ञ इस मन्वन्तर में पुरूरवा से ही प्रारम्भ हुए। उससे पहले लोग ध्यान तथा तप करते थे।
पुरूरवा ने तपस्या करके शंकर जी को प्रसन्न किया और नर्मदा जी के पृथ्वी पर उतरने का वरदान मांगा। इस कल्प में विन्ध्य के पुत्र पर्यंक पर्वत का नाम अमर कण्टक पड़ गया था, क्योंकि देवताओं को जो असुर कष्ट पहुंचाते थे, इसी पर्वत के वनों मे रहने लगे थे। जब भगवान शंकर के बाण से जल कर त्रिपुर इस पर्वत पर गिरा तो उसकी ज्वाला से जल कर सारे असुर भस्म हो गये थे ।
नर्मदा जी के अवतरण की यह कथा द्वितीय कथा के ही समान है। इस बार भी नर्मदा जी ने भूतल पर उतरते समय प्रलयंकारी रूप धारण किया था, किंतु भगवान भोले नाथ ने उन्हें अपनी मर्यादा में रहने का आदेश दे दिया था, जिससे वे अत्यन्त संकुचित होकर पृथ्वी पर प्रकट हुईं।