महर्षि दुर्वासा कौन थे, वास्तव में वो ब्रह्मर्षि, महा तपस्वी तथा धर्मात्मा भगवान शंकर के ही अवतार रूप हैं। पौराणिक आख्यानों, तथा लौकिक जगत में महर्षि दुर्वासा को उनके महा क्रोधी स्वभाव के लिए ही अधिक जाना जाता है किन्तु वास्तविकता ये है कि, श्रेष्ठ धर्म का प्रवर्तन करने, भक्तों की धर्म परीक्षा करने तथा भक्ति की अभिवृद्धि करने के लिये साक्षात भगवान शंकर ने ही दुर्वासा मुनि के रूप में अवतार धारण कर अनेक प्रकार की लीलाएं की थीं । इस अवतार की संक्षिप्त कथा इस प्रकार है-
महर्षि दुर्वासा की कथा
ब्रह्म ज्ञानी अत्रि मुनि ब्रह्मा जी के पुत्र थे। वे ब्रह्मा जी के मानस पुत्र कहलाते हैं। इनकी अनसूया नाम की सती साध्वी धर्म पत्नी थीं । अनसूया का पातिव्रत-धर्म विश्व-विश्रुत ही है। वे इतनी महान पतिव्रता थी कि उनका नाम इस जगत में ‘सती अनसूया’ के नाम से ही प्रसिद्ध है | एक बार की बात है पुत्र की आकांक्षा से महर्षि अत्रि तथा देवी अनसूया ने ऋक्ष कुल नामक पर्वत पर जाकर निर्विन्ध्या नदी के पावन तट पर सौ वर्ष तक दुष्कर तप किया।
उनके प्रचंड तप का ऐसा प्रभाव हुआ कि एक उज्जवल अग्निमयी ज्वाला प्रकट हुई, जिसने तीनों लोकों को व्याप्त कर लिया। देवता, ऋषि, मुनि सभी चिन्तित हो उठे। तब ब्रह्मा, विष्णु तथा महेश्वर-ये तीनों देव उस स्थान पर गये, जहां महा महर्षि अत्रि तथा देवी अनसूया तप कर रहे थे। इसके बाद प्रसन्न होकर ब्रह्मा, विष्णु तथा महेश्वर, तीनों देवों ने उन्हें अपने-अपने अंश से एक-एक पुत्र (इस प्रकार से तीन पुत्र) प्राप्त करने का वर प्रदान किया।
ब्रह्मा, विष्णु तथा शंकर के अंश से क्रमशः चंद्रमा, दत्तात्रेय तथा दुर्वासा जी का अवतरण हुआ
वरदान के प्रभाव से ब्रह्मा जी के अंश से चंद्रमा, विष्णु के अंश से दत्तात्रेय तथा भगवान शंकर के अंश से मुनि श्रेष्ठ दुर्वासा का आविर्भाव हुआ। ये तीनों अत्रि और अनसूया के पुत्र कहलाये। दुर्वासा के रूप में अवतार लेकर भगवान शंकर ने अनेक लीलाएं कीं हैं, जो सारे जगत में अति प्रसिद्ध हैं।
भगवान शंकर के रूद्र रूप से महर्षि दुर्वासा प्रकट हुए थे, इसलिये उनका रूप अति रौद्र था, इसी कारण वे अति क्रोधी भी थे, किंतु महर्षि दुर्वासा दयालुता की मूर्ति हैं, अत्यन्त करूणा सम्पन्न हैं। भक्तों का दुःख दूर करना तथा रौद्र रूप धारण कर दुष्टों का दमन करना ही उनका स्वभाव रहा है। शिव पुराण में कथा आयी है कि एक बार नदी में स्नान करते समय महर्षि दुर्वासा का वस्त्र नदी के प्रवाह में प्रवाहित हो गया।
कुछ दूरी पर देवी द्रौपदी भी स्नान कर रही थीं, उस समय द्रौपदी ने अपने अंचल का एक टुकड़ा फाड़ कर उन्हें प्रदान किया, इससे प्रसन्न होकर शंकर अवतार महर्षि दुर्वासा ने उन्हें वर दिया कि वह वस्त्र खण्ड वृद्धि को प्राप्त कर तुम्हारी लज्जा का निवारण करेगा और तुम सदा पाण्डवों को प्रसन्न रखोगी। इसी वर का प्रभाव था कि जब कौरव सभा में दुःशासन के द्वारा द्रौपदी की साड़ी खींची जाने लगी तो वह बढ़ती ही गयी। वर के प्रभाव से द्रौपदी की लाज बच गयी। इस प्रकार से इनके द्वारा अनेक भक्तों की रक्षा हुई।