भगवान् बलराम क्या हर द्वापर यग में अवतार लेते हैं?
भगवान श्री कृष्ण का अवतार तो पिछले द्वापर में, इस मन्वन्तर के सत्ताईस कलियुगों के पश्चात हुआ था। वैसे द्वापर युग में पृथ्वी का भार हरण करने तो भगवान बलराम ही प्रायः पधारते हैं। उन्हीं को श्रुतियाँ द्वापर का युग अवतार कहती हैं। माता देवकी के सप्तम गर्भ में वे पधारे। योग माया ने गोकुल में नंदबाबा के यहां स्थित रोहिणी जी के गर्भ में उन्हें पहुंचा दिया। इस प्रकार वे संकर्षण कहलाये। इनकी गोकुल, मथुरा और द्वारका की कई लीलाएं बड़ी ही अदभुत और आंनददायिनी हैं।
कृष्ण और बलराम अभिन्न हैं
श्री कृष्ण-बलराम परस्पर नित्य अभिन्न है। उनकी चरित-चर्चा एक-दूसरे से पृथक जैसे कुछ है ही नहीं। गोकुल में दोनों की संग-संग बाल क्रीड़ा और वहां से वृन्दावन-प्रस्थान। बहुत थोड़े चरित हैं, जब श्याम सुन्दर के साथ उनके अग्रज नहीं थे। ऐसे ही बलराम जी अपने अनुज से पृथक बहुत कम रहे हैं।
वहां कंस-प्रेरित असुर प्रलम्ब आया था।
बलराम जी की बाल लीलायें
कृष्ण को तो कोई साथी चाहिये था खेलने के लिये। सो एक नवीन गोप-बालक को देखा और मिला लिया अपने दल में। असुर ने श्याम के दैत्य-चरित सुने थे। उसे उनसे भय लगा। अपने छद्मवेश में वह दाऊ को पीठ पर बैठाने में सफल हुआ और भागा। जो सम्पूर्ण ब्रह्माण्ड का धारक है, उसे कौन ले जा सकता हैै। दैत्य को अपना स्वरूप प्रकट करना पड़ा। एक घूसा पड़ा तत्क्षण उसके मस्तक पर, और फिर क्या सिर बच रहना था?
उस दिन सखा कह रहे थे कि उन्हें पक्क ताल-फलों की सुरभि आकर्षित कर रही है। सखा कुछ चाहें तो वह अप्राप्य कैसे रहे। असुर-गर्दभ धेनुक और उसका गर्दभ-परिवार-सब क्रीड़ा में ही नष्ट हो गये। प्रकृति का उन्मुक्त दान जंगल है। इन दुष्ट गर्दभों ने उसे पशुओं तक के लिये अगम्य बना दिया था। भगवान बलराम ने सखाओं को ताल-फल प्रदान करने के बहाने सबके लिये निर्बाध कर दिया उसे।
कन्हैया तो महा चंचल है; किंतु दाऊ भैया गम्भीर, परमोदर, शान्त हैं। श्याम उन्हीं का संकोच भी करता है। वे भी अपने अनुज की इच्छा को ही जैसे देखते रहते हैं। व्रज-लीला में जब श्याम ने शंख चूड़ को मारा, तब उसने समस्त गोप-नारियों के सम्मुख उस यक्ष का शिरो रत्न अपने अग्रज को उपहार रूप में दिया। कुवलयापीड-कंस का उन्मत्त गजराज दोनों भाईयों के थप्पड़ों और घूसों की भेंट हुआ और मल्लशाला में चाणूर को श्याम ने पछाड़ा तो मूष्टिक बलराम जी की मुुष्टिका की भेंट हो गया।
दोनों भाईयों ने गुरू गृह में साथ-साथ निवास किया। जरासंध को बलराम जी ही अपने योग्य प्रतिद्वन्द्वी जान पड़े और यदि श्री कृष्णचन्द्र ने अग्रज से उसे छोड़ देनेे की प्रार्थना न की होती तो वह पकड़ लिया गया था तथा बलराम जी उसेे मारने ही जा रहेे थे। जिससे सत्रह युद्धों में उसे पराजित कर, उसे पकड़ कर छोड़ दिया, उसीेेे केेे सामने सेे अठारवीं बार भागना कोेई अच्छी बात नहीं थी। किया क्या जाय? श्री कृष्ण ने प्रातः से वह दिन पलायन के लिये स्थिर कर लिया था।
काल यवन के सम्मुख वेे अकेेलेे भागे । जरासंध केे सम्मुख भागने में इतना आग्रह किया कि अग्रज को साथ भागना ही पड़ा। ‘यह भी कोई बात है कि केेवल हंसा जाय! जो बना-बिगाड़ न सकता हो, वह हंसेे या पश्चाताप करे?’
बलराम जी का विवाह
बलराम जी का विवाह हुुआ। रेवती जी सत्य युुग की कन्या ठहरीं। प्राकृतिक रूप से बहुत लम्बी थीं। श्याम सुन्दर तो सदा से ही परिहास प्रिय हैं। बलराम जी ने पत्नी को अपने अनुरूप ऊंचाई में पहुंचा दिया।
कृष्ण और रुक्मिणी का विवाह
‘श्याम अकेला गया है?’ कुण्डिन पुर के राजा भीष्मक की कन्या रूक्मिणी के विवाह में शिशुपाल के साथ जरासंध आदि ससैन्य आ रहे हैं, यह समाचार तो मिल ही चुका था। वहां अकेले श्री कृष्ण कन्या-हरण करने गये, यह तो अच्छा नहीं हुआ। बलराम जी ने यादवी सेना सज्जित की। वे इतनी शीघ्रता से चले कि श्री कृष्ण मार्ग में ही मिल गये। श्याम सुन्दर को केवल रूक्मिणी जी को लेकर चल देना था। शिशुपाल और उसके साथी तो बलराम के सैन्य समूह से ही पराजित हुए।
रुक्मी का वध
‘कृष्ण! सम्बन्धियों के साथ तुम्हें ऐसे व्यवहार नहीं करना चाहिये।’ बलराम जी राजाओं की सेना को परास्त करके आगे बढ़े तो रूकमी की सेना आ गयी। उसके साथ उलझने में कुछ विलम्ब हुआ। आगे आकर देखा तो छोटे भाई ने अपने ही साले रूकमी को पराजित करके रथ में बांध रखा है। उसके केश, श्मश्रु मुण्डित कर दिये हैं। बलराम जी को बड़ी दया आयी। छुड़ा दिया उन्होंने उसको; परंतु आगे चल कर रूकमी ने अपने स्वाभववश बलराम जी का अपमान किया, तब वह उन्हीं के हाथों मारा गया।
दुर्योधन भी मदमत्त हो उठा था। क्या हुआ जो श्री कृृष्ण केे पुुत्र साम्ब नेे उसकी पुुत्री लक्ष्मण का हरण किया? क्षत्रिय केे लियेे स्वयंवर में कन्या-हरण अपराध तो है नहीं। अकेलेे लड़केे को छः महारथियों ने मिलकर बंदी बनाया, यह तो अन्याय ही था। श्री कृष्ण चन्द्र कितने रूष्ट हुए थे समाचार पाकर। यदि वे नारायणी सेना के साथ आ जाते तो अनर्थ हो जाता |
बलराम जी ने छोटे भाई कोे शान्त किया। दुर्योधन उनका शिष्य था। सत्राजित का वध करके शतधन्वा जब स्यमंतकमणि लेकर भागा, श्याम सुन्दर के साथ बलभद्र जी ने उसका पीछा किया। वह मिथिला के समीप पहुंच कर मारा जा सका। मणि उसके वस्त्रों में मिली नहीं। बलराम जी इतने समीप आकर मिथिला नरेश से मिले बिना लौट न सके।
दो मास तक वही दुर्योधन ने उनसे गदा-युद्ध की शिक्षा ली। वहीं दुर्योधन यदुवंशियों को अपना कृपाजीवी, क्षुद्र कहकर चला गया था और भगवान बलराम के सम्मुख ही यादव महाराज उग्रसेन के प्रति उसने अपशब्द भी कहे। क्रुद्ध हलधर ने हल उठाया। हस्तिनापुर नगर घूमने लगे । वे धराधार नगर को यमुना जी में फेंकने जा रहे थे। ‘पशूनां लगुडो यथा।’ ‘पशु डंडे से मानते हैं।’ दण्ड से भीत कौरव शरणापन्न हुए। वे क्षमामय दण्ड का तो केवल नाटय करते हैं। उन्हें भी क्या रोष आता है?
महाभारत में वे किस और होते? एक और प्रिय शिष्य दुर्योधन और दूसरी ओर श्री कृष्ण। इसीलिए वे तीर्थयात्रा करने चले गये। नैमिष-क्षेत्र में इल्वल राक्षस का पुत्र बल्लव अपने उत्पात से ऋषियों को आकुल किये था। बलराम जी की वजह से उस विपत्ति से उन तपस्वियों को त्राण मिला। जब वे तीर्थ यात्रा से लौटे तब महाभारत युद्ध समाप्त हो चुका था।
भगवान बलराम का लीला संवरण
भीम-दुर्योधन का अंतिम संग्राम चल रहा था। दोनों में से कोई समझाने से मानने को उद्यत नहीं था। यदुवंश का उप संहार होना ही था। भगवान की इच्छा से अभिशप्त यादव परस्पर संग्राम कर रहे थे। भगवान बलराम उन्हें समझाने-शान्त करने गये, पर काल और मृत्यु के वश हुए उन्होंने इनकी बात नहीं सुनी और नष्ट हो गये। उधर श्याम सुन्दर भी अपनी अंतिम लीला की ओर अग्रसर थे | भगवान् बलराम को भी अब लीला-संवरण करना था। अपने परमसखा, अनुज श्रीकृष्ण से उन्होंने अंतिम भेंट की, और समुद्र तट पर आ गए | समुद्र-तट पर उन्होंने आसन लगाया और अपने ‘सहस्रशीर्षा’ स्वरूप से जल में प्रविष्ट हो गये।