बेताल ने राजा विक्रमादित्य के कंधे पर आते ही कथा सुनाना प्रारंभ कर दिया | किसी ज़माने में अंगदेश मे यशकेतु नाम का राजा राज्य करता था। उसके राज्य दरबार में दीर्घदर्शी नाम का बड़ा ही चतुर दीवान था । राजा यशकेतु बड़ा ही विलासी प्रकृति का था । राज्य प्रबन्धन का सारा बोझ दीवान पर डालकर वह सुरा, सुन्दरी के भोग में पड़ गया । दीवान को इस बात का बहुत दु:ख हुआ करता था ।
उसने देखा कि राजा के साथ साथ सब जगह उसकी भी निन्दा होती है। इसलिए वह तीर्थ यात्रा का बहाना करके नगर से निकल पड़ा। चलते-चलते रास्ते में उसे एक शिव-मन्दिर मिला । उसी समय निशिदत्त नाम का एक सौदागर वहाँ आया और दीवान के पूछने पर उसने बताया कि वह सुवर्णद्वीप में व्यापार करने जा रहा है। प्रसन्न होते हुए दीवान भी उसके साथ हो लिया।
दोनों पानी की जहाज़ पर चढ़कर सुवर्णद्वीप पहुँचे और वहाँ व्यापार करके धन कमाकर लौटे। रास्ते में समुद्र में स्थित एक द्वीप पर दीवान को एक कृल्पवृक्ष दिखाई दिया । उसकी मोटी-मोटी शाखाओं पर रत्नों से जुड़ा एक पलंग बिछा था। उस पर एक रूपवती कन्या बैठी वीणा बजा रही थी। थोड़ी देर बाद वह ग़ायब हो गयी। पेड़ भी नहीं रहा। दीवान इस अनोखी घटना से बड़ा चकित हुआ।
दीवान ने वापस अपने नगर में लौटकर राजा और मंत्री परिषद् के सदस्यों को सारा हाल कह सुनाया । इस बीच इतने दिनों तक राज्य को भली भाँती
चला कर राजा सुधर गया था और उसने विलासिता छोड़ दी थी । दीवान की कहानी सुनकर राजा की विलासिता फिर उस पर हावी होने लगी और वह उस सुन्दरी को पाने के लिए बेचैन हो उठा |
उसने फिर से राज्य का सारा काम उसी दीवान पर सौंपकर और स्वयं तपस्वी का भेष बनाकर वहां पहुँचा। वहाँ पहुँचने पर उसे वही कल्पवृक्ष और वीणा बजाती हुई कन्या दिखाई दी। उसने राजा से पूछा, “तुम कौन हो?” राजा ने अपना परिचय दे दिया। वह सुंदरी कन्या बोली, “मैं राजा मृगांकसेन की कन्या हूँ। मृगांकवती मेरा नाम है। मेरे पिता मुझे छोड़कर न जाने कहाँ चले गये।”
राजा ने पुलकित होते हुए उसके साथ विवाह करने की इच्छा जतायी । इस पर कन्या ने राजा के समक्ष यह शर्त रखी कि वह हर महीने के शुक्लपक्ष और कृष्णपक्ष की चतुर्दशी और अष्टमी को कहीं जाया करेगी और राजा उसे ऐसा करने से रोकेगा नहीं। राजा उसकी सुन्दरता और मधुर कंठ ध्वनि पर मुग्ध था अतः उसने प्रसन्न मन से उसकी यह शर्त मान ली। फिर राजा ने उससे गन्धर्व विवाह कर लिया और उसे राजमहल ले कर लौट आया |
इसके बाद कृष्णपक्ष की चतुर्दशी आयी तो राजा से पूछकर मृगांकवती वहाँ से कहीं चली । राजा के मन में भी बड़ा कौतूहल था, अतः वह भी चुपचाप उसके पीछे-पीछे चल दिया। मार्ग में अचानक राजा ने देखा कि कहीं से एक राक्षस निकला और उसने मृगांकवती को निगल लिया। राजा को बड़ा गुस्सा आया और उसने राक्षस का सिर काट डाला। मृगांकवती उसके पेट से जीवित निकल आयी।
चकित हुए राजा ने उससे पूछा कि यह क्या माजरा है तो उसने कहा, “महाराज, मेरे पिता मेरे बिना भोजन नहीं करते थे। मैं अष्टमी और चतुदर्शी के दिन शिव पूजा यहाँ करने आती थी। एक दिन पूजा में मुझे बहुत देर हो गयी। पिता को भूखा रहना पड़ा।
देर से जब मैं घर लौटी तो उन्होंने गुस्से में मुझे शाप दे दिया कि अब से अष्टमी और चतुर्दशी के दिन जब मैं पूजन के लिए आया करूँगी तो एक राक्षस मुझे निगल जाया करेगा और मैं उसका पेट चीरकर निकला करूँगी। जब मैंने उनसे शाप छुड़ाने के लिए बहुत अनुनय की तो वह बोले, “जब अंगदेश का राजा तेरा पति बनेगा और तुझे राक्षस से निगली जाते देखेगा तो वह राक्षस को मार देगा। तब तेरे शाप का अन्त होगा।”
इसके बाद राजा उसे लेकर नगर में आया। दीवान ने यह देखा तो उसका हृदय फट गया। और वह मर गया। इतना कहकर बेताल ने पूछा, “हे राजन्! अब मुझे यह बताओ कि स्वामी की इतनी खुशी के समय दीवान का हृदय क्यों फट गया, क्या उसे ख़ुशी नहीं हुई?”
इसके उत्तर में राजा विक्रमादित्य ने कहा, “इसलिए कि उसने सोचा कि राजा फिर से स्त्री के चक्कर में पड़ गया है और अब राज्य की दुर्दशा होगी।” राजा का इतना कहना था कि बेताल फिर पेड़ पर जा लटका । राजा ने वहाँ जाकर फिर उसे साथ लिया तो रास्ते में बेताल ने अगली कहानी सुनायी।