जयलक्ष्मी तीसवीं पुतली थी जिसने राजा भोज का रास्ता रोका था | जयलक्ष्मी ने राजा भोज को, सम्राट विक्रमादित्य की जो कथा सुनायी वह इस प्रकार थी |’राजा विक्रमादित्य जितने बड़े राजा थे उतने ही बड़े तपस्वी भी थे । उस समय उन्होंने अपने तप से जान लिया कि वे अब अधिक से अधिक छ: महीने और जी सकते हैं ।
अपनी मृत्यु को आसन्न समझकर उन्होंने वन में एक कुटिया बनवा ली तथा राज-काज से बचा हुआ समय योग साधना में बिताने लगे । एक दिन वह राजमहल से कुटिया की तरफ आ रहे थे कि उनकी नज़र एक मृग पर पड़ी । मृग अद्भुत था और ऐसा मृग विक्रम ने कभी नहीं देखा था । उन्होंने धनुष हाथ में लेकर दूसरा हाथ तरकश में डाला ही था कि मृग उनके समीप आकर मनुष्य की बोली में उनसे अपने प्राणों की भिक्षा माँगने लगा।
विक्रम को उस मृग को मनुष्यों की तरह बोलते हुए देख बड़ा आश्चर्य हुआ और उनका हाथ स्वत: थम गया । विक्रम ने उस मृग से पूछा कि वह मनुष्यों की तरह कैसे बोल लेता है तो वह बोला कि यह सब उनके दर्शन के प्रभाव से हुआ है । विक्रम की जिज्ञासा अब और बढ़ गई । उन्होंने उस मृग को पूछा कि ऐसा क्यों हुआ तो उसने बताना शुरु किया ।
“मैं जन्म से मृग नहीं हूँ । मेरा जन्म मनुष्य जाति में एक राजा के कुल में हुआ था । अन्य राजकुमारों की भाँति मुझे भी शिकार खेलने का बहुत शौक था । शिकार के लिए मैं अपने घोड़े पर बहुत दूर तक घने जंगलों में घुस जाता था । एक दिन मुझे कुछ दूरी पर मृग होने का आभास हुआ और मैंने आवाज़ को लक्ष्य करके एक शब्दभेदी वाण चलाया ।
दरअसल वह आवाज़ एक साधनारत योगी की थी जो बहुत धीमें स्वर में मंत्रोच्चार कर रहा था । तीर उसे तो नहीं लगा, पर उसकी कनपटी को छूता हुआ पूरो वेग से एक वृक्ष के तने में घुस गया । मैं अपने शिकार को खोजते-खोजते वहाँ तक पहुँचा तो पता चला मुझसे कैसा अनिष्ट होने से बच गया । योगी की साधना में विघ्न पड़ा था. इसलिए वह काफी क्रुद्ध हो गया था ।
उसने जब मुझे अपने सामने खड़ा पाया तो समझ गया कि वह वाण मैंने चलाया था । उसने अपनी अग्नि समान लपलपाती हुई आँखों से घूरते हुए मुझे श्राप दे दिया । उसने कहा “ओ मृग का शिकार पसंद करने वाले मूर्ख युवक, आज से खुद मृग बन जा । आज के बाद से आखेटकों से अपने प्राणों की रक्षा करता रह” ।
उसने श्राप इतनी जल्दी दे दिया कि मुझे अपनी सफ़ाई में कुछ कहने का मौका ही नहीं मिला । श्राप की कल्पना से ही मैं भय से सिहर उठा । मैं योगी के पैरों पर गिर पड़ा तथा उससे श्राप मुक्त करने की प्रार्थना करने लगा । मैंने रो-रो कर उससे कहा कि उसकी साधना में विघ्न उत्पन्न करने का मेरा कोई इरादा नहीं था और यह सब अनजाने में मुझसे हो गया ।
मेरी आँखों में पश्चाताप के अश्रु देखकर उस योगी को दया आ गई । उसने मुझसे कहा कि श्राप वापस तो नहीं लिया जा सकता, लेकिन वह उस श्राप के प्रभाव को सीमित ज़रुर कर सकता है ।
मैंने कहा कि जितना अधिक संभव है उतना वह श्राप का प्रभाव कम कर दे तो उन्होंने कहा “तुम मृग बनकर तब तक भटकते रहोगे जब तक महान यशस्वी राजा विक्रमादित्य के दर्शन नहीं हो जाएँ । विक्रमादित्य के दर्शन से ही तुम मनुष्यों की भाँति बोलना शुरु कर दोगे” ।
विक्रम को अब जिज्ञासा हुई कि वह मृग मनुष्यों की भाँति बोल तो रहा है मगर मनुष्य में परिवर्तित नहीं हुआ है । उन्होंने उससे पूछा “तुम्हें मृग रूप से कब मुक्ति मिलेगी? कब तुम अपने वास्तविक रूप को प्राप्त करोगे” ?
वह श्रापित राजकुमार बोला “इससे भी मुझे मुक्ति बहुत शीघ्र ही मिल जाएगी । उन योगी के कथनानुसार मैं अगर आपको साथ लेकर उनके पास जाऊँ तो मेरा वास्तविक रूप मुझे तुरन्त ही वापस मिल जाएगा ।
विक्रमादित्य प्रसन्न थे कि उनके हाथ से शापग्रस्त राजकुमार की हत्या नहीं हुई अन्यथा उन्हें निरपराध मनुष्य की हत्या का पाप लग जाता और वे ग्लानि तथा पश्चाताप की आग में जल रहे होते । उन्होंने मृग रुपी राजकुमार से पूछा “क्या तुम्हें उन योगी के निवास के बारे में कुछ पता है? क्या तुम मुझे उनके पास लेकर चल सकते हो” ?
इस पर उस राजकुमार ने कहा “हाँ, मैं आपको उनकी कुटिया तक अभी लिए चल सकता हूँ । संयोग से वह योगी अभी भी इसी जंगल में थोड़ी दूर पर साधना कर रहे हैं | वह मृग आगे-आगे चला और विक्रम उसका अनुसरण करते-करते चलते रहे । थोड़ी दूर चलने के पश्चात उन्हें एक वृक्ष पर उलटा होकर साधना करते हुए एक योगी महात्मा दिखायी दिए ।
विक्रमादित्य को समझ में आ गया कि राजकुमार रुपी मृग इन्ही योगी की बात कर रहा था । वे जब समीप आए तो वह योगी उन्हें देखते ही वृक्ष से उतरकर सीधे खड़े हो गए । उन्होंने विक्रमादित्य का अभिवादन किया तथा दर्शन देने के लिए उन्हें नतमस्तक होकर धन्यवाद दिया ।
विक्रमादित्य समझ गए कि वह योगी उनकी ही प्रतीक्षा कर रहे थे । लेकिन उन्हें जिज्ञासा हुई कि वह आखिर उनकी प्रतीक्षा क्यों कर रहे थे । पूछने पर उन्होंने उन्हें बताया कि एक दिन सपने में इन्द्र देव ने उन्हें दर्शन देकर कहा था कि महाराजा विक्रमादित्य ने अपने कर्मों से देवताओं का स्थान प्राप्त कर लिया है तथा उनके दर्शन प्राप्त करने वाले को इन्द्र देव या अन्य देवताओं के दर्शन का फल प्राप्त होता है ।
“मैं इतनी कठिन साधना सिर्फ आपके दर्शन का लाभ पाने के लिए कर रहा था”, उस योगी ने कहा । विक्रमादित्य ने पूछा कि अब तो उन्होंने उनके दर्शन प्राप्त कर लिए, क्या उनसे वह कुछ और चाहते है ।
इस पर योगी ने उनसे उनके गले में पड़ी इन्द्र देव के मूंगे वाली माला मांगी । राजा ने खुशी-खुशी वह माला उन्हें दे दी । योगी ने उनका आभार प्रकट किया ही था कि श्रापित राजकुमार फिर से मानव बन गया । उसने पहले विक्रम के फिर उन योगी के पाँव छूए । राजकुमार को लेकर विक्रम अपने महल आए ।
दूसरे दिन अपने रथ पर उसे बिठा उसके राज्य चल दिए । मगर उसके राज्य में प्रवेश करते ही सैनिकों की टुकड़ी ने उनके रथ को चारों ओर से घेर लिया तथा राज्य में प्रवेश करने का उनका प्रयोजन पूछने लगे । राजकुमार ने अपना परिचय दिया और रास्ता छोड़ने को कहा । उसने जानना चाहा कि उसका रथ रोकने की सैनिकों ने हिम्मत कैसे की ।
उनमे से कुछ सैनिक उसके वफ़ादार थे | उन सैनिकों ने उसे बताया कि उसके माता-पिता को बन्दी बनाकर कारागार में डाल दिया गया है और अब इस राज्य पर किसी और का अधिकार हो चुका है । चूँकि राज्य पर अधिकार करते वक्त राजकुमार का कुछ पता नहीं चला, इसलिए चारों तरफ गुप्तचर उसकी तलाश में फैला दिए गये थे । अब उसके खुद हाज़िर होने से नए शासक का मार्ग और प्रशस्त हो गया है ।
राजा विक्रमादित्य ने उन्हें अपना परिचय नहीं दिया और खुद को राजकुमार के दूत के रुप में पेश करते हुए कहा कि उनका एक संदेश नये शासक तक भेजा जाए । उन्होंने उस टुकड़ी के नायक को कहा कि नये शासक के सामने दो विकल्प हैं- या तो वह असली राजा और रानी को उनका राज्य सौंपकर चला जाए या युद्ध की तैयारी करे ।
उस सेनानायक को बड़ा आश्चर्य हुआ । उसने विक्रम का उपहास करते हुए पूछा कि युद्ध कौन करेगा । क्या वही दोनों युद्ध करेंगे । उसको उपहास करते देख उनका क्रोध साँतवें आसमान पर पहुँच गया । उन्होंने तलवार निकाली और उसका सर धड़ से अलग कर दिया । उस सेना की टुकड़ी में भगदड़ मच गई । तब तक किसी ने दौड़कर नए शासक को खबर की । वह तुरन्त सेना लेकर उनकी ओर दौड़ा ।
विक्रमादित्य इस हमले के लिए तैयार बैठे थे । उन्होंने दोनों बेतालों का स्मरण किया तथा बेतालों ने उनका आदेश पाकर उनके रथ को हवा में उठ लिया । उन्होंने वह तिलक लगाया जिससे अदृश्य हो सकते थे और रथ से कूद गये । अदृश्य रहकर उन्होंने दुश्मनों को गाजर-मूली की तरह काटना शुरु कर दिया ।
जब सैकड़ो सैनिक मारे गए और दुश्मन नज़र नहीं आया तो सैनिकों में भगदड़ मच गई और राजा को वहीं छोड़ अधिकांश सैनिक रणक्षेत्र से भाग खड़े हुए । उन्हें लगा कि कोई पैशाचिक शक्ति उनका मुक़ाबला कर रही है । नए शासक का चेहरा देखने लायक था । वह आश्चर्यचकित और भयभीत था ही, हताश भी दिख रहा था ।
उसे हतप्रभ देख विक्रम ने अपनी तलवार उसकी गर्दन पर रख दी तथा अपने वास्तविक रूप में आ गए । उन्होंने उस शासक से अपना परिचय देते हुए कहा कि या तो वह इसी क्षण यह राज्य छोड़कर भाग जाए या प्राण दण्ड के लिए तैयार रहे । वह शासक विक्रमादित्य की शक्ति से परिचित था तथा उनका शौर्य आँखों से देख चुका था, अत: वह उसी क्षण उस राज्य से भाग गया ।
वास्तविक राजा-रानी को उनका राज्य वापस दिलाकर वे अपने राज्य की ओर चल पड़े ।