स्वर्ण सिंहासन की छब्बीसवीं पुतली मृगनयनी ने राजा भोज को बताया कि राजा विक्रमादित्य न सिर्फ अपना राजकाज पूरे मनोयोग से चलाते थे, बल्कि त्याग, दानवीरता, दया, वीरता इत्यादि अनेक श्रेष्ठ गुणों के वे धनी थे । वे किसी तपस्वी की भाँति अन्न-जल का त्याग कर लम्बे समय तक तपस्या में लीन रहे सकते थे । वे ऐसी कठोर तपस्या भी कर सकते थे कि इंद्र का इन्द्रासन डोल जाए ।
एक बार उनके दरबार में एक साधारण सी वेशभूषा वाले एक युवक को पकड़कर उनके सैनिक लाए । वह रात में बहुत सारे धन के साथ संदिग्ध अवस्था में कहीं जा रहा था । उसकी वेशभूषा से नहीं लग रहा था कि इस धन का वह स्वामी होगा, इसलिए नगर की सुरक्षा में लगे सिपाहियों को लगा शायद वह चोर हो और चोरी के धन के साथ कहीं भागने की फिराक में हो ।
विक्रमादित्य ने जब उस युवक से उसका परिचय पूछा और जानना चाहा कि यह धन उसके पास कैसे आया तो उस युवक ने बताया कि वह नगर की एक धनाठ्य स्त्री के यहाँ नौकर है और सारा धन उसी स्त्री के द्वारा दिया हुआ है । अब राजा विक्रमादित्य की जिज्ञासा बढ़ गई और उन्होंने उससे जानना चाहा कि उस स्त्री ने उसे यह धन क्यों दिया और वह इतना सारा धन लेकर रात्रि में कहाँ जा रहा था ।
इस पर वह युवक बोला कि अमुक जगह रुक कर उस स्त्री ने प्रतीक्षा करने को कहा था । दरअसल उस स्त्री के उससे अनैतिक यौन सम्बन्ध थे और वह उससे, अपने पति की हत्या कने के बाद, आकर मिलनेवाली थी । दोनों सारा धन लेकर कहीं दूर चले जाते और सुख से जीवन व्यतीत करते । विक्रम ने उसकी बातों की सत्यता की जाँच करने के लिए तुरन्त उसके बताये पते पर अपने सिपाहियों को भेजा ।
कुछ देर बाद सिपाहियों ने आकर खबर दी कि उस स्त्री को अपने नौकर के गिरफ्तार होने की सूचना मिल चुकी है । अब वह विलाप करते हुए कह रही है कि लुटेरों ने उनका सारा धन लूट लिया और उसके पति की निर्दयता से हत्या करके भाग गए । उसने पति की चिता सजवाई है और खुद को पतिव्रता साबित करने के लिए सती होने की योजना बना रही है ।
सुबह के समय में ही युवक को साथ लेकर सिपाहियों के साथ विक्रमादित्य उस स्त्री के घर पहुँचे तो दृश्य देखकर सचमुच चौंक गए । स्त्री अपने मृत पति की चिता पर बैठ चुकी थी और चिता को अग्नि दी जाने वाली थी । राजा ने चिता को अग्नि देने वाले को रोक दिया तथा उस स्त्री से चिता से उतरने को कहा ।
उन्होंने सारा धन उसे दिखाया तथा नौकर को आगे लाकर बोले कि सारी सच्चाई का पता उन्हें चल गया है । उन्होंने उस स्त्री को त्रिया चरित्र का त्याग करने को कहा तथा राजदण्ड भुगतने को तैयार हो जाने की आज्ञा दी । विक्रमादित्य की बात सुनकर स्त्री कुछ क्षणों के लिए तो भयभीत हुई, मगर दूसरे ही पल वह बोली कि राजा को उसके चरित्र पर ऊँगली उठाने के पहले अपनी छोटी रानी के चरित्र की जाँच करनी चाहिए ।
इतना कहकर वह बिजली सी फुर्ती से चिता पर कूदी और स्वयं उसमें आग लगाकर सती हो गई । इससे पहले कि कोई कुछ कर पाता वह स्त्री जल कर राख हो गई । राजा विक्रमादित्य, भारी मन से, सिपाहियों सहित अपने महल में वापस लौट गए । उन्हें उस स्त्री के अंतिम शब्द अभी तक जला रहे थे । उन्होंने अपनी छोटी रानी पर निगाह रखनी शुरू कर दी ।
एक रात उन्हें सोता समझकर छोटी रानी उठी और पिछले दरवाजे से महल से बाहर निकल गई । राजा विक्रमादित्य की आँखों में भी नींद नहीं थी किन्तु वे नीन्द का बहाना कर के लेटे हुए थे | छोटी रानी के चुपके से उठ कर महल के बाहर जाने के बाद वे भी उठ कर दबे पाँव उसका पीछा करने लगे । छोटी रानी पैदल चल कर, कुछ दूर पर धूनी रमाए एक साधु के पास गई ।
साधु ने उसे देखा तो उठ गया और उसे लेकर पास बनी एक कुटिया के अन्दर दोनों चले गए । विक्रम ने कुटिया में जो देखा वह उनके लिए असहनीय था । उनकी छोटी रानी निर्वस्त्र होकर उस साधु का आलिंगन करने लगी तथा दोनों पति-पत्नी की तरह बेझिझक हो कर संभोगरत हो गए । राजा विक्रमादित्य क्रोध और दुःख से भर गए उन्होंने सोचा कि छोटी रानी को वे इतना प्यार करते हैं फिर भी वह उनके साथ विश्वासघात कर रही है । उनका क्रोध सीमा पार कर गया और उन्होंने कुटिया में घुसकर उस साधु तथा छोटी रानी को मौत के घाट उतार दिया ।
लेकिन जब वे महल लौटे तो उनकी मानसिक शान्ति समाप्त हो चुकी थी । वे हमेशा बेचैन तथा खिन्न रहने लगे । समस्त सांसारिक सुखों से उनका मन उचाट हो चुका था तथा मन में वैराग्य की भावना ने जन्म ले लिया था । उन्हें लगता था कि उनके प्रजा पालन के धर्म निभाने में अवश्य कोई न्यूनता रह गयी होगी जिसके कारण भगवान ने उन्हें छोटी रानी के विश्वासघात का दृश्य दिखाकर दण्डित किया ।
यही सब सोचकर उनका मन समस्त सांसारिक वस्तुओं से उचाट हो गया | उन्होंने राज-पाट का भार अपने मंत्रियों को सौंप दिया और खुद समुद्र तट पर तपस्या करने के लिए चल पड़े । समुद्र तट पर पहुँचकर उन्होंने सबसे पहले एक पैर पर खड़े होकर समुद्र देवता का आवाहन किया ।
उनकी साधना से प्रसन्न होकर जब समुद्र देवता ने उन्हें दर्शन दिए तो उन्होंने समुद्र देवता से एक छोटी सी इच्छा पूरी करने की विनती की । उन्होंने कहा कि उनके तट पर वे एक कुटिया बनाकर अखण्ड साधना करना चाहते हैं और अपनी साधना निर्विघ्न पूरा करने का उनसे आशीर्वाद चाहते हैं ।
समुद्र देवता ने मुस्कुरा कर उन्हें अपना आशीर्वाद दिया तथा उन्हें अपना एक शंख प्रदान किया । समुद्र देवता ने कहा कि जब भी कोई दैवीय विपत्ति आएगी, तुम इस शन्ख को बजाना, इस शंख की ध्वनि से वह दैवीय विपत्ति दूर हो जायेगी । समुद्र देव से उपहार लेकर विक्रमादित्य ने उन्हें धन्यवाद दिया तथा प्रणाम कर समुद्र तट पर लौट आए ।
उन्होंने समुद्र तट पर अपने लिए एक कुटिया बनाई और साधना करने लगे । उन्होंने लम्बे समय तक इतनी कठिन तपस्या की कि देव लोक में हड़कम्प मच गया । सारे देवता बात करने लगे कि अगर विक्रमादित्य इसी प्रकार साधना में लीन रहे तो इन्द्र के सिंहासन पर अधिकार कर लेंगे । इन्द्र को अपना सिंहासन खतरे में दिखाई देने लगा ।
उन्होंने अपने सहयोगियों को साधना स्थल के पास इतनी अधिक वृष्टि करने का आदेश दिया कि पूरा स्थान जलमग्न हो जाए और विक्रम कुटिया सहित पानी में बह जाएँ । बस आदेश की देर थी कि अति भयानक वृष्टि शुरू हो गई । कुछ ही घण्टों में सचमुच सारा स्थान जलमग्न हो जाता और विक्रम कुटिया सहित जल में समा गए होते ।
किन्तु समुद्र देव ने उन्हें आशीर्वाद जो दिया था । उस वर्षा का सारा पानी समुद्र देव ने पी लिया तथा साधना स्थल पहले की भाँति सूखा ही रहा । इन्द्र ने जब यह अद्भुत चमत्कार देखा तो उनकी चिन्ता और बढ़ गई. उन्होंने अपने सेवकों को बुलाकर आँधी-तूफान का सहारा लेने का आदेश दिया । इंद्र के आदेश से इतने भयानक वेग से आँधी चली कि विक्रमादित्य की कुटिया तिनका-तिनका होकर बिखर गई ।
सब कुछ हवा में रुई के टुकड़ों की भाँति उड़ने लगा । बड़े-बड़े वृक्ष उखड़कर गिरने लगे । विक्रम को भी अपने पाँव उखड़ते हुए मालूम पड़े । उन्हें लगा कि आँधी उन्हें उड़ाकर साधना स्थल से बहुत दूर फेंक देगी ।
विक्रम को समुद्र देव द्वारा दिया गया शंख याद आया और उन्होंने शंख को ज़ोर से फूंका । शंख से बड़ी तीव्र ध्वनि निकली । शंख ध्वनि के साथ आँधी-तूफान का पता ही नहीं चला कि कब वे समाप्त हो गए । वहाँ ऐसी शान्ति छा गई मानो कभी कोई आँधी आई ही न हो । अब तो इन्द्र देव की चिन्ता और अधिक बढ़ गई ।
उन्हें सूझ ही नहीं रहा था कि विक्रम की साधना कैसे भंग की जाए । अब विक्रम की साधना को केवल अप्सराओं का आकर्षण ही भंग कर सकता था । उन्होंने तिलोत्तमा नामक अप्सरा को बुलाया तथा उसे जाकर विक्रमादित्य की साधना भंग करने को कहा । तिलोत्तमा अनुपम सुन्दरी थी और उसका रूप देखकर कोई भी कामदेव के वाणों से घायल हुए बिना नहीं रह सकता था ।
तिलोत्तमा साधना स्थल पर उतरी तथा मनमोहक गायन-वादन और नृत्य द्वारा विक्रम की साधना में विघ्न डालने की चेष्टा करने लगी । मगर वह कामुकी अप्सरा भला वैरागी विक्रम का क्या बिगाड़ पाती । विक्रमादित्य ने उस दिव्य शंख को एक फूँक मारी और तिलोत्तमा को ऐसा लगा जैसे किसी ने उसे अग्नि की ज्वाला में ला पटका हो ।
भयानक ताप से वह उद्विग्न हो उठी तथा वहाँ से उसी क्षण अदृश्य हो गई । देवराज इन्द्र की जब यह युक्ति भी कारगर नहीं हुई तो उन का आत्मविश्वास पूरी तरह डोल गया । उन्होंने खुद ब्राह्मण का वेश धरा और साधना स्थल आए । वे जानते थे कि विक्रमादित्य याचको को कभी निराश नहीं करते हैं तथा सामर्थ्यानुसार दान देते हैं । जब इन्द्र विक्रम के पास पहुँचे तो विक्रम ने उनके आने का प्रयोजन पूछा ।
ब्राह्मण वेश में देवराज इन्द्र ने विक्रमादित्य से भिक्षा देने को कहा तथा भिक्षा के रूप में उनकी कठिन साधना का सारा फल मांग लिया । विक्रमादित्य ने अपनी साधना का सारा फल उन्हें सहर्ष दान कर दिया ।
साधना फल का दान क्या था इन्द्र को अभयदान मिल गया । उन्होंने प्रकट होकर विक्रम की महानता का गुणगान किया और आशीर्वाद दिया । उन्होंने कहा कि विक्रम के राज्य में अतिवृष्टि और अनावृष्टि नहीं होगी । कभी अकाल या सूखा नहीं पड़ेगा सारी फसलें समय पर और भरपूर होंगी । इतना कहकर इन्द्र अन्तर्धान हो गए ।