राजा भोज को खुदाई में जो स्वर्ण सिंहासन मिला था उसकी चौदहवीं पुतली का नाम सुनयना था | सुनयना ने अपनी मिश्री घुली हुई, संगीतमय वाणी से राजा विक्रमादित्य के बारे में बताना शुरू किया | राजा विक्रमादित्य सारे नृपोचित गुणों के सागर थे । उन जैसा वीर, न्यायप्रिय, दानी और त्यागी तथा धर्मात्मा राजा उस समय धरती पर और कोई न था ।
इन नृपोचित गुणों के अलावा उनमें एक और गुण था । वे हिंसक पशुओं के बहुत बड़े शिकारी थे तथा निहत्थे भी हिंसक से हिंसक जानवरों का वध कर डालते थे । शत्रुओं के प्रति वीरता दिखाने के लिए यह आवश्यक भी था | एक बार जब उन्हें पता चला कि एक विशालकाय हिंसक सिंह बहुत उत्पात मचा रहा है और कई लोगों का भक्षण करते हुए आदमखोर हो चुका है, तो उन्होंने उस सिंह के शिकार की योजना बनाई और आखेट को निकल पड़े ।
जंगल में घुसते ही उन्हें सिंह दिखाई पड़ गया | उन्होंने सिंह के पीछे अपना घोड़ा डाल दिया । वह सिंह कुछ दूर पर एक घनी झाड़ी में घुस गया । राजा घोड़े से कूदे और उस सिंह की खोज करने लगे । अचानक सिंह उन पर झपटा, लेकिन उन्होंने फुर्ती से पैंतरा बदलते हुए उस पर तलवार का वार किया । झाड़ी की वजह से वार पूरे ज़ोर से नहीं हो सका, मगर सिंह घायल होकर दहाड़ा और पीछे हटकर घने वन में गायब हो गया ।
विक्रमादित्य की एक विशेषता थी कि, जब तक कोई अत्यावश्यक काम न पड़े, वे घायल शत्रु को कभी स्वतन्त्र नहीं छोड़ते थे | सिंह के घने वन में गायब हो जाने के बाद वे सिंह के पीछे इतनी तेज़ी से भागे कि अपने साथियों से काफी दूर निकल गए । सिंह फिर झाड़ियों में छुप गया । राजा ने झाड़ियों में उसकी खोज शुरु की । अचानक उस शेर ने राजा के घोड़े पर हमला कर दिया और उसे गहरे घाव दे दिए ।
घोड़ा भय और दर्द से हिनहिनाया, तो राजा पलटे । घोड़े के घावों से खून का फव्वारा फूट पड़ । राजा ने दूसरे हमले से घोड़े को तो बचा लिया, मगर उसके बहते खून ने उन्हें चिन्तित कर दिया था ।
वे सिंह से उसकी रक्षा के लिए उसे किसी सुरक्षित जगह ले जाना चाहते थे, इसलिए उसे लेकर आगे बढ़े । उन्हें उस घने वन में दिशा का बिल्कुल ज्ञान नहीं रहा । एक जगह उन्होंने एक छोटी सी नदी बहती देखी । वे घोड़े को लेकर नदी तक आए ही थे कि घोड़े ने रक्त अधिक बह जाने के कारण दम तोड़ दिया ।
उसे प्राण त्यागते हुए देख कर राजा दुख से भर उठे । संध्या गहराने लगी थी, इसलिए उन्होंने आगे न बढ़ना ही बुद्धिमानी समझा । वे एक वृक्ष से टिककर अपनी थकान उतारने लगे । कुछ ही क्षणों बाद उनका ध्यान नदी की धारा में हो रहे कोलाहल की ओर गया | उन्होंने देखा कि दो व्यक्ति एक तैरते हुए शव को दोनों ओर से पकड़े हुए आपस में झगड़ रहे हैं ।
लड़ते-झगड़ते वे दोनों शव को किनारे लाए । उन्होंने देखा कि उनमें से एक मानव मुण्डों की माला पहने बीभत्स दिखने वाला कापालिक है तथा दूसरा एक बेताल है जिसकी पीठ का ऊपरी हिस्सा नदी के ऊपर उड़ता-सा दिख रहा था । वे दोनों उस शव पर अपना-अपना अधिकार जता रहे थे । कापालिक का कहना था कि यह शव उसने तांत्रिक साधना के लिए पकड़ा है और बेताल उस शव को खाकर अपनी भूख मिटाना चाहता था ।
विक्रमादित्य ने देखा कि दोनों में से कोई भी अपना दावा छोड़ने को तैयार नहीं हो रहा था । महान सम्राट विक्रमादित्य को अपने सामने पाकर उन्होंने उन पर न्याय का भार सौंपना चाहा तो विक्रमादित्य ने अपनी शर्त रखी । पहली यह कि उनका फैसला दोनों को मान्य होगा और दूसरी यह कि उन्हें वे न्याय के लिए शुल्क अदा करेंगे ।
कापालिक ने उन्हें शुल्क के रूप में एक बटुआ दिया जो चमत्कारी था तथा मांगने पर कुछ भी दे सकता था । बेताल ने उन्हें मोहिनी काष्ठ का टुकड़ा दिया जिसका चंदन घिस कर लगाकर अदृश्य हुआ जा सकता था । उन्होंने बेताल को भूख मिटाने के लिए अपना मृत घोड़ा दे दिया तथा कापालिक को तंत्र साधना के लिए शव । इस न्याय से दोनों बहुत खुश हुए तथा सन्तुष्ट होकर चले गए ।
अब तक रात घिर आई थी और विक्रमादित्य को ज़ोरों की भूख लगी थी, इसलिए उन्होंने बटुए से भोजन मांगा । तरह-तरह के व्यंजन उपस्थित हुए और राजा ने अपनी भूख मिटाई । फिर उन्होंने मोहिनी काष्ठ के टुकड़े को घिसकर उसका चंदन लगा लिया और अदृश्य हो गए । अब उन्हें किसी भी हिंसक वन्य जन्तु से खतरा नहीं रहा ।
अगली सुबह उन्होंने काली द्वारा प्रदत्त दोनों बेतालों का स्मरण किया तथा अपने राज्य की सीमा पर पहुँच गए । उन्हें महल के रास्ते में एक भिखारी मिला, जो भूखा था । राजा ने तुरन्त कापालिक वाला बटुआ उसे दे दिया ताकि ज़िन्दगी भर उसे भोजन की कमी न हो ।