राजा भोज को अब तक सिंघासन बत्तीसी से निकलने वाली पुतलियों द्वारा सुनायी जाने वाली कहानियों को सुनने में आनंद आने लगा था | उस स्वर्ण सिंहासन पर आरूढ़ होने के क्रम छठे दिन भी उनका रास्ता, छठी पुतली रविभामा ने रोका | उसने जब कथा सुनाना प्रारंभ किया तो राजा भोज समेत समस्त दरबारी आनंद पूर्वक बैठ गए और बड़े चाव से उसकी कथा को सुनने लगे |
रविभामा ने जो बताया उसके अनुसार एक दिन सम्राट विक्रमादित्य नदी के तट पर बने हुए अपने महल से प्राकृतिक सौन्दर्य को निहार रहे थे । बरसात का महीना था, इसलिए नदी उफन रही थी और अत्यन्त वेग से बह रही थी । इतने में ही उनकी नज़र एक पुरुष, एक स्री और एक बच्चे पर पड़ी । उनके वस्त्र तार-तार थे और चेहरे मलिन पड़ गए थे । राजा देखते ही समझ गए वे बहुत ही निर्धन हैं ।
सहसा वे तीनों उस नदी में छलांग लगा गए । अगले ही पल वे प्राणों की रक्षा के लिए चिल्लाने लगे । विक्रम ने बिना एक पल गँवाए अपने महल से नीचे, उनकी रक्षा के लिए छलांग लगा दी । लेकिन अकेले तीनों के प्राणों को बचाना सम्भव नहीं था, इसलिए उन्होंने अपने सेवक दोनों बेतालों का स्मरण किया । दोनों बेतालों ने स्त्री और बच्चे को तथा विक्रम ने उस पुरुष को डूबने से बचा लिया ।
तट पर पहुँचकर उन्होंने उस दाम्पत्ति से जानना चाहा वे आत्महत्या क्यों कर रहे थे । पुरुष ने बताया कि “वह उन्हीं के राज्य का एक अत्यन्त निर्धन ब्राह्मण है जो अपनी दरिद्रता से तंग आकर जान देना चाहता है । वह अपनी पत्नी तथा बच्चे को भूख से मरता हुआ नहीं देख सकता और आत्महत्या के सिवा उसे अपनी समस्या का कोई उपाय नहीं दिखायी देता ।
इस राज्य के लोग इतने आत्मनिर्भर हैं कि सारा काम खुद ही करते हैं, इसलिए उसे कोई रोज़गार भी नहीं देता” । विक्रम ने ब्राह्मण से कहा कि वह राज्य के अतिथिशाला में जब तक चाहे अपने परिवार के साथ रह सकता है तथा उसकी हर आवश्यकता पूरी की जाएगी । ब्राह्मण ने कहा कि उसे रहने में तो कोई परेशानी नहीं है, लेकिन उसे डर है कि कुछ समय बाद राजकर्मचारियों के आतिथ्य में कमी आ जाएगी और उसे अपमानित होकर जाना पड़ेगा ।
विक्रम ने उसे विश्वास दिलाया कि ऐसी कोई बात नहीं होगी और उसे भगवान समझकर उसके साथ हमेशा अच्छा बर्ताव किया जाएगा । विक्रम के इस तरह विश्वास दिलाने पर ब्राह्मण अपने परिवार सहित अतिथिशाला में आकर रहने लगा ।
उसकी देख-रेख के लिए नौकर-चाकर नियुक्त कर दिए गए । वे मौज से रहते, अपनी मर्ज़ी से खाते-पीते और आरामदेह पलंग पर सोते । किसी चीज़ की उन्हें कमी नहीं थी । लेकिन वे अपनी सफ़ाई पर बिल्कुल ध्यान नहीं देते । जो कपड़े पहनते थे उन्हें कई दिनों तक नहीं बदलते । जहाँ सोते वहीं थूकते और कभी-कभी मल-मूत्र त्याग भी कर देते । चारों तरफ गंदगी-ही गंदगी फैल गई ।
दुर्गन्ध के मारे उनका स्थान एक पल भी ठहरने लायक नहीं रहा । नौकर-चाकर कुछ दिनों तक तो धीरज से सब कुछ सहते रहे लेकिन आखिर कब तक ऐसा चलता? राजा के कोप की भी उन्होंने पहवाह नहीं की और भाग खड़े हुए । राजा ने कई अन्य नौकर भेजे, पर सब के सब एक ही जैसे निकले । सबके लिए यह काम असंभव साबित हुआ ।
तब विक्रम ने खुद ही उनकी सेवा का बीड़ा उठाया । उठते-बैठते, सोते-जगते वे ब्राह्मण परिवार की हर इच्छा पूरी करते । दुर्गन्ध के मारे माथा फटा जाता, फिर भी कभी अपशब्द का अनुचित व्यवहार नहीं करते । उनके कहने पर विक्रम उनके पाँव भी दबाते । ब्राह्मण परिवार ने हर सम्भव प्रयत्न किया कि विक्रम उनके आतित्थ से तंग आकर अतिथि-सत्कार भूल जाएँ और अभद्रता से पेश आएँ, मगर उनकी कोशिश असफल रही ।
बड़े सब्र से विक्रम उनकी सेवा में लगे रहे । कभी उन्हें शिकायत का कोई मौका नहीं दिया । एक दिन ब्राह्मण ने जैसे उनकी परीक्षा लेने की ठान ली । उसने राजा को कहा कि वे उसके शरीर पर लगी विष्ठा साफ करें तथा उसे अच्छी तरह नहला-धोकर साफ़ वस्त्र पहनाएँ ।
विक्रम तुरन्त उसकी आज्ञा मानकर अपने हाथों से विष्ठा साफ करने को बढ़े । अचानक जैसे चमत्कार हुआ । ब्राह्मण के सारे गंदे वस्त्र गायब हो गए । उसके शरीर पर देवताओं द्वारा पहने जाने वाले वस्त्र आ गए । उसका मुख मण्डल तेज से प्रदीप्त हो उठा । सारे शरीर से सुगन्ध निकलने लगी । विक्रम आश्चर्य चकित थे । तभी वह ब्राह्मण बोला कि दरअसल वह वरुण देव हैं ।
वरुण देव ने उनकी परीक्षा लेने के लिए यह रुप धरा था । विक्रम के अतिथि-सत्कार की प्रशंसा सुनकर वे सपरिवार यहाँ आये थे । जैसा उन्होंने सुना था वैसा ही उन्होंने पाया, इसलिए विक्रम को उन्होंने वरदान दिया कि उनके राज्य में कभी भी अनावृष्टि नहीं होगी तथा वहाँ की ज़मीन से तीन-तीन फसलें निकलेंगी । विक्रम को वरदान देकर वे सपरिवार अंतर्ध्यान हो गए ।