विक्रमादित्य के स्वर्ण सिंहासन को प्राप्त करने के बाद, पांचवें दिन राजा भोज का रास्ता रोकने वाली लीलावती थी, जो उस स्वर्ण सिंहासन की पांचवीं पुतली थी | उसने भी राजा भोज को एक कथा सुनायी जिसमे सम्राट विक्रमादित्य की दानवीरता स्पष्ट झलकती थी | पांचवीं पुतली लीलावती ने बताना प्रारंभ किया |
‘हमेशा की तरह एक दिन विक्रमादित्य अपने दरबार में राजकाज निबटा ही रहे थे कि तभी एक ब्राह्मण दरबार में आकर उनसे मिला । उसने उन्हें बताया कि उनके राज्य की जनता खुशहाल हो जाएगी और उनकी भी कीर्ति चारों तरफ फैल जाएगी, अगर वे तुला लग्न में अपने लिए कोई महल बनवाएँ । विक्रम ने पूछा “ब्राहमण देवता, आपका परिचय”?
उत्तर में उसने अपने आप को एक विद्वान ज्योतिषी बताया और कहा कि उसने गणना करके निकाला है कि सम्राट विक्रम यदि तुला लग्न में अपने लिए कोई महल बनवाते है तो उनकी कीर्ति-पताका, विश्व में चारो तरफ फैलेगी | विक्रम को उन ब्राहमण देवता की बात जँच गई और उन्होंने एक बड़े ही भव्य महल का निर्माण करवाया ।
दुनिया भर से आये शिल्पियों ने उस महल को सम्राट के निर्देश पर सोने-चाँदी, हीरे-जवाहरात और मणि-मोतियों से पूरी तरह सजा दिया । महल जब बनकर तैयार हुआ तो उसकी भव्यता देखते ही बनती थी । विक्रम अपने राजपुरोहित, मन्त्रियों तथा कुटुम्बियों के साथ उसे देखने गए । उस समय उनके साथ वह ब्राह्मण भी था ।
उस महल की भव्यता देख कर विक्रम तो जो मंत्रमुग्ध हुए ही, वह ब्राह्मण भी मुँह खोले देखता ही रह गया । बिना सोचे ही उसके मुँह से निकला “कदाचित, इस महल का स्वामी मैं होता !” विक्रमादित्य ने उसकी इच्छा जानते ही झट वह भव्य महल उसे दान में दे दिया ।
प्रसन्नता के मारे ब्राह्मण के तो मानो पाँव ही ज़मीन पर नहीं पड़ रहे थे । वह भागता हुआ अपनी पत्नी को यह समाचार सुनाने पहुँचा । इधर ब्राह्मणी उसे खाली हाथ आते देख कुछ बोलती उससे पहले ही उसने उसे हीरे-जवाहरात और मणि-मुक्ताओं से जड़े हुए महल को दान में प्राप्त करने की बात बता दी । ब्राह्मण की पत्नी की तो खुशी की सीमा ही न रही ।
उसे एकबारगी तो लगा मानो उसका पति पागल हो गया और यों ही अनाप-शनाप बक रहा हों, मगर उसके बार-बार कहने पर वह उसके साथ महल देखने के लिए चलने को तैयार हो गई । महल की शोभा देखकर उसकी आँखे खुली रह गईं । महक का कोना-कोना देखते-देखते कब शाम हो गई उन्हें पता ही नहीं चला । थके-माँदे वे एक शयन-कक्ष में जाकर निढाल हो गए । अर्ध रात्रि में एक रहस्यमयी आवाज से उनकी आँखे खुल गई ।
सारे महल में एक तीव्र सुगंध फैली हुई थी और सारा महल प्रकाश मान था । उन्होंने ध्यान से सुना वह ध्वनि उन्हें दैवीय लगी | वे अत्यंत चकित थे | तभी उन्हें अपने सामने, समस्त श्रृंगार के साथ एक देवी दिखायी दी | देवी माँ ने उनसे कहा कि वह माँ लक्ष्मी की सहायिका हैं और उनके भाग्य से वह यहाँ आई है और उनकी कोई भी इच्छा पूरी करने को तैयार है ।
ब्राह्मण दम्पति का डर के मारे बुरा हाल हो गया । ब्राह्मणी तो बेहोश ही हो गई । देवी माँ ने तीन बार अपनी बात दुहराई । लेकिन ब्राह्मण ने कुछ नहीं मांगा तो वह क्रुद्ध होकर चली गई ।
उनके जाते ही प्रकाश तथा सुगंध, दोनों महल से गायब हो गए । काफी देर बाद ब्राह्मणी को जब होश आया तो उसने अपने पति से कहा “यह महल ज़रुर भुतहा है, इसलिए हमें दान में मिला है । इससे अच्छा तो हमारा टूटा-फूटा घर है जहाँ चैन की नींद तो सो सकते हैं ।
ब्राह्मण को पत्नी की बात सही लगी । सहमे-सहमे वे दोनों बाकी रात काटकर, सुबह तड़के ही उन्होंने अपना सामान समेटा और पुरानी कुटिया को लौट आए । ब्राह्मण अपने घर से सीधा राजभवन आया और विक्रमादित्य से बार-बार अनुरोध करने लगा कि वे अपना महल वापस ले लें । पर दान दी गई वस्तु को सम्राट कैसे ग्रहण कर लेते । काफी सोचने के बाद उन्होंने महल का उचित मूल्य लगाकर उसे ख़रीद लिया । ब्राह्मण खुशी-खुशी अपने घर लौट गया ।
ब्राह्मण से महल खरीदने के बाद सम्राट विक्रमादित्य उसमें आकर रहने लगे । वहीं अब दरबार भी लगता था । एक दिन वे सोए हुए थे तो माँ लक्ष्मी की सहायिका देवी माँ फिर आई । जब देवी माँ ने उनसे कुछ भी मांगने को कहा तो वे बोले “आपकी कृपा से मेरे पास सब कुछ है । फिर भी आप अगर देना ही चाहती हैं तो मेरे पूरे राज्य में धन की वर्षा कर दें और मेरी प्रजा को किसी चीज़ की कभी कोई कमी न रहने दें” ।
सुबह उठकर उन्हें पता चला कि सारे राज्य में धन वर्षा हुई है और लोग वर्षा वाला धन अपने सम्राट यानी विक्रमादित्य को सौंप देना चाहते हैं । विक्रमादित्य ने आदेश किया कि कोई भी किसी अन्य के हिस्से का धना नहीं समेटेगा और हर कोई अपने हिस्से का धन अपनी सम्पत्ति मानेगा । जनता जय-जय कार कर उठी ।