विक्रमादित्य के स्वर्ण सिंहासन ने राजा भोज का कौतूहल बढ़ा दिया था | अब वे जल्दी से जल्दी उस पर आरूढ़ होना चाह रहे थे | तीसरे दिन भी उनका रास्ता, उस स्वर्ण सिंहासन की तीसरी पुतली चन्द्रकला ने रोका | उसने राजा भोज को सम्राट विक्रमादित्य की एक कथा सुनाई |
एक बार पुरुषार्थ और भाग्य में इस बात पर बहस हो गयी कि कौन महान है । पुरुषार्थ कहता कि बिना परिश्रम के कुछ भी सम्भव नहीं है जबकि भाग्य का मानना था कि जिसको जो भी मिलता है भाग्य से ही मिलता है, उसमे परिश्रम की कोई भूमिका नहीं होती है । उनके विवाद ने ऐसा उग्र रुप धारण कर लिया कि अंततः इसके समाधान के लिए उन दोनों को, देवताओं के राजा देवराज इन्द्र के पास जाना पड़ा ।
विवाद बहुत ही जटिल था इसलिए इन्द्र भी चकरा गए । इंद्र जानते थे कि पुरुषार्थ को वे लोग नहीं मानते जिन्हें भाग्य से ही सब कुछ प्राप्त हो चुका था । दूसरी तरफ अगर वो भाग्य को महान बताते तो पुरुषार्थ उनका उदाहरण प्रस्तुत करता जिन्होंने परिश्रम से ही सब कुछ अर्जित किया था ।
इन सब तर्कों से इंद्र असमंजस में पड़ गए और किसी निष्कर्ष पर नहीं पहुँच सके । काफी सोच-विचार करने के बाद उन्हें धरती पर रह रहे राजा विक्रमादित्य की याद आई ।
देवराज को कि लगा अगर पूरे विश्व में, इस समय, इस झगड़े का समाधान कोई कर सकता है तो वो विक्रमादित्य ही कर सकते हैं | उन्होंने पुरुषार्थ और भाग्य को, अपने विवाद के समाधान के लिए विक्रमादित्य के पास जाने के लिए कहा । पुरुषार्थ और भाग्य मानव भेष में विक्रम के पास चल पड़े । विक्रम के पास आकर उन्होंने अपने झगड़े की बात रखी । विक्रमादित्य को भी तुरन्त कोई समाधान नहीं सूझा ।
उन्होंने दोनों महानुभावों से छ: महीने का समय माँगा और उनसे छ: महीने के बाद आने को कहा । जब वे चले गए तो विक्रमादित्य ने काफी सोचा । किसी निष्कर्ष पर नहीं पहुँच सके तो इसके समाधान के लिए उन्होंने सामान्य जनता के बीच भेष बदलकर घूमना शुरु किया । काफी घूमने के बाद भी जब कोई संतोषजनक हल नहीं खोज पाए तो उन्होंने दूसरे राज्यों में भी घूमने का निर्णय किया ।
काफी भटकने के बाद भी जब कोई समाधान नहीं निकला तो उन्होंने एक व्यापारी के यहाँ नौकरी कर ली । व्यापारी ने उन्हें नौकरी उनके यह कहने पर दी कि जो काम दूसरे नहीं कर सकते हैं, उसको वे कर देंगे । कुछ दिनों बाद वह व्यापारी जहाज पर अपना माल लादकर दूसरे देशों में व्यापार करने के लिए समुद्री रास्ते से चल पड़ा ।
व्यापारी के अन्य नौकरों के अलावा उसके साथ विक्रमादित्य भी थे । जहाज अभी कुछ ही दूर गया होगा कि अचानक एक भयानक तूफान आ गया । जहाज पर सवार लोगों में भय और हताशा की लहर दौड़ गई । किसी तरह जहाज एक टापू के पास आया और वहाँ लंगर डाल दिया गया ।
जब समंदर में उठा भयानक तूफान समाप्त हुआ तो लंगर उठाया जाने लगा । मगर लंगर किसी के उठाए न उठा । अब व्यापारी को याद आया कि विक्रमादित्य ने यह कहकर नौकरी ली थी कि जो कार्य कोई न कर सकेगा उसको वे कर देंगे । उस व्यापारी ने विक्रम से उस लंगर को उठाने को कहा । लंगर उनसे आसानी से उठ गया । लंगर उठते ही जहाज ऐसी तीव्र गति से आगे बढ़ गया कि उस टापू पर ही विक्रम छूट गए ।
उनकी समझ में ही नहीं आया कि अब क्या किया जाए । थोड़ा जंगली कंद-मूल खा पी कर वह द्वीप पर घूमने-फिरने चल पड़े । वह द्वीप काफी बड़ा था | उस द्वीप के बीचो-बीच एक भव्य नगर था |
नगर के मुख्य द्वार पर एक पट्टिका टंगी थी जिस पर लिखा था कि वहाँ की राजकुमारी का विवाह धरती के सम्राट विक्रमादित्य से होगा । वह पढ़ कर विक्रम के मन महान कौतूहल हुआ | उन्होंने नगर में प्रवेश किया | नगर और नगर वासियों को देखते हुए वे चलते-चलते महल तक पहुँचे । राजकुमारी उनका परिचय पाकर अत्यंत प्रसन्न हुई और उन दोनों का विवाह हो गया ।
कुछ समय बाद विक्रमादित्य को अपने राज्य और प्रजा की याद आई | वे कुछ सेवकों को साथ ले कर अपने राज्य की ओर चल पड़े । रास्ते में विश्राम के लिए जहाँ उन्होंने अपना डेरा डाला वहीं एक सन्यासी से उनकी भेंट हुई । सम्राट विक्रम के विनम्र स्वभाव और सेवा भाव से सन्यासी प्रसन्न हुए | उन्होंने उन्हें एक माला और एक छड़ी दी । उस माला की दो विशेषताएँ थीं |
पहली विशेषता यह थी कि उसे पहनने वाला व्यक्ति अदृश्य होकर सब कुछ देख सकता था लेकिन उसे कोई नहीं देख सकता था | दूसरी विशेषता यह थी कि गले में माला रहने पर उसको पहनने वाले व्यक्ति का हर कार्य सिद्ध हो जाता । छड़ी की विशेषता यह थी कि उससे उसका मालिक सोने के पूर्व कोई भी आभूषण मांग सकता था ।
सन्यासी को धन्यवाद देकर विक्रम अपने राज्य लौटे । अपने राज्य के एक विशाल उद्यान में ठहरकर संग आए सेवकों को उन्होंने वापस उसी द्वीप के राज्य में भेज दिया तथा अपनी नवयौवना पत्नी को संदेश भिजवाया कि शीघ्र ही वे उसे अपने राज्य बुलवा लेंगे । उद्यान में ही उनकी भेंट एक ब्राह्मण और एक भाट से हुई ।
वे दोनों काफी समय से उस उद्यान की देखभाल कर रहे थे । उन्हें आशा थी कि उनके राजा कभी उनकी भी सुध लेंगे तथा उनकी विपन्नता को दूर करेंगे । विक्रम को उनकी स्थित पर दया आयी । उन्होंने सन्यासी वाली माला भाट को तथा छड़ी ब्राह्मण को दे दी । ऐसी अमूल्य चीजें पाकर दोनों धन्य हुए और विक्रम का गुणगान करते हुए चले गए ।
विक्रम राज दरबार में पहुँचकर अपने कार्य में समर्पण भाव से लग गए । कुछ दिनों बाद छ: महीने की अवधि पूरी हुई तो पुरुषार्थ तथा भाग्य अपने निर्णय के लिए उनके पास आए । विक्रम ने उन्हें बताया कि वे दोनों एक दूसरे से कम या अधिक महान नहीं बल्कि वे एक-दूसरे के पूरक हैं । उन्हें छड़ी और माला का उदाहरण याद आया ।
उन्होंने उस उदहारण को उनको समझाते हुए कहा कि जो छड़ी और माला उन्हें भाग्य से सन्यासी से प्राप्त हुई थीं उन्हें ब्राह्मण और भाट ने अपने पुरुषार्थ से प्राप्त किया । पुरुषार्थ और भाग्य पूरी तरह संतुष्ट होकर वहाँ से चले गए । उन्होंने सम्राट विक्रम के तर्कबुद्धि की मन ही मन प्रशंसा की |