पाँचों पांडव जब अपनी माँ के साथ वारणावत पहुंचे तो पाण्डवों के शुभागमन का समाचार सुनकर वारणावत के नागरिक शास्त्र-विधि के अनुसार मंगलमयी वस्तुओं की भेंट लेकर प्रसन्नता और उत्साह के साथ सवारियों पर चढ़कर उनकी अगवानी के लिये, उनके आगमन स्थल पर आये । उनके जय- जयकार और मंगल ध्वनि से समस्त दिशाएँ गूंज उठीं । पुरवासियों के बीच में युधिष्ठिर ऐसे जान पड़ते थे मानो स्वयं देवराज इन्द्र हो ।
स्वागत करने वालों का अभिनन्दन करके माता कुन्ती के साथ पाण्डवों ने वारणावत नगर में प्रवेश किया । उन्होंने पहले वेदपाठी, कर्मकाण्डी ब्राह्मणों से मिलकर फिर क्रमश: नगर के अधिकारी योद्धा, वैश्य और शूद्रों से भेंट की । सभी ने उन देवताओं के समान पाण्डवों का स्वागत किया |
दुर्योधन के मंत्री पुरोचन ने उनके लिये नियत वास स्थान पर आदर के साथ उन्हें ठहराया और भोजन, पलंग, आसन आदि सामग्रियों से उन्हें सन्तुष्ट करने की पूरी चेष्टा की । पाण्डव लोग सुख पूर्वक वहाँ रहने लगे । उनके निवास स्थान पर पुरवासियों की भीड़ प्रायः लगी ही रहती थी ।
इसी तरह से दस दिन बीत जाने पर पुरोचन ने पाण्डवों से उस सुन्दर नाम वाले किन्तु अमंगल भवन की चर्चा की । उसकी प्रेरणा से पाण्डव अपनी गृह सामग्रियों के साथ वहाँ जा कर उस भव्य महल (लाक्षाभवन) में रहने लगे ।
धर्मराज युधिष्ठिर ने उस घर को चारों ओर से देखकर भीमसेन से कहा, “भाई भीम ! देखते हो न? इस घर का एक-एक कोना आग भड़काने वाली सामग्रियों से ही बना है | घी, लाख और चर्बी की मिश्रित गन्ध से यही प्रमाणित होता है ।
शत्रु के कारीगरों ने बड़ी चतुराई से सन, सर्जरस (राल), मूंज, घास, बाँस आदि को घृत से तर करके इसका निर्माण किया है । निश्चय ही पुरोचन का विचार है कि जब हम लोग इसमें बेखटके रहने लगें तब वह आग लगाकर इसे जला दे । विदुर ने पहले ही यह बात ताड़ ली थी । तभी तो उन्होंने हमें स्नेहवश इसकी सूचना दे दी” । भीमसेन ने कहा, “भाई जी ! यदि ऐसी बात है तो हम लोग अपने पहले स्थान पर ही क्यों न लौट चलें” ?
युधिष्ठिर ने कहा, “भैया भीम ! हमें बड़ी सावधानी के साथ अपनी जानकारी छिपाकर यहीं रहना चाहिये | हमारे चेहरे-मोहरे या रंग-ढंग से किसी को शंका सन्देह न हो । हम लोग निकलने की घात ढूँढ़ लें । यदि हमारी भाव-भंगिमा से पुरोचन को पता चल गया तो वह बलपूर्वक भी हमें जला सकता है। उसे लोकनिन्दा अथवा अधर्म की परवाह नहीं रही अब ।
यदि हम मर ही गये तो फिर पितामह भीष्म तथा दूसरे लोग कौरवो पर किसलिये रुष्ट होंगे या उन्हें रुष्ट करेंगे? उस समय का क्रोध भी तो व्यर्थ ही जायगा । यदि हम डरकर यहाँ से भागेंगे तो दुर्योधन अपने गुप्तचरों से पता लगाकर हमें मरवा डालेगा । इस समय वह अधिकारी है । उसके पास सहायक और खजाना है । हमारे पास तीनों ही बातें नहीं हैं ।
आओ हम लोग यहाँ रह कर वन में खूब धूमें-फिरें, रास्तों का पता लगा कर रखें । सुरक्षित सुरंग बन जाने पर हम यहाँ से भाग निकलेंगे और किसी को कानोंकान इस बात की खबर भी नहीं हो पाएगी कि पाण्डव जीवित बच गये हैं” । भीमसेन ने बड़े भाई की बात मान ली और शांत हो गए | उधर एक सुरंग खोदने वाला विदुर का बड़ा विश्वासपात्र था । उसने पाण्डवों के पास आकर कहा, “मैं खुदाई के काम में बड़ा निपुण हूँ ।
महामना विदुर को आज्ञा से आपके पास आया हूँ । आप मुझ पर विश्वास कीजिये । विदुर ने संकेत के तौर पर मुझे बतलाया है कि ‘चलते समय मैंने युधिष्ठिर से म्लेच्छ-भाषा में कुछ कहा था और उन्होंने ‘मैंने आपकी बात भलीभाँति समझ ली है’ यह कहा था । पुरोचन जल्दी ही आग लगाने वाला है । मैं आपकी क्या सेवा करूँ”? युधिष्ठिर ने कहा “भैया ! मैं तुम पर पूरा विश्वास करता हूँ ।
हमारे जैसे हितचिन्तक विदुर हैं, वैसे ही तुम भी हो । हमें अपना ही समझो और जैसे वे हमारी रक्षा करते हैं, वैसे ही तुम भी करो । इस अग्नि के भय से तुम हमें बचा लो । इस घर में चारों ओर ऊँची दीवारें हैं, एक ही दरवाजा है” | तब सुरंग खोदने वाला कारीगर युधिष्ठिर को आश्वासन देकर खाई की सफाई करने के बहाने अपने काम पर डट गया ।
उसने उस घर के बीचो-बीच एक बड़ी भारी सुरंग बनायी और जमीन के बराबर ही किवाड़ लगा दिये । पुरोचन उस महल के दरवाजे पर ही सर्वदा रहता था । कहीं वह आकर देख न ले, इसलिये सुरंग का मुँह बिलकुल बन्द रखा गया ।
पाण्डव अपने साथ शस्त्र रखकर बड़ी सावधानी से उस महल में रात बिताते थे । दिन भर शिकार खेलने के बहाने जंगलों में घूमा करते । विश्वास न होने पर भी वे ऐसी ही चेष्टा करते मानो पूरे विश्वासी हैं । उस खोदने वाले कारीगर के अतिरिक्त पाण्डवों की इस स्थिति का पता किसी को नहीं था ।
पुरोचन ने देखा एक वर्ष के लगभग हो गया, और पाण्डव इसमें बड़े विश्वास से नि:शंक हो कर रह रहे हैं । उसे बड़ी प्रसन्नता हुई । उसकी प्रसन्नता देखकर युधिष्ठिर ने भाइयों से कहा, “पापी पुरोचन समझ रहा है कि ये ठग लिये गये । यह भुलावे में आ गया है । अतः अब यहाँ से निकल चलना चाहिये । शस्त्रागार और पुरोचन को भी जलाकर अलक्षित रूप से भाग निकलना चाहिये” ।
एक दिन कुन्ती ने दान देने के लिये ब्राह्मण-भोजन कराया । बहुत-सी स्त्रियाँ भी आयी थीं । जब सब खा पी कर चले गये, तब संयोगवश एक भील की स्त्री अपने पाँच पुत्रों के साथ वहाँ भोजन माँगने के लिये आयी । वे सब मदिरा पीकर पहले से ही मस्त थे, इसलिये चेतना शून्य होकर लाक्षाभवन में ही सो रहे । रात्रि के तीसरे प्रहर जब सब लोग सो चुके थे, उस समय आँधी चल रही थी, भयंकर अंधकार था ।
भीमसेन उस स्थान पर पहुँचे, जहाँ पुरोचन सो रहा था । भीमसेन ने पहले उस मकान के दरवाजे पर आग लगायी और फिर चारों तरफ आग भभका दी । बात-की-बात में विकराल लपटें उठने लगीं । पाँचों भाई अपनी माता के साथ सुरंग में घुस चले | जब अग्नि की असह्य गर्मी और उत्कट उजाला चारों ओर फैल गया और भवन के चटचटाने तथा गिरने से धाड़-धाड़ सी होने लगी, तब पुरवासी जगकर वहाँ दौड़े आये ।
उस घर की भयानक दुर्दशा देख कर सब कहने लगे कि “दुरात्मा दुर्योधन की प्रेरणा से पुरोचन ने यह जाल रचा होगा । हो-न हो, यह उसी की करतूत है | धृतराष्ट्र की इस स्वार्थपरता को धिक्कार है ! हाय हाय ! उन्होंने सीधे और सच्चे पाण्डवों को जलवाकर मार डाला ! पुरोचन को भी अच्छा फल मिला ! वह निर्दयी भी इसी में जलकर राख का ढेर हो गया । इस तरह वारणावत के नागरिक रोते-कलपते रात भर उस महल को घेरे रहे ।
पाण्डव माता कुन्ती को अपने साथ लिये सुरंग से बाहर एक वन में निकले । सब चाहते थे कि यहाँ से जल्दी भाग चलें, परन्तु नींद और डर के मारे सब लाचार थे | माता कुन्ती के कारण फुर्ती से चलना असम्भव हो रहा था । तब भीमसेन माता को कंधे पर और नकुल-सहदेव को गोद में बैठाकर युधिष्ठिर और अर्जुन को दोनों हाथों का सहारा देते जल्दी-जल्दी ले चले । उस समय भीमसेन बड़ी तेज गति से चलकर गंगाजी के तट पर पहुँच गये ।