जन्मेजय को महाभारत कथा सुनाते हुए वैशम्पायन जी कहते हैं “जनमेजय ! गन्धर्व के मुख से ‘तपतीनन्दन’ सम्बोधन सुनकर अर्जुन ने कहा, “गन्धर्वराज ! हम लोग तो कुन्ती के पुत्र हैं । फिर तुमने तपतीनन्दन क्यों कहा ? यह तपती कौन थी, जिसके कारण हमें तपतीनन्दन कह रहे हो” ?
गन्धर्वराज ने कहा “अर्जुन ! आकाश में सर्वश्रेष्ठ ज्योति हैं भगवान् सूर्य, इनकी प्रभा स्वर्ग तक परिव्याप्त है । इनकी पुत्री का नाम था तपती ! वह भी इनके जैसी ही ज्योतिष्मती थी । वह सावित्री की छोटी बहन थी तथा अपनी तपस्या के कारण तीनों लोकों में ‘तपती’ नाम से विख्यात थी ।
वैसी रूपवती कन्या देवता, असुर, अप्सरा, यक्ष आदि किसी की भी नहीं थी । उन दिनों उसके समान योग्य कोई भी पुरुष नहीं था, जिसके साथ भगवान् सूर्य उसका विवाह करें । इसके लिये वे सर्वदा चिन्तित रहा करते थे ।
उन्हीं दिनों पूरुवंश में राजा ऋक्ष के पुत्र संवरण बड़े ही बलवान् एवं भगवान् सूर्य के सच्चे भक्त थे । वे प्रतिदिन सूर्योदय के समय अर्घ्य, पाद्य, पुष्प, उपहार, सुगन्ध आदि से पवित्रता के साथ उनकी पूजा करते; नियम, उपवास, तपस्या से उन्हें सन्तुष्ट करते और अहंकार के बिना भक्ति-भाव से उनकी पूजा करते ।
सूर्य के मन में धीरे-धीरे यह बात आने लगी कि ये मेरी पुत्री के योग्य पति होंगे । बात थी भी ऐसी ही । जैसे आकाश में सबके पूज्य और प्रकाश मान सूर्य हैं, वैसे ही पृथ्वी में संवरण थे ।
एक दिन की बात है । संवरण घोड़े पर चढ़कर पर्वत की तराइयों और जंगल में शिकार खेल रहे थे । भूख-प्यास से व्याकुल होकर उनका श्रेष्ठ घोड़ा मर गया । वे पैदल ही चलने लगे । उस समय उनकी दृष्टि एक सुन्दर कन्या पर पड़ी । एकान्त में अकेली कन्या को देखकर वे एकटक उसकी ओर निहारने लगे । उन्हें ऐसा जान पड़ा मानो सूर्य को प्रभा ही पृथ्वी पर उतर आयी हो ।
वे सोचने लगे कि ऐसा सुन्दर रूप तो मैंने जीवन में कभी नहीं देखा । राजा की आँखें और मन उसी में गड़ गये; वे सब कुछ भूल गये, हिल-डुल तक नहीं सके । चेत होने पर उन्होंने यही निश्चय किया कि ब्रह्मा ने त्रिलोकी का रूप-सौन्दर्य मथकर इस मधुर मूर्ति का आविष्कार किया होगा ।
उन्होंने कहा, “सुन्दरि ! तुम किसकी पुत्री हो? तुम्हारा क्या नाम है? इस निर्जन जंगल में किस उद्देश्य से विचर रही हो? तुम्हारे शरीर की अनुपम छबि से आभूषण भी चमक उठे हैं । त्रिलोकी में ऐसी सुन्दरी और कोई न होगी । तुम्हारे लिये मेरा मन अत्यन्त चंचल और लालायित हो रहा है” ।
राजा की बात सुनकर वह कुछ न बोली । बादल में बिजली की तरह तत्क्षण अन्तर्धान हो गयी । राजा ने उसे ढूँढने की बड़ी चेष्टा की । अन्त में असफल होने पर विलाप करते-करते वे निश्चेष्ट हो गये ।
राजा संवरण को बेहोश और धरती पर पड़ा देखकर तपती फिर वहाँ आयी और मिठास भरी वाणी से बोली, “राजन् ! उठिये, उठिये । आप-जैसे सत्पुरुष को अचेत होकर धरती पर नहीं लोटना चाहिये” । अमृत घोली बोली सुनकर संवरण उठ गये ।
उन्होंने कहा, “सुन्दरि ! मेरे प्राण तुम्हारे हाथ हैं । मैं तुम्हारे बिना जी नहीं सकता । तुम मुझ पर दया करो और मुझ सेवक को मत छोड़ो । तुम गान्धर्व विवाह के द्वारा मुझे स्वीकार कर लो । मुझे जीवन दान दो” ।
तपती ने कहा, “राजन् ! मेरे पिता जीवित हैं । मैं स्वयं अपने सम्बन्ध में स्वतन्त्र नहीं हूँ । यदि आप सचमुच ही मुझसे प्रेम करते हैं तो मेरे पिता से कहिये । इस परतन्त्र शरीर से मैं आपके पास नहीं रह सकती । आप-जैसे कुलीन, भक्त वत्सल और विश्वविश्रुत राजा को पतिरूप से स्वीकार करने में मेरी ओर से कोई आपत्ति नहीं है ।
आप नम्रता, नियम और तपस्या के द्वारा मेरे पिता को प्रसन्न करके मुझे माँग लीजिये । मैं भगवान् सूर्य की कन्या और विश्ववन्द्या सावित्री की छोटी बहिन हूँ” । यह कहकर तपती आकाश-मार्ग से चली गयी । राजा संवरण वहीं मूर्छित हो गये ।
उसी समय राजा संवरण को ढूँढ़ते-ढूँढ़ते उनके मन्त्री, अनुयायी और सैनिक आ पहुँचे । उन्होंने राजा को जगाया और अनेक उपायों से चेत में लाने की चेष्टा की । होश में आने पर उन्होंने सबको लौटा दिया, केवल एक मन्त्री को अपने पास रख लिया । अब वे पवित्रता से हाथ जोड़कर ऊपर को ओर मुँह
करके भगवान् सूर्य की आराधना करने लगे ।
उन्होंने मन-ही-मन अपने पुरोहित महर्षि वसिष्ठ का ध्यान किया । ठीक बारहवें दिन वसिष्ठ महर्षि आये । उन्होंने राजा संवरण के मन का सारा हाल जानकर उन्हें आश्वासन दिया और उनके सामने ही भगवान् सूर्य से मिलने के लिये चल पड़े ।
सूर्य के सामने जाकर उन्होंने अपना परिचय दिया और उनके स्वागत-प्रश्न आदि के बाद इच्छा पूर्ण करने की बात कहने पर महर्षि वसिष्ठ ने प्रणाम पूर्वक कहा, “भगवन् ! मैं राजा संवरण के लिये आपकी कन्या तपती की याचना करता हूँ । आप उनके उज्ज्वल यश, धार्मिकता और नीतिज्ञता से परिचित ही हैं । मेरे विचार से वह आपकी कन्या के योग्य पति हैं” ।
भगवान् सूर्य ने तत्काल उनकी प्रार्थना स्वीकार कर ली और उन्हीं के साथ अपनी सर्वांग सुन्दरी कन्या को संवरण के पास भेज दिया । वसिष्ठ के साथ तपती को आते देखकर संवरण अपनी प्रसन्नता का संवरण न कर सके । इस प्रकार भगवान् सूर्य की आराधना और अपने पुरोहित वसिष्ठ की शक्ति से राजा संवरण ने तपती को प्राप्त किया और विधिपूर्वक पाणिग्रहण-संस्कार से सम्पन्न होकर उसके साथ उसी पर्वत पर सुख पूर्वक विहार करने लगे ।
इस प्रकार वे बारह वर्ष तक वहीं रहे । राजकाज मन्त्री पर रहा । इससे इन्द्र ने उनके राज्य में वर्षा ही बंद कर दी अनावृष्टि के कारण प्रजा का नाश होने लगा । ओस तक न पड़ने के कारण अन्न की पैदावार सर्वथा बंद हो गयी । प्रजा मर्यादा तोड़कर एक-दूसरे को लूटने-पीटने लगी ।
तब वसिष्ठ मुनि ने अपनी तपस्या के प्रभाव से वहाँ वर्षा करवायी और तपती-संवरण को राजधानी में ले आये । इन्द्र पूर्ववत् वर्षा करने लगे । पैदावार शुरू हो गयी । राजदम्पति ने सहस्रों वर्षत क सुख-भोग किया |
गन्धर्वराज कहते हैं “अर्जुन ! यही सूर्य कन्या तपती आपके पूर्वपुरुष राजा संवरण की पत्नी थीं । इन्हीं तपती के गर्भ से राजा कुरु का जन्म हुआ, जिनसे कुरुवंश चला । उन्हीं के सम्बन्ध से मैंने आपको ‘तपतीनन्दन’ कहा है ।