वारणावत के बाद युधिष्ठिर आदि पाँचों भाई अपनी माता कुन्ती के साथ एकचक्रा नगरी में रहकर तरह-तरह के दृश्य देखते हुए विचरने लगे । वे भिक्षावृत्ति से अपना जीवन-निर्वाह करते थे । नगरनिवासी उनके गुणों से मुग्ध होकर उनसे बड़ा प्रेम करने लगे । वे सायंकाल होने पर दिनभर की भिक्षा लाकर माता के सामने रख देते । माता की अनुमति से आधा भीमसेन खाते और आधे में सब लोग । इस प्रकार बहुत दिन बीत गये ।
एक दिन और सब लोग तो भिक्षा के लिये चले गये थे, परन्तु किसी कारणवश भीमसेन माता के पास ही रह गये थे । उसी दिन ब्राह्मण के घर में करुण- क्रन्दन होने लगा । वे लोग बीच-बीच में विलाप करते और रोते जाते । यह सब सुनकर कुन्ती का सौहार्दपूर्ण हृदय दया से द्रवित हो गया ।
उन्होंने भीमसेन से कहा, “बेटा ! हम लोग ब्राह्मण के घर में रहते हैं और ये हमारा बहुत सत्कार करते हैं । मैं प्रायः यह सोचा करती हूँ कि इस ब्राह्मण का कुछ-न-कुछ उपकार करना चाहिये । कृतज्ञता ही मनुष्य का जीवन है । जितना कोई अपना उपकार करे, उससे बढ़कर उसका करना चाहिये । अवश्य ही इस ब्राह्मण पर कोई विपत्ति आ पड़ी है ।
यदि हम इसकी कुछ सहायता कर सकें तो उऋण हो जायँ” । भीमसेन ने कहा, “माँ ! तुम ब्राह्मण के दुःख और दुःख के कारण का पता लगा लाओ । मैं उनके लिये कठिन-से-कठिन काम भी करूंगा” । कुन्ती जल्दी से ब्राह्मण के घर में गयीं, मानो गाय अपने बँधे बछड़े के पास दौड़ी गयी हो ।
उन्होंने देखा कि ब्राह्मण अपनी पत्नी और पुत्र के साथ मुँह लटकाकर बैठा है और कह रहा है “धिक्कार है मेरे इस जीवन को ! क्योंकि यह सारहीन, व्यर्थ, दु:खी और पराधीन है । जीव अकेला ही धर्म, अर्थ और काम का भोग करना चाहता है । इनका वियोग होना ही उसके लिये महान् दुःख है । अवश्य ही मोक्ष सुखस्व रूप है । परन्तु मेरे लिये उसकी कोई सम्भावना नहीं है ।
इस आपत्ति से छूटने का न तो कोई उपाय दीखता है और न मैं अपनी पत्नी और पुत्र के साथ भाग ही सकता हूँ । तुम मेरी जितेन्द्रिय एवं धर्मात्मा सहचरी हो । देवताओं ने तुम्हें मेरी सखी और सहारा बना दिया है । मैंने मन्त्र पढ़कर तुमसे विवाह किया है । तुम कुलीन, शीलवती और मेरे बच्चों की माँ हो । तुम सती-साध्वी और मेरी हितैषिणी हो । राक्षस से अपने जीवन की रक्षा के लिये मैं तुम्हें उसके पास नहीं भेज सकता” ।
पति की बात सुनकर ब्राह्मणी ने कहा, “स्वामिन् ! आप साधारण मनुष्य के समान शोक क्यों कर रहे हैं ? एक-न-एक दिन सभी मनुष्यों को मरना ही पड़ता है । फिर इस अवश्यम्भावी बात के लिये शोक क्यों किया जाय । पत्नी, पुत्र अथवा पुत्री सब अपने ही लिये होते हैं । आप विवेक के बल से चिन्ता छोड़िये । मैं स्वयं उसके पास जाऊँगी ।
पत्नी के लिये सबसे बढ़कर यही सनातन कर्तव्य है कि वह अपने प्राणों को निछावर करके पति की भलाई करे । मेरे इस काम से आप सुखी होंगे और मुझे भी परलोक में सुख तथा इस लोक में यश मिलेगा । मैं आपके धर्म और लाभ की बात कहती हूँ । जिस उद्देश्य से विवाह किया जाता है, वह अब पूरा हो चुका है । आपके मेरे गर्भ से एक पुत्र और एक पुत्री है ।
आप इन बच्चों का जैसा पालन-पोषण कर सकते हैं, वैसा मैं नहीं कर सकती । यदि आप नहीं रहेंगे तो मेरे प्राणेश्वर ! मेरे जीवन सर्वस्व ! मैं कैसे रहूँगी और इन बच्चों की क्या दशा होगी ? यदि मैं अनाथ और विधवा होकर जीवित भी रहूँ तो इन बच्चों को कैसे रखूगी । जब घमंडी और अयोग्य पुरुष इस लड़की को माँगने लगेंगे तब मैं इसकी रक्षा कैसे कर पाऊँगी ।
जैसे पक्षी मांस के टुकड़े पर झपटते हैं, वैसे ही दुष्ट पुरुष विधवा स्त्री पर । मैं भला, वैसा जीवन कैसे बिता सकूँगी । इस कन्या को मर्यादा में रखना और बच्चे को सद्गुणी बनाना मुझसे कैसे हो सकेगा । आपके वियोग में मैं न रहूँगी और आपके तथा मेरे बिना इन बच्चों का नाश हो जायगा । आपके जाने से हम चारों का विनाश हो जायगा, इसलिये आप मुझे भेज दीजिये ।
स्त्रियों के लिये यह बड़े सौभाग्य की बात है कि अपने पति से पहले ही परलोक वासिनी हो जायँ । मैंने सब कुछ छोड़ दिया है, पुत्र और पुत्री भी । मेरा जीवन आपके लिये निछावर है । स्त्री के लिये यज्ञ, तपस्या, नियम और दान से भी बढ़कर है अपने पति का प्रिय और हित । मैं जो कुछ कह रही हूँ वह आपके और इस वंश के लिये भी हितकारी है।
इस लोक में स्त्री, पुत्र, मित्र और धन आदि का संग्रह आपत्ति से रक्षा के लिये किया जाता है । आपत्ति के लिये धन की रक्षा करे, धन खोकर भी पत्नी की रक्षा करे तथा पत्नी और धन दोनों को खोकर भी आत्मकल्याण सम्पादन करे । यह भी सम्भव है कि स्त्री को अवध्य समझकर वह राक्षस मुझे न मारे । पुरुष का वध निर्विवाद है और स्त्री का सन्देहग्रस्त, इसलिये मुझे ही उसके पास भेजिये ।
अब मुझे करना ही क्या है । अच्छे पदार्थ भोग लिये, धर्म-कर्म कर लिये, पुत्र भी हो चुके, मेरे मरने में भला दुःख ही क्या है । मेरे मर जाने पर आप तो दूसरा विवाह भी कर सकते हैं । क्योंकि पुरुष के लिये अधिक विवाह अधर्म नहीं है और स्त्री के लिये तो महान् अधर्म है । यह सब सोच विचार कर आप मेरी बात मानिये और इन बच्चों की रक्षा के लिये आप स्वयं रह जाइये और मुझे उस राक्षस के पास भेजिये” ।
स्त्री के ऐसा कहने पर ब्राह्मण ने उसे अपनी छाती से लगा लिया । उसकी आँखों से आँस गिरने लगे | माँ-बाप की दुःख भरी बात सुनकर कन्या बोली, “आप दोनों दुखी होकर क्यों अनाथ के समान रो रहे हैं ? देखिये, धर्म के अनुसार आप दोनों मुझे एक-न-एक दिन छोड़ देंगे । इसलिये आज ही मुझे छोड़कर अपनी रक्षा क्यों नहीं कर लेते ?
लोग सन्तान इसीलिये चाहते हैं कि वह हमें दुःख से बचावे । इस अवसर पर आप लोग मेरा सदुपयोग क्यों नहीं कर लेते ? आपके परलोक वासी हो जाने पर मेरा यह प्यारा-प्यारा छोटा भाई नहीं बचेगा । माँ बाप और भाई की मृत्यु से आपकी वंश परम्परा का ही उच्छेद हो जायगा । जब कोई नहीं रहेंगे तो मैं भी तो नहीं रह सकूँगी ।
आप लोगों के रहने से सबका कल्याण हो जायगा । मैं ही राक्षस के पास जाकर इस वंश की रक्षा करूँगी । इससे मेरा लोक-परलोक दोनों बनेंगे” । कन्या की यह बात सुनकर माँ बाप दोनों रोने लगे । कन्या भी बिना रोये न रह सकी । सबको रोते देखकर नन्हा सा ब्राह्मण-शिशु मिठास भरी तोतली बाणी से कहने लगा “पिताजी ! माताजी ! बहिन ! मत रोओ” । प्रत्येक के पास जा-जाकर वह यही कहने लगा ।
उसने एक तिनका उठाकर हँसते हुए कहा “मैं इसी से राक्षस को मार डालूंगा” । बच्चे की इस बात से उस दुःख की घड़ी में भी तनिक प्रसन्नता प्रस्फुटित हो उठी । कुन्ती यह सब कुछ देख-सुन रही थीं । वे अपने को प्रकट करने का अवसर देखकर पास चली गयीं और मुर्दो पर मानो अमृत की धारा उड़ेलते हुए बोलीं, “ब्राह्मण देवता ! आपके दुःख का क्या कारण है ? उसे जान कर यदि हो सकेगा तो मिटाने की चेष्टा करूँगी” ।
ब्राह्मण ने कहा, “तपस्विनी ! आपकी बात सज्जनों के अनुरूप है । परन्तु मेरा दुःख मनुष्य नहीं मिटा सकता । इस नगर के पास ही एक बक नाम का राक्षस रहता है । उस बलवान् राक्षस के लिये एक गाड़ी अन्न तथा दो भैंसे प्रतिदिन दिये जाते हैं । जो मनुष्य लेकर जाता है, उसे भी वह खा जाता है । प्रत्येक गृहस्थ को यह काम करना पड़ता है । परन्तु इसकी बारी बहुत वर्षों के बाद आती है ।
जो उससे छूटने का यत्न करते हैं वह उनके सारे कुटुम्ब को खा जाता है । यहाँ का राजा यहाँ से थोड़ी दूर वेत्र की यगृह नामक स्थान में रहता है । वह अन्यायी हो गया है और इस विपत्ति से प्रजा की रक्षा नहीं करता । आज हमारी बारी आ गयी है । मुझे उसके भोजन के लिये अन्न और एक मनुष्य देना पड़ेगा । मेरे पास इतना धन नहीं कि किसी को खरीदकर दे दूँ और अपने सगे- सम्बन्धियों को देने की शक्ति नहीं है ।
अब अपने छुटकारे का कोई उपाय न देखकर मैं अपने सारे कुटुम्ब के साथ जाना चाहता हूँ । वह दुष्ट सभी को खा डालेगा” । कुन्ती ने कहा, “ब्राह्मण देवता ! आप न डरें और न शोक करें, उससे छुटकारे का उपाय मैं समझ गयी । आपके तो एक ही पुत्र और एक ही कन्या है । आप दोनों में से किसी का जाना भी मुझे ठीक नहीं लगता । मेरे पाँच लड़के हैं, उनमें से एक पापी राक्षस का भोजन लेकर चला जायगा” ।
ब्राह्मण ने कहा “हरे-हरे ! मैं अपने जीवन के लिये अतिथि की हत्या नहीं कर सकता । अवश्य ही आप बड़ी कुलीन और धर्मात्मा हैं, तभी तो ब्राह्मण के लिये अपने पुत्र का भी त्याग करना चाहती हैं । मुझे स्वयं अपने कल्याण की बात सोचनी चाहिये । आत्म वध और ब्राह्मण वध के विकल्प में मुझे तो आत्मवध ही श्रेयस्कर जान पड़ता है । ब्रह्महत्या का कोई प्रायश्चित्त नहीं ।
अनजान में भी ब्रह्महत्या करने की अपेक्षा अपने को नष्ट कर देना उत्तम है । मैं अपने-आप तो मरना चाहता नहीं । दूसरा कोई मुझे मार डालता है तो इसका पाप मुझे नहीं लगेगा । चाहे कोई भी हो, जो अपने घर आया, शरण में आया, जिसने रक्षा की याचना की, उसे मरवा डालना बड़ी नृशंसता है ।
आपत्तिकाल में भी निन्दित और क्रूर कर्म नहीं करना चाहिये । मैं स्वयं अपनी पत्नी के साथ मर जाऊँ, यह श्रेष्ठ है । परंतु ब्राह्मण वध की बात तो मैं सोच भी नहीं सकता” । कुन्ती ने कहा, “ब्रह्मन् ! मेरा भी यह दृढ़ निश्चय है कि ब्राह्मण की रक्षा करनी चाहिये । मैं भी अपने पुत्र का अनिष्ट नहीं चाहती हूँ । परंतु बात यह है कि राक्षस मेरे बलवान्, मन्त्रसिद्ध और तेजस्वी पुत्र का अनिष्ट नहीं कर सकता ।
वह राक्षस को भोजन पहुँचाकर भी अपने को छुड़ा लेगा, ऐसा मेरा दृढ़ निश्चय है । अब तक न जाने कितने बलवान् और विशालकाय राक्षस इसके हाथों मारे गये हैं । लेकिन एक बात है, इसकी सूचना आप किसी को न दें; क्योंकि लोग यह विद्या जानने के लिये मेरे पुत्रों को तंग करेंगे” ।
कुन्ती की बात से ब्राह्मण-परिवार को बड़ी प्रसन्नता हुई, कुन्ती ने ब्राह्मण के साथ जाकर भीमसेन से कहा कि “तुम यह काम कर दो” । भीमसेन ने बड़ी प्रसन्नता के साथ माता की बात स्वीकार कर ली । जिस समय भीमसेन ने वह काम करने की प्रतिज्ञा की, उसी समय युधिष्ठिर आदि भिक्षा लेकर लौटे । युधिष्ठिर ने भीमसेन के आकार से ही सब कुछ समझ लिया ।
उन्होंने एकान्त में बैठकर अपनी माता से पछा “माँ ! भीमसेन क्या करना चाहते हैं ? यह उनकी स्वतन्त्र इच्छा है या आपकी आज्ञा” ? कुन्ती बोली, “मेरी आज्ञा” । युधिष्ठिर ने कहा, “माँ । आपने दूसरे के लिये अपने पुत्र को संकट में डालकर बड़े साहस का काम किया है” । कुन्ती ने कहा, “बेटा ! भीमसेन की चिन्ता मत करो । मैंने विचार की कमी से ऐसा नहीं किया है ।
हम लोग यहाँ इस ब्राह्मण के घर में आराम से रहते हैं । उससे उऋण होने का यही उपाय है । मनुष्य जीवन की सफलता इसी में है कि वह कभी उपकारी के उपकार को न भूले । उसके उपकार से भी बढ़कर उसका उपकार कर दे । भीमसेन पर मेरा विश्वास है । पैदा होते ही वह मेरी गोद से गिरा था । उसके शरीर से टकराकर चट्टान चूर-चूर हो गयी । मेरा निश्चय विशद्ध धार्मिक है ।
इससे प्रत्युपकार तो होगा ही, धर्म भी होगा” । युधिष्ठिर बोले, “माता ! आपने जो कुछ समझ बूझकर किया है, वह सब उचित है । अवश्य ही भीमसेन राक्षस को मार डालेंगे । क्योंकि आपके हृदय में ब्राह्मण की रक्षा के लिये विशुद्ध धर्म-भाव है । किंतु ब्राह्मण से यह अवश्य कह देना चाहिये कि नगर निवासियों को यह बात मालूम न होने पावे” ।
कुछ रात बीत जाने पर भीमसेन राक्षस का भोजन लेकर बकासुर के वन में गये और वहाँ उसका नाम ले-ले कर पुकारने और तिरस्कार करने लगे । वह राक्षस विशालकाय, वेगवान् और बलशाली था । उसकी आँखें लाल, दाढ़ी-मूंछ लाल, कान नुकीले, मुंह कान तक फटा था । देखकर डर लगता था । भीमसेन की आवाज सुनकर वह तमतमा उठा ।
वह भौहें टेढ़ी करके दाँत पीसता हुआ इस प्रकार भीमसेन की ओर दौड़ा, मानो धरती फाड़ डालेगा । उसने वहाँ आकर देखा तो भीमसेन उसके भाग का अन्न खा रहे हैं । वह क्रोध से आग-बबूला हो आँखें फाड़कर बोला, “अरे, यह दुर्बुद्धि कौन है, जो मेरे सामने ही मेरा अन्न निगलता जा रहा है? क्या यह यमपुरी जाना चाहता है” ?
भीमसेन हँस पड़े । उसकी कुछ भी परवाह न करके मुँह फेर लिया और खाते रहे । वह दोनों हाथ उठाकर भयंकर नाद करता हुआ उन्हें मार डालने के लिये टूट पड़ा । फिर भी भीमसेन उसका तिरस्कार करते हुए खाते ही रहे । उसने भीमसेन की पीठ पर दोनों हाथों से दो घूसे कसकर जमाये । फिर भी वे खाते ही गये । अब बकासुर और भी क्रोधित हो एक वृक्ष उखाड़कर उन पर झपटा ।
भीमसेन धीरे-धीरे खा-पीकर, हाथ-मुँह धोकर हँसते हुए डटकर खड़े हो गये । राक्षस ने उन पर जो वृक्ष चलाया, उसे उन्होंने बायें हाथ से पकड़ लिया । अब दोनों ओर से वृक्षों की मार होने लगी । घमासान लड़ाई हुई । वन के वृक्षों का विनाश-सा हो गया । बक ने दौड़कर भीमसेन को पकड़ा । वे उसे हाथों में कसकर घसीटने लगे । जब वह थक गया, तब भीमसेन उसे जमीन में पटककर घुटनों से रगड़ने लगे ।
उसकी गरदन पकड़कर दबा दी और लँगोट खींच उसे मरोड़कर कमर तोड़ डाली | इस घटना से उसके मुँह से खून गिरने लगा तथा हड्डी-पसली टूट जाने से उसके प्राण पखेरू उड़ गये ।बकासुर की चिल्लाहट से उसके परिवार के राक्षस डर गये और अपने सेवकों के साथ बाहर निकल आये । भीमसेन ने उन्हें डर से अचेत देखकर ढाढ़स बँधाया और उनसे यह शर्त करायी कि अब तुम लोग कभी मनुष्यों को न सताना ।
यदि भूल से भी ऐसा किया तो इसी प्रकार तुम्हें भी मरना पड़ेगा । राक्षसों ने भीमसेन की बात स्वीकार कर ली । भीमसेन बकासुर की लाश लेकर नगर के द्वार पर आये और वहाँ उसे पटककर चुपचाप चले गये । तभी से नागरिकों को कभी राक्षसों के उपद्रव का अनुभव नहीं हुआ । बकासुर के परिवार वाले भी इधर-उधर भाग गये ।
भीमसेन ने ब्राह्मण के घर जाकर धर्मराज युधिष्ठिर से वहाँ की सब घटना कह दी । इधर नगरवासी प्रात:काल उठकर बाहर निकले तो देखते हैं कि वह पहाड़ के समान राक्षस खून से लथपथ होकर जमीन पर पड़ा है । उसे देखकर सबके रोंगटे खड़े हो गये । बात-की-बात में यह समाचार चारों ओर फैल गया । हजारों नागरिक, जिनमें बच्चे, बूढ़े और स्त्रियाँ भी थीं, उसे देखने के लिये आये ।
सबने यह अलौकिक कर्म देखकर आश्चर्य प्रकट किया और अपने-अपने इष्टदेवता की पूजा की । लोगों ने पता लगाया कि आज किसकी बारी थी । फिर ब्राह्मण के पास जाकर पूछताछ की ।
ब्राह्मण ने यह घटना छिपाते हुए कहा, “आज मेरी बारी थी । इसलिये मैं अपने परिवार के साथ रो रहा था । उसी समय किसी उदारचरित्र मन्त्रसिद्ध ब्राह्मण ने आकर मेरे दुःख का कारण पूछा और प्रसन्नतापूर्वक मुझे विश्वास दिलाकर बोला कि मैं उस राक्षस को अन्न पहुँचा दूंगा । तुम मेरे बारे में चिन्ता या भय मत करना । वे ही राक्षस का भोजन लेकर गये थे, अवश्य ही यह उन्हीं का काम है” ।
सभी वर्ण के लोग इस घटना से प्रसन्न होकर ब्रह्मोत्सव मनाने लगे । पाण्डव भी यह आनन्दोत्सव देखते हुए वहीं सुख से निवास करने लगे ।