महाभारत युद्ध के बीच जब श्री कृष्ण के समझाने पर अर्जुन ने धर्मराज युधिष्ठिर का अपमान कर दिया तो युधिष्ठिर अत्यंत दुखी हो कर वन को जाने लगे तब श्री कृष्ण ने उन्हें रोक लिया और अर्जुन की प्रतिज्ञा और धर्मराज द्वारा अर्जुन को कहे गए अत्यंत कटुवचन की वजह से उपजी जटिल परिस्थितियों को हल करने की प्रक्रिया को, अर्जुन के गलत व्यव्हार का जिम्मेदार बताया |
कृष्ण ने धर्मराज युधिष्ठिर को यह भी बताया कि अर्जुन ने यह सब उनके कहने पर किया था और कृष्ण ने अपने इस अपराध के लिए धर्मराज से क्षमा भी मांगी | अर्जुन ने पहले ही धर्मराज से क्षमा मांग ली थी |
यह सब कुछ देख, सुन, समझ कर धर्मराज युधिष्ठिर प्रसन्न हो गए | उन्होंने श्री कृष्ण को अपने पैरों पर से उठाते हुए उनसे अत्यंत प्रेम पूर्वक बातें की | धर्मराज के मुख से वह प्रेमयुक्त वचन सुनकर भगवान् श्रीकृष्ण ने अर्जुन को भी बताया ।
इधर अर्जुन ने भगवान के कथनानुसार जो युधिष्ठिर का प्रतिवाद किया था, उससे ‘कोई पाप बन गया’ ऐसा समझकर वे पुनः बहुत उदास हो गये थे | तब भगवान् श्रीकृष्ण ने हँसते-हँसते उनसे कहा “अर्जुन ! राजा युधिष्ठिर को ‘तू’ कह देने मात्र से जब तुम इस तरह शोक में डूब गये हो तो राजा का वध कर देने पर तुम्हारी क्या दशा होती?
सचमुच धर्म का स्वरूप जानना बड़ा कठिन है, जिनकी बुद्धि मन्द है, उनके लिये तो उसका जानना और भी मुश्किल है । तुम धर्मभीरु होने के कारण अपने बड़े भाई का वध करके निश्चय ही घोर अन्धकार में पड़ते, भयंकर नरक में गिरते । अब मेरी राय यह है कि तुम कुरुश्रेष्ठ युधिष्ठिर को ही प्रसन्न करो, जब वे प्रसन्न हो जायँ तो हम लोग शीघ्र ही सूतपुत्र कर्ण से लड़ने के लिये चलें” ।
तब अर्जुन बहुत लज्जित होकर राजा के चरणों में पड़ गये और बोले “राजन् ! धर्मपालन की कामना से भयभीत होकर मैंने जो कुछ कह डाला है, उसे क्षमा कीजिये और मुझपर प्रसन्न होइये” । धर्मराज ने देखा अर्जुन पैरों पर पड़े हुए रो रहे हैं, तो उन्होंने अपने प्यारे भाई को उठाकर बड़े स्नेह के साथ गले लगाया और स्वयं भी फूट-फूटकर रोने लगे ।
दोनों भाई बड़ी देर तक रोते रहे, फिर दोनों का भाव एक-दूसरे के प्रति शुद्ध हो गया, दोनों ही प्रेम और प्रसन्नता से भर गये । तदनन्तर, युधिष्ठिर ने पुन: अर्जुन को बड़े प्रेम से गले लगाया और उनका मस्तक सूंघकर अत्यन्त प्रसन्नता के साथ कहा “महाबाहो ! मैं युद्ध में पूर्ण प्रयत्न के साथ लड़ रहा था, किंतु कर्ण ने समस्त सैनिकों के सामने मेरा कवच, रथ की ध्वजा, धनुष, बाण, शक्ति और घोड़े नष्ट कर डाले ।
उसके उस कर्म को याद करके मैं दुःख से पीड़ित हो रहा हूँ, अब जीना अच्छा नहीं लगता । यदि आज युद्ध में उस वीर को नहीं मार डालोगे तो निश्चय ही मैं अपने प्राणों को त्याग दूंगा” । उनके ऐसा कहने पर अर्जुन ने कहा “राजन् ! मैं नकुल-सहदेव तथा भीमसेन की सौगंध खाता हूँ और अपने हथियारों को छूकर सत्य की शपथ करके कहता हूँ कि आज या तो मैं कर्ण को मार डालूँगा या स्वयं ही मरकर रणभूमि में शयन करूँगा” ।
राजा से यों कहकर अर्जुन श्रीकृष्ण से बोले “माधव ! आज युद्ध में मैं अवश्य कर्ण को मारूँगा; आपकी बुद्धि के बल से ही उस दुरात्मा का वध होगा” । यह सुनकर श्रीकृष्ण बोले “अर्जुन ! तुम महाबली कर्ण का वध करने में स्वयं समर्थ हो ।
मेरी तो सदा ही यह इच्छा रहती है कि तुम किसी तरह कर्ण को मारते” । अर्जुन से यह कहकर श्रीकृष्ण धर्मराज युधिष्ठिर से बोले “राजन् ! आप कर्ण के बाणों से बहुत पीड़ित हो गये हैं-यह सुनकर मैं और अर्जुन-दोनों आपको देखने आये थे । सौभाग्य की बात है कि आप न तो मारे गये और न उसकी कैद में ही पड़े । अब अर्जुन को शान्त करके इन्हें विजय के लिये आशीर्वाद दीजिये” ।
युधिष्ठिर बोले “भैया अर्जुन ! आओ, आओ, फिर मेरी छाती से लग जाओ । तुमने कहने योग्य और हित की ही बात कही है तथा मैंने उसके लिये क्षमा भी कर दी । धनंजय ! मैं तुम्हें आज्ञा देता हूँ । जाओ, कर्ण का नाश करो । यह सुनकर अर्जुन ने पुनः अपने बड़े भाई के चरण पकड़ लिये और उन पर सिर रखकर प्रणाम किया ।
राजा ने उन्हें उठाकर पुनः छाती से लगाया और उनका मस्तक सूंघकर कहा “धनंजय ! तुमने मेरा बहुत सम्मान किया है, अतः मैं आशीर्वाद देता हूँ कि सर्वत्र तुम्हारी महिमा बढ़े और तुम्हें सनातन विजय प्राप्त हो” । अर्जुन ने कहा “महाराज ! जिसने आपको बाणों से पीड़ित किया है, उस कर्ण को आज अपने पापों का भयंकर फल मिलेगा । आज उसे मारकर ही आपका दर्शन करूँगा । इस सच्ची प्रतिज्ञा के साथ मैं आपके चरणों का स्पर्श करता हूँ ।
यह सुनकर युधिष्ठिर का चित्त बहुत प्रसन्न हुआ । उन्होंने अर्जुन से फिर कहा “पार्थ ! तुम्हें सदा ही अक्षय यश, पूर्ण आयु, मनोवांछित कामना, विजय तथा बल की प्राप्ति हो । तुम्हारे लिये मैं जो कुछ चाहता हूँ, वह सब तुम्हें मिले । अब जाओ और शीघ्र ही कर्ण का नाश करो” । इस प्रकार धर्मराज को प्रसन्न करने के बाद अर्जुन ने श्रीकृष्ण से कहा “गोविन्द ! अब मेरा रथ तैयार हो ।
उसमें उत्तम घोड़े जोते जायँ और सब प्रकार के अस्त्र-शस्त्र सजाकर रख दिये जायें फिर सूतपुत्र का वध करने के लिये आप शीघ्र ही यात्रा करें” । अर्जुन के ऐसा कहने पर श्रीकृष्ण ने दारुक से कहा “तुम पार्थ के कथनानुसार सारी तैयारी करो” । भगवान की आज्ञा पाते ही दारुक ने रथ को सब सामग्रियों से सुसज्जित करके उसमें घोड़े जोत दिये और उसे अर्जुन के पास लाकर खड़ा कर दिया ।
अर्जुन ने देखा, दारुक रथ जोतकर ले आया, तो उन्होंने धर्मराज से आज्ञा ली और ब्राह्मणों द्वारा स्वस्तिवाचन कराकर वे अपने मंगलमय रथ पर विराजमान हुए । उस समय धर्मराज युधिष्ठिर ने अर्जुन को आशीर्वाद दिये । तत्पश्चात् अर्जुन कर्ण के रथ की ओर चल दिये । कुछ दूर जाने पर उनके मन में बड़ी चिन्ता हुई । वे सोचने लगे “मैंने कर्ण को मारने की प्रतिज्ञा तो की है, किन्तु यह किस तरह पूर्ण होगी” ?
अर्जुन को चिन्तित देख भगवान् मधुसूदन ने कहा “गाण्डीवधारी अर्जुन ! तुमने अपने धनुष से जिन-जिन वीरों पर विजय पायी है, उन्हें जीतने वाला इस संसार में तुम्हारे सिवा कोई मनुष्य नहीं है । जो तुम्हारे-जैसे वीर नहीं हैं, उनमें से कौन-सा ऐसा पुरुष है, जो द्रोण, भीष्म, भगदत्त, अवन्ती के राजकुमार विन्द-अनुविन्द, काम्बोज-राज सुदक्षिण, श्रुतायु तथा अच्युतायु का सामना करके कुशल से रह सकता था ?
तुम्हारे पास दिव्यास्त्र हैं, तुममें फुर्ती है, बल है, युद्ध के समय तुम्हें घबराहट नहीं होती, तुम्हें अस्त्र-शस्त्रों का पूर्ण ज्ञान है । लक्ष्य को बेधने और गिराने की कला मालूम है । निशाना मारते समय तुम्हारा चित्त एकाग्र रहता है | तुम चाहो तो गन्धर्वो और देवताओं सहित सम्पूर्ण चराचर जगत का नाश कर सकते हो ? इस भूमण्डल पर तुम्हारे समान योद्धा है ही नहीं ।
ब्रह्माजी ने प्रजा की सृष्टि करने के पश्चात् इस महान् गाण्डीव धनुष की भी रचना की थी, जिससे तुम युद्ध करते हो, इसलिये तुम्हारी बराबरी करने वाला कोई नहीं है । तो भी तुम्हारे हित के लिये एक बात बता देना आवश्यक है; तुम कर्ण को अपने से छोटा समझकर उसकी अवहेलना न करना । मैं तो महारथी कर्ण को तुम्हारे समान या तुमसे भी बढ़कर समझता हूँ ।
इसलिये पूरा प्रयास करके तुम्हें उसका वध करना चाहिये । वह अग्नि के समान तेजस्वी और वायु के समान वेगवान् है, क्रोध होने पर काल के समान हो जाता है । उसके शरीर की गठन सिंह के समान है, वह बहुत बलवान् है । उसकी ऊँचाई आठ रत्नि (एक सौ अड़सठ अंगुल) है । भुजाएँ बड़ी-बड़ी और छाती चौड़ी है । उसको जीतना बहुत कठिन है । वह महान् शूरवीर और अभिमानी है ।
उसमें योद्धाओं के सभी गुण हैं । वह अपने मित्र कौरवों को अभय देनेवाला और पाण्डवों से सदा द्वेष रखनेवाला है । मेरा तो ऐसा खयाल है कि सिर्फ तुम्हीं उसे मार सकते हो और किसी के लिये उसका मारना टेढ़ी खीर है । इसलिये आज ही उस दुरात्मा, क्रूर और पापी कर्ण को मारकर अपना मनोरथ पूर्ण करो । अर्जुन ! मैं तुम्हारे उस पराक्रम को जानता हूँ, जिसका निवारण करना देवता और असुरों के लिये भी कठिन है ।
जैसे सिंह मतवाले हाथी को मार डालता है, उसी प्रकार तुम भी अपने बल और पराक्रम से शूरवीर कर्ण का संहार करो-इसके लिये मैं तुम्हें आज्ञा देता हूँ । तुम शत्रुओं के लिये दुर्द्धर्ष हो, तुम्हारे ही आश्रय में रहकर ये पाण्डव और पांचाल रण में डटे हुए हैं । तुम्हारे द्वारा सुरक्षित हुए इन पाण्डव, पांचाल, मत्स्य, करूष तथा चेदिदेशीय वीरों ने असंख्य शत्रुओं का संहार कर डाला है ।
तुम्हारे संरक्षण में युद्ध करने वाले पाण्डव-महारथियों के सिवा दूसरा कौन है, जो संग्राम में कौरवों को परास्त कर सके । तुम तो देवता, असुर और मनुष्यों सहित तीनों लोकों को युद्ध में जीत सकते हो, फिर कौरव-सेना की तो बिसात ही क्या है ? कोई इन्द्र के समान भी पराक्रमी क्यों न हो, तुम्हारे सिवा कौन राजा भगदत्त को जीत सकता था ?
अक्षौहिणी सेना के स्वामी तथा युद्ध में कभी पीछे पैर न हटाने वाले भीष्म, द्रोण, कृपाचार्य, कर्ण, अश्वत्थामा, भूरिश्रवा, कृतवर्मा, जयद्रथ, शल्य तथा दुर्योधन-जैसे महारथियों पर तुम्हें छोड़कर दूसरा कौन विजय पा सकता है ?
भयंकर पराक्रम दिखाने वाले तुषार, यवन, खश, दार्वाभिसार, दरद, शक, माठर, तंगण, आन्ध्र, पुलिन्द, किरात, म्लेच्छ, पर्वतीय तथा समुद्र के तट पर रहनेवाले योद्धा क्रोध में भरकर दुर्योधन की सहायता के लिये आये हैं, इन्हें तुम्हारे सिवा दूसरा कोई नहीं जीत सकता । यदि तुम रक्षक न होते तो व्यूहाकार में खड़ी हुई कौरवों की विशाल सेना पर कौन चढ़ाई कर सकता था ?
तुम्हारी ही सहायता से पाण्डव पक्ष के वीरों ने उसका संहार किया है । भीष्म जी अस्त्रविद्या में बड़े प्रवीण थे, उन्होंने चेदि, काशी, पांचाल, करूष, मत्स्य तथा केकय देशीय वीरों को बाणों से आच्छादित करके मार डाला था । वे जब एक बार धनुष की मूठ पकड़ते तो हजारों रथियों का सफाया कर डालते थे । उनके द्वारा लाखों मनुष्यों और हाथियों का संहार हुआ ।
दस दिनों के युद्ध में तुम्हारी बहुत-सी सेना का विध्वंस करके उन्होंने कितने ही रथ सूने कर दिये । संग्राम में भगवान् रुद्र और विष्णु के समान अपना भयंकर रूप प्रकट करके चेदि, पांचाल और केकय वीरों का संहार करते हुए उन्होंने रथों, घोड़ों और हाथियों से भरी हुई पाण्डव-सेना का विनाश कर डाला । इस प्रकार भीष्म जी अद्वितीय वीर थे, परंतु उन्हें भी शिखण्डी ने तुम्हारे संरक्षण में रहकर अपने बाणों का निशाना बनाया ।
आज वे बाण-शय्या पर पड़े हुए हैं । “पार्थ ! जयद्रथ का वध करते समय युद्ध में तुमने जैसा पराक्रम किया था, वैसा तुम्हारे सिवा दूसरा कौन कर सकता है? राजा लोग सिन्धुराज के वध को तुम्हारा आश्चर्यजनक पराक्रम मानते हैं; पर मैं ऐसा नहीं समझता; क्योंकि तुम्हारे-जैसे वीर से ऐसा काम होना कोई आश्चर्य की बात नहीं है ।
मेरा तो ऐसा विश्वास है कि यदि सारा क्षत्रिय समाज एकत्रित होकर तुम्हारा सामना करने आ जाय तो वह एक ही दिन में नष्ट हो जायगा और मेरे विचार से ही यही तुम्हारे योग्य पराक्रम होगा । अर्जुन ! जिस समय भीष्म और द्रोणाचार्य मारे गये, तभी से कौरवों की इस भयंकर सेना का मानो सर्वस्व लुट गया । इसके प्रधान-प्रधान योद्धा नष्ट हो गये, इसमें घोड़ों, रथों और हाथियों का अभाव हो गया ।
इस समय यह सेना सूर्य, चन्द्रमा और ताराओं से रहित आकाश की भाँति श्रीहीन दिखायी दे रही है । इसके प्रमुख वीरों में से और सब तो मारे गये, केवल अश्वत्थामा, कृतवर्मा, कर्ण, शल्य तथा कृपाचार्य- ये ही पाँच महारथी बाकी रह गये हैं, इन पाँचों को मारकर तुम शत्रुहीन हो जाओ और राजा युधिष्ठिर को द्वीप, नगर, समुद्र, पर्वत, बड़े-बड़े वन तथा आकाश और पाताल सहित समस्त पृथ्वी अर्पण कर दो ।
यदि अपने गुरु आचार्य द्रोण का सम्मान करने के कारण तुम उनके पुत्र अश्वत्थामा पर कृपादृष्टि रखते हो अथवा आचार्य का गौरव रखने के लिये कृपाचार्य पर तुम्हें दया आती हो, यदि माता के बन्धुजनों के प्रति आदर-बुद्धि होने से तुम कृतवर्मा को सामने पाकर भी यमलोक नहीं भेजना चाहते तथा माता माद्री के भाई मद्रराज शल्य को भी दयावश मारना नहीं चाहते तो न सही, किंतु पाण्डवों के प्रति अत्यन्त नीचता पूर्ण बर्ताव करने वाले इस पापी कर्ण को तो आज तीखे बाणों से मार ही डालो ।
यह तुम्हारे लिये पुण्य का काम होगा । मैं तुम्हें आज्ञा देता हूँ; कर्ण का वध करने में कोई दोष नहीं है । दुर्योधन ने पाँचों पुत्रों सहित माता कुन्ती को आधी रात के समय जो लाक्षाभवन में जलाने की कोशिश की तथा तुम लोगों के साथ जो वह जुआ खेलने में प्रवृत्त हुआ, उन सब षड्यन्त्रों का मूल कारण यह दुष्टात्मा कर्ण ही था ।
दुर्योधन को सदा से ही यह विश्वास था कि कर्ण मेरी रक्षा करेगा, इसीलिये वह क्रोध में भरकर मुझे भी कैद करने को तैयार हो गया था । उसने तुम लोगों के साथ जो-जो बुराइयाँ की हैं, उन सब में इस पापात्मा कर्ण की ही प्रधानता है । मित्र ! दुर्योधन के छ: निर्दयी महारथियों ने मिलकर जो सुभद्रा कुमार की जान ली थी, उस भयंकर संग्राम में इस कर्ण ने ही अभिमन्यु का धनुष काटा था ।
कर्ण द्वारा धनुष कट जाने पर शेष पाँच महारथियों ने, जो छल-कपट में बड़े प्रवीण थे, बाणों की बौछार से उसे मार डाला । उस वीर के इस तरह मारे जाने पर प्रायः सबको दुःख हुआ; केवल ये दुष्ट कर्ण और दुर्योधन ही जी भर कर हँसे थे । इतना ही नहीं, इसने कौरवों की भरी सभा में द्रौपदी को इस प्रकार कटुवचन सुनाये थे “कृष्णे ! पाण्डव तो नष्ट होकर सदा के लिये नरक में पड़ गये ! अब तू दूसरा पति वरण कर ले ।
आज से तू धृतराष्ट्र की दासी हुई; अत: राजमहल में जाकर अपना काम सँभाल । अब पाण्डव तुम्हारे स्वामी नहीं रहे । वे तेरे लिये कुछ कर भी नहीं सकते । तू दासों की स्त्री है और स्वयं भी दासी है” । बहुत-सी बातें कहीं, जो तुमने भी सुनी थीं । इसके अलावा भी इसने तुम लोगों के साथ अन्याय करके जो-जो पाप किये हैं उन सबको तथा इसके जीवन को भी तुम्हारे बाण नष्ट करें ।
आज दुरात्मा कर्ण अपने शरीर पर गाण्डीव धनुष से छूटे हुए भयंकर बाणों की चोट सहता हुआ आचार्य द्रोण तथा भीष्म के वचन याद करे । तुम्हारे सायकों से पीड़ित हुए राजा लोग आज दीन और विषादयुक्त होकर हाहाकार मचाते हुए कर्ण को रथ से नीचे गिरता देखें । राजा शल्य भी आज तुम्हारे सैकड़ों बाणों से छिन्न-भिन्न हुए रथी और अश्व से रहित रथ को छोड़ भयभीत होकर भाग जायँ ।
पार्थ ! यदि तुम सूतपुत्र कर्ण के देखते-देखते अपनी प्रतिज्ञा पूर्ति के लिये उसके पुत्र को मार डालो तो वह भीष्म, द्रोण और विदुर की बातों को याद करे । तुम्हारा मुख्य शत्रु दुर्योधन तुम्हारे हाथ से कर्ण को मारा गया देख आज अपने जीवन तथा राज्य से निराश हो जाय । जान पड़ता है, पंचाल देशीय वीर, द्रौपदी के पुत्र, धृष्टद्युम्न, शिखण्डी, धृष्टद्युम्न के पुत्र, शतानीक, नकुल-सहदेव, दुर्मुख, जनमेजय, सुधर्मा तथा सात्यकि-ये कर्ण के वश में पड़ गये हैं ।
उनका घोर आर्तनाद सुनायी पड़ता है । जो अपने मित्र के लिये प्राणों की परवा न करके सामने डटकर लड़ रहे हैं, उन सैकड़ों पांचाल वीरों को कर्ण यमलोक भेज रहा है । वे कर्ण रूपी अगाध महासागर में नाव के बिना डूब रहे हैं, अब तुम्हें ही नौका बनकर उनका उद्धार करना चाहिये । कर्ण ने भृगुवंशी परशुराम जी से जो अस्त्र प्राप्त किया था, उसी का अत्यन्त भयंकर रूप आज प्रकट हुआ है ।
वह घोर अस्त्र अपने तेज से प्रज्वलित हो तुम्हारी सेना को सब ओर से घेरकर संताप दे रहा है । यह देखो, भीम संजय-योद्धाओं से घिरे हुए हैं और अत्यन्त क्रोध में भरकर कर्ण से लड़ते हुए उसके पैने बाणों से पीड़ित हो रहे हैं ।
मैं युधिष्ठिर की सेना में तुम्हारे सिवा और किसी वीर को ऐसा नहीं देखता, जो कर्ण से लोहा लेकर कुशलपूर्वक घर लौट आवे । इसलिये तुम अपनी प्रतिज्ञा के अनुसार तेज किये हुए बाणों से आज कर्ण को मारकर उज्ज्वल कीर्ति प्राप्त करो । वीरवर ! मैं सच कहता हूँ, एक तुम्ही कर्ण सहित कौरवों को युद्ध में जीत सकते हो, दूसरा कोई नहीं । अतः महारथी कर्ण को मारकर तुम अपना मनोरथ सफल करो” ।