महाभारत युद्ध में जब कर्ण से पराजित, अपमानित और अत्यंत घायल हो कर युधिष्ठिर अपनी छावनी में लौट आये तो अर्जुन और श्रीकृष्ण उनका कुशल क्षेम जानने, बीच युद्ध से छावनी आये | उस समय कृष्ण और अर्जुन को अपने पास मिलने आया देख कर युधिष्ठिर अत्यंत प्रसन्न हुए, उन्हें लगा अर्जुन ने कर्ण का वध कर दिया है |
उन्होंने अर्जुन को इसके लिए शाबासी और बधाई भी दी लेकिन अभी तक कर्ण का वध अर्जुन ने नहीं किया था बल्कि कर्ण को अपने प्रलयंकारी रूप में पाण्डव सेना का संहार करते हुए, छोड़कर आये थे वे दोनों |
धर्मात्मा राजा युधिष्ठिर की यह बात सुनकर महारथी वीर अर्जुन इस प्रकार बोले “राजन् ! आज जब मैं संशप्तकों के साथ युद्ध कर रहा था, उस समय अश्वत्थामा बाणों की वर्षा करता हुआ सहसा मेरे सामने आ धमका । मेरे देखते ही देखते उसकी सारी सेना मेरे साथ युद्ध करने के लिये खड़ी हो गयी । तब मैं उस सेना के पाँच सौ वीरों को मारकर अश्वत्थामा पर जा चढ़ा ।
अश्वत्थामा अपने तीखे बाणों से मुझे और केशव को पीड़ा देने लगा । मेरे साथ लड़ते समय उसके पीछे आठ सौ आठ बैल बाणों का बोझा ढो रहे थे, उसने वे सभी बाण मुझ पर चलाये; किंतु मैंने अपने सायकों से उन सबको नष्ट कर डाला । तत्पश्चात् उसके ऊपर मैंने वज्र के समान तीस बाण मारे । उनसे छिद जाने के कारण उसका रूप शिकारी जानवर के समान दिखायी देने लगा ।
फिर तो अपने समस्त शरीर से खून की धारा बहाता हुआ वह सूतपुत्र के रथियों के दल में घुस गया | उस समय उसको दूसरे प्रधान-प्रधान योद्धा भी खून से लथपथ ही दिखायी पड़े । तदनन्तर, कौरव-सेना को पराजित तथा सैनिकों को भयभीत देख कर्ण पचास प्रधान-प्रधान रथियों को साथ लेकर बड़ी तेजी के साथ मेरी ओर चला ।
मैंने उसके सैनिकों का तो संहार कर डाला; मगर कर्ण को वहाँ ही छोड़कर आपका दर्शन करने के लिये जल्दी यहाँ चला आया । मैंने सुना कि कर्ण ने युद्ध में आपको बहुत घायल कर दिया है । कर्ण बड़ा क्रूर है, उसके सामने से आपका यहाँ चला आना अनुचित नहीं है । मैं समझता हूँ, वह समय युद्ध से हट जाने का ही था । युद्ध में अपने सामने ही मैंने कर्ण के अद्भुत अस्त्र को देखा है ।
पांचालों में कोई भी ऐसा वीर नहीं है, जो आज कर्ण का वेग सह सके । महाराज ! सात्यकि और धृष्टद्युम्न मेरे पहियों की रक्षा करें । राजकुमार युधामन्यु तथा उत्तमौजा-ये मेरे पृष्ठभाग की रक्षा में रहें । फिर मैं इस संग्राम में महारथी कर्ण के साथ युद्ध करूँगा । आपकी भी इच्छा हो तो आइये और देखिये, हम दोनों किस प्रकार एक दूसरे को जीतने का प्रयास करते हैं ।
यदि मैं आज बलपूर्वक कर्ण को उसके बन्धु-बान्धवों सहित न मार डालूँ तो प्रतिज्ञा करके उसका पालन न करने वालों को जो कष्टप्रद गति मिलती है, वही मुझे भी मिले । अब मैं आपसे युद्ध में जाने के लिये आज्ञा चाहता हूँ । आशीर्वाद दीजिये, जिससे रण में मेरी विजय हो । राजन् ! मैं सूतपुत्र कर्ण, उसकी सेना तथा सम्पूर्ण शत्रुओं का संहार करूँगा” ।
युधिष्ठिर कर्ण के बाणों की चोट से बहुत कष्ट पा रहे थे, अर्जुन के मुख से जब उन्होंने कर्ण के जीवित रहने का समाचार सुना तो उन्हें बड़ा क्रोध हुआ । वे धनंजय से इस प्रकार बोले “तात ! तुम्हारी सेना शत्रुओं से तिरस्कृत होकर रण से भाग गयी है और तुम जब कर्ण को नहीं मार सके तो भयभीत होकर भीम को अकेले ही छोड़ यहाँ भाग आये, यह तुमने खूब स्नेह निभाया !
वीर माता कुन्ती के गर्भ से जन्म लेकर तुमने यह अच्छा काम नहीं किया । द्वैतवन में तुमने यह सच्ची प्रतिज्ञा की थी कि “मैं अकेले ही कर्ण को मार डालूँगा”, फिर उसे जीते-जी ही छोड़कर तुम यहाँ कैसे चले आये ? अर्जुन ! जब तुम जन्म लेकर सात दिन के ही हुए थे, उस समय आकाशवाणी ने कुन्ती से कहा था “यह बालक इन्द्र के समान पराक्रमी होगा । समस्त शत्रुओं पर विजय पायेगा ।
यह खाण्डव वन में सम्पूर्ण देवताओं तथा सब प्राणियों को जीत लेगा । राजाओं के बीच यह मद्र, कलिंग, केकय तथा कौरव वीरों का संहार करेगा । संसार में इससे बढ़कर कोई भी धनुर्धर नहीं होगा । कोई भी प्राणी कभी युद्ध में इसे परास्त नहीं कर सकेगा । यह सम्पूर्ण विद्याओं का ज्ञाता तथा जितेन्द्रिय होगा । इच्छा करते ही यह समस्त प्राणियों को अपने अधीन कर लेगा ।
चन्द्रमा के समान इसकी कान्ति होगी और वायु के समान वेग । यह स्थिरता में मेरु और क्षमा में पृथ्वी के समान होगा । सूर्य के समान तेजस्वी, कुबेर के समान धनी, इन्द्र के समान पराक्रमी और भगवान् विष्णु के समान बलवान् होगा । कुन्ती ! जैसे अदिति के गर्भ से शत्रुहन्ता विष्णु ने जन्म लिया था, उसी प्रकार तुम्हारा यह महात्मा पुत्र भी तुम्हारे गर्भ से उत्पन्न हुआ है ।
अपने पक्ष की विजय तथा शत्रुपक्ष का संहार करने में इसकी ख्याति होगी । इससे ही वंश परम्परा का विस्तार होगा” । इस प्रकार शतशृंग पर्वत के ऊपर यह आकाशवाणी हुई, जिसे अनेकों तपस्वियों ने सुना । किंतु यह सत्य नहीं हुई । निश्चय ही अब देवता भी झूठ बोलने लगे हैं ।
सदा ही तुम्हारी प्रशंसा करने वाले बड़े-बड़े ऋषियों के मुख से भी मैंने ऐसी बातें सुनी हैं, इसीलिये मुझे दुर्योधन की उन्नति के विषय में कभी भी विश्वास नहीं हुआ तथा आज तक मुझे इस बात का भी पता नहीं था कि तुम कर्ण के भय से डरते हो । ऐसी परिस्थिति में अब मैं क्या कर सकता हूँ ? आज कौरवों, अपने मित्रों तथा अन्य सम्पूर्ण योद्धाओं के सामने मुझे सूतपुत्र के वश में होना पड़ा, इसलिये मेरे जीवन को धिक्कार है ।
पार्थ ! यदि तुम्हारा पुत्र महारथी अभिमन्यु आज जीवित होता तो वह शत्रु पक्ष के सम्पूर्ण महारथियों का नाश कर डालता । उसके रहते युद्ध में मुझे ऐसा अपमान कभी नहीं उठाना पड़ता । यदि घटोत्कच जीवित होता तो भी मुझे युद्ध से विमुख नहीं होना पड़ता ।
किंतु मैं अपने दुर्भाग्य के लिये क्या कहूँ, जान पड़ता है, मेरे पूर्वजन्म के पाप बड़े ही प्रबल हैं, तभी तो दुरात्मा कर्ण ने तुम्हें तिनके के समान भी न गिनकर मेरे साथ वह व्यवहार किया, जो किसी बन्धुहीन एवं असमर्थ मनुष्य के साथ किया जाता है । जो पुरुष आपत्ति में पड़े हुए को उससे छुड़ाता है, वही सच्चा बन्धु और सुहृद् है-ऐसा प्राचीन मुनियों का कथन है तथा सत्पुरुषों ने भी इस धर्म का सदा ही पालन किया है ।
परंतु तुमने नहीं किया । तुम्हारे पास विश्वकर्मा का बनाया हुआ रथ है, जिसके धुरे से कभी आवाज नहीं होती तथा जिसकी ध्वजा पर वानर विराजमान है । यही नहीं, तुम्हारे हाथ में गाण्डीव-जैसा धनुष है तथा भगवान् श्रीकृष्ण तुम्हारा रथ हाँकते हैं । इन सबके होते हुए भी तुम कर्ण से डरकर भाग कैसे आये ? यदि युद्ध में आज कर्ण का मुकाबला करने की शक्ति नहीं रखते तो जो राजा तुमसे अस्त्र-बल में बड़ा हो उसे ही अपना गाण्डीव धनुष दे दो ।
धिक्कार है तुम्हारे इस गाण्डीव को ! धिक्कार है तुम्हारी भुजाओं के पराक्रम को तथा धिक्कार है तुम्हारे इन असंख्य बाणों को ! अग्नि के दिये हुए इस रथ और ध्वजा को भी धिक्कार है” ! युधिष्ठिर के ऐसा कहने पर अर्जुन को बड़ा क्रोध हुआ । उन्होंने धर्मराज को मार डालने की इच्छा से हाथ में तलवार उठा ली ।
भगवान् श्रीकृष्ण तो सबके हृदय की बात जानने वाले ही ठहरे, उन्होंने अर्जुन का कोप देखते ही उनकी चेष्टा ताड़ ली और कहा “अर्जुन ! यह क्या ? तुमने तलवार क्यों उठायी ? यहाँ किसी से युद्ध करना हो-ऐसा तो नहीं दिखायी देता । मैं किसी ऐसे मनुष्य को भी यहाँ नहीं देखता, जो तुम्हारा वध्य हो । फिर प्रहार क्यों करना चाहते हो ? तुम पर सनक तो नहीं सवार हो गयी ? मैं पूछता हूँ, बताओ, इस समय क्या करने का विचार है” ?
श्रीकृष्ण के पूछने पर क्रोध में भरे हुए अर्जुन ने युधिष्ठिर की ओर देखते हुए कहा “गोविन्द ! मैंने गुप्तरूप से यह प्रतिज्ञा की है कि ‘जो कोई मुझसे ऐसा कह देगा कि तुम अपना गाण्डीव दूसरेको दे डालो, उसका मैं सिर काट लूँगा’ । राजा ने आपके सामने ही मुझसे ऐसी बात कही है, अत: मैं क्षमा नहीं कर सकता । आज इनका वध करके अपनी प्रतिज्ञा पूरी करूँगा ।
इसीलिये मैंने तलवार उठायी है । इस अवसर पर आप क्या करना उचित समझते हैं ? आप ही इस जगत के भूत और भविष्य को जानते हैं; आप जैसी आज्ञा दें वैसा ही करूँगा” । यह सुनकर श्रीकृष्ण ने कहा “धिक्कार है ! धिक्कार है” !! फिर वे अर्जुन से बोले “पार्थ ! आज मुझे मालूम हुआ कि तुमने कभी वृद्ध पुरुषों की सेवा नहीं की है, तभी तो तुम्हें इस समय क्रोध आ गया ।
धनंजय ! जो धर्म के विभाग को जानता है, वह कभी ऐसा नहीं कर सकता । इस समय यहाँ तुमने जैसा बर्ताव किया है, उससे तुम्हारी धर्मभीरुता तथा अज्ञता का पता चलता है । जो नहीं करने योग्य काम करता है तथा करने योग्य कार्य नहीं करता, वह मनुष्य अधम है ।
जो स्वयं धर्म का आचरण करके शिष्यों द्वारा उपासना किये जाने पर उन्हें धर्म का उपदेश देते हैं; धर्म के संक्षेप और विस्तार को जानने वाले उन गुरुजनों का इस विषय में क्या निर्णय है ? इसे तुम नहीं जानते । उस निर्णय को नहीं जानने वाला मनुष्य कर्तव्य और अकर्तव्य के निश्चय में तुम्हारी ही तरह असमर्थ एवं मोहित हो जाता है । क्या करना चाहिये और क्या नहीं ? इसे जान लेना सहज नहीं है ।
इसका ज्ञान होता है शास्त्र से और शास्त्र का तुम्हें पता ही नहीं है । अज्ञानवश अपने को धर्मवेत्ता मानकर जो तुम धर्म की रक्षा करने चले हो, उसमें जीव हिंसा का पाप है-यह बात तुम्हारे-जैसे धार्मिक की समझ में नहीं आती । तात ! मेरे विचार से प्राणियों की हिंसा न करना ही सबसे बड़ा धर्म है । किसी की प्राण रक्षा के लिये झूठ बोलना पड़े तो बोल दे, परंतु उसकी हिंसा न होने दे ।
भला, तुम्हारे-जैसा श्रेष्ठ पुरुष अन्य साधारण मनुष्यों के समान अपने धर्मज्ञ भाई एवं चक्रवर्ती राजा को मारने के लिये कैसे तैयार होगा ? भारत ! जो युद्ध न करता हो, शत्रुता न रखता हो, रण से विमुख होकर भागा जा रहा हो, शरण में आता हो, हाथ जोड़ कर पड़ा हो अथवा असावधान हो, ऐसे मनुष्य का वध करना श्रेष्ठ पुरुष अच्छा नहीं समझते ! तुम्हारे बड़े भाई में प्राय: उपर्युक्त सभी बातें हैं ।
तुमने नासमझ बालक की तरह पहले प्रतिज्ञा कर ली थी, इसलिये मूर्खतावश अधर्म युक्त कार्य करने को तैयार हो गये हो | पार्थ ! बताओ तो भला, धर्म के दुर्बोध एवं सूक्ष्म स्वरूप का अच्छी तरह विचार किये ही बिना अपने ज्येष्ठ भ्राता का वध करने को कैसे दौड़ पड़े ? पाण्डुनन्दन ! अब मैं तुम्हें धर्म का रहस्य बता रहा हूँ ।
पितामह भीष्म, धर्मज्ञ युधिष्ठिर, विदुर जी अथवा यशस्विनी कुन्ती देवी तुम्हें धर्म के जिस तत्त्व का उपदेश कर सकती हैं, उसको मैं ठीक-ठीक बता रहा हूँ, सुनो । सत्य बोलना बहुत अच्छा काम है, सत्य से बढ़कर कुछ भी नहीं है, फिर भी सत्यवादी को ही कभी-कभी सत्य के स्वरूप का ठीक-ठीक ज्ञान होना कठिन हो जाता है ।
देखो सत्य का अनुष्ठान कैसे होता है ? जहाँ सत्य का परिणाम असत् और असत्य का परिणाम सत् होता हो, वहाँ सत्य न बोलकर असत्य बोलना ही उचित है । किसी (अगर वह दुरात्मा न हो) के प्राणों का संकट आने पर, सर्वस्व का अपहरण होते समय तथा सत्पुरुषों की भलाई के लिये आवश्यकता हो तो असत्य बोल दे । इन तीन अवसरों पर झूठ बोलने पर पाप नहीं होता ।
जब किसी का सर्वस्व छीना जा रहा हो तो उसे बचाने के लिये झूठ बोलना कर्तव्य है । वहाँ असत्य ही सत्य और सत्य ही असत्य हो जाता है । जो वहाँ भी सत्य ही कह देता है ऐसे मनुष्य को लोग मूर्ख समझते हैं । पहले सत्य और असत्य का अच्छी तरह निर्णय करके जो परिणाम में सत्य हो उसका पालन करे । केवल अनुष्ठान की दृष्टि से असत्यरूप सत्य का भाषण नहीं करना चाहिये ।
जो ऐसा करता है, वही धर्मवेत्ता है । जिसकी बुद्धि निष्काम है, वह मनुष्य अंधे पशु को मारने वाले बलाक नामक व्याध की भाँति अत्यन्त कठोर कर्म करके भी यदि महान् पुण्य प्राप्त कर ले तो क्या आश्चर्य है ? इसी तरह जो धर्म- पालन की इच्छा तो रखता है, पर है मूर्ख और गँवार; वह नदियों के संगम पर बसे हुए कौशिक मुनि की भाँति यदि अज्ञान पूर्वक धर्म करके भी महान् पाप का भागी हो जाय तो क्या आश्चर्य है” ?
अर्जुन ने कहा “भगवन् ! बलाक और कौशिक मुनि की कथा मुझे सुनाइये, जिससे मैं इस विषय को अच्छी तरह समझ लूँ” । श्रीकृष्ण ने कहा “भारत ! एक व्याध था, जिसका नाम था बलाक । वह अपनी स्त्री और पुत्रों को जीवन रक्षा के लिये मृगों को मारा करता था, कामना या आसक्ति के वशीभूत होकर नहीं । बूढ़े माता-पिता तथा अन्य आश्रित जनों का पालन-पोषण किया करता था ।
सदा अपने धर्म में लगा रहता, सत्य बोलता और किसी की निन्दा नहीं करता था । एक दिन वह मृगों को मारकर लाने के लिये वन में गया, किंतु कोशिश करने पर भी उसे उस दिन कोई मृग नहीं मिला । इतने में उसकी दृष्टि पानी पीते हुए एक शिकारी जानवर पर पड़ी, जो अंधा था, वह नाक से सूंघकर ही आँख का काम निकाला करता था ।
यद्यपि वैसे जानवर को व्याध ने पहले कभी नहीं देखा था, तो भी उसने उसे मार डाला । अंधे के मरते ही आकाश से फूलों की वृष्टि होने लगी । व्याध को ले जाने के लिये स्वर्ग से एक सुन्दर विमान उतर आया, जिस पर अप्सराओं के गाने-बजाने का मनोरम शब्द हो रहा था । बात यह थी कि उस जन्तु ने पूर्वकाल में तप करके सम्पूर्ण प्राणियों का संहार कर डालने के लिये वर प्राप्त किया था, इसीलिये ब्रह्माजी ने उसे अंधा बना दिया था ।
वह प्राणी समस्त जीवों का अन्त कर देने का निश्चय किये हुए था, अत: उसे मार कर व्याध स्वर्ग में गया । इस प्रकार धर्म के स्वरूप को समझना बड़ा कठिन है। | इसी तरह कौशिक नाम का एक तपस्वी ब्राह्मण था, जो बहुत पढ़ा-लिखा नहीं था । वह गाँव से दूर नदियों के संगम के बीच रहा करता था । उसने यह व्रत ले लिया था कि ‘मैं सदा सत्य बोलूँगा’ । इससे वह ‘सत्यवादी’ नाम से विख्यात हो गया ।
एक दिन की बात है, कुछ लोग लुटेरों के भय से छिपने के लिये उसके आश्रम के पास के वन में घुस गये । लुटेरे भी यत्नपूर्वक उनका पता लगा रहे थे । वे सत्यवादी कौशिक के पास आकर बोले “भगवन् ! बहुत-से लोग, जो इधर ही आये हैं, किस रास्ते से गये हैं ? हम सच्ची बात पूछते हैं, यदि आप जानते हों तो बता दीजिये” ।
उनके पूछने पर कौशिक ने सच्ची बात कह दी “इस वन में, जहाँ घने वृक्ष, लता और झाड़ियाँ हैं, उधर ही वे गये हैं” । पता लग जाने पर उन निर्दयी डाकुओं ने सब लोगों को पकड़कर मार डाला । ऐसी किंवदन्ती है कि इस प्रकार वाणी का दुरुपयोग करने के कारण ब्राह्मण को महान् पाप लगा और उस पाप की वजह से कौशिक को दुःखदायी नरक की हवा खानी पड़ी, क्योंकि वह धर्म के सूक्ष्म स्वरूप को बिलकुल नहीं जानता था ।
इसी तरह जिसने शास्त्र बहुत कम पढ़ा है, जो गँवार है, धर्म के विभाग को ठीक-ठीक नहीं जानता, वह मनुष्य यदि वृद्ध पुरुषों से अपने संदेह नहीं पूछता तो उसे महान् नरक का-सा कष्ट उठाना पड़ता है । अब तुम्हारे लिये संक्षेप से धर्म की पहचान बतायी जाती है । कितने ही मनुष्य ‘परमज्ञान’ रूप धर्म को तर्क के द्वारा जानने का प्रयत्न करते हैं, किंतु बहुत लोग ऐसा कहते हैं कि वेदों से ही धर्म का ज्ञान होता है ।
मैंने जो यहाँ धर्म के स्वरूप की व्याख्या की है, वह समस्त प्राणियों के लाभ को ही दृष्टि में रखकर की है । धर्म के सम्बन्ध में ऐसा निश्चय है कि जो अहिंसायुक्त है, वही धर्म है । हिंसकों को हिंसा से रोकने के लिये धर्म की यह व्याख्या की गयी है । धर्म ही प्रजा को धारण करता है और धारण करने के कारण ही उसे धर्म कहते हैं, इसलिये जो प्राण रक्षा से युक्त हो, जिसमें किसी भी जीव की हिंसा न की जाती हो, वही धर्म है-यही धर्मवेत्ताओं का सिद्धान्त है ।
जो लोग स्वयं अन्याय पूर्वक धन छीन लेने की इच्छा रखते हुए दूसरों से सत्य-भाषण कराना चाहते हैं, वहाँ यदि मौन रहने से छुटकारा मिल जाय तो वैसा ही करे, किसी भी तरह से बोले ही नहीं, अपने मुख से शब्द ही न निकाले । किंतु यदि ऐसी परिस्थितियाँ बन जाये कि वहाँ बोलना अनिवार्य हो जाय और न बोलने से लुटेरों या अत्याचारियों को संदेह होने लगे तो वहाँ असत्य बोलना ही ठीक है, वही धर्म है वहां । इसी को बिना विचारे सत्य समझो ।
अब अपनी प्रतिज्ञा के विषय में सुनों, जो मनुष्य किसी काम के लिये प्रतिज्ञा करके उसका प्रकारान्तर (किसी और प्रकार से) से पालन करता है, उसे उसका फल (दुष्परिणाम) नहीं मिलता-ऐसा मनीषी विद्वानों का कथन है । प्राण संकट की स्थिति में, समस्त कुटुम्बियों के प्राणान्त का समय उपस्थित होने पर या हँसी-परिहास में यदि असत्य बोला गया हो तो वह असत्य नहीं माना जाता । धर्म का तत्त्व जानने वाले विद्वान् उक्त अवसरों पर मिथ्या बोलने में पाप नहीं मानते ।
जहाँ लुटेरों के चंगुल में फँस जाने पर झूठी शपथ खाने से छुटकारा मिलता हो, वहाँ झूठ बोलना ही ठीक है, इसी को बिना विचारे सत्य समझो । जहाँ तक वश चले उन लुटेरों को धन नहीं देना चाहिये; क्योंकि पापियों को दिया हुआ धन दाता को दुःख देता है ।
अत: धर्म के लिये झूठ बोलने पर भी मनुष्य को झूठ का दोष नहीं लगता । अर्जुन ! मैं तुम्हारा हित चाहता हूँ, इसीलिये अपनी बुद्धि तथा धर्म के अनुसार मैंने संक्षेप से तुम्हें यह धर्म का लक्षण बताया है । इसे तुमने सुना, अब बताओ, क्या इस समय भी युधिष्ठिर को वध्य ही समझते हो ?