महाभारत युद्ध का आँखों देखा हाल बताते हुए संजय धृतराष्ट्र से कहते हैं “राजन् ! दूसरी ओर से युधिष्ठिर को आते देख आपका पुत्र दुर्योधन क्रोध में भर गया । उसने अपनी आधी सेना साथ ले सहसा निकट जाकर उन्हें सब ओर से घेर लिया और तिहत्तर क्षुरप्र मार कर उनको बींध डाला । कुन्तीनन्दन युधिष्ठिर ने भी क्रोध में भरकर आपके पुत्र को तुरंत ही तीस भल्ल मारे । यह देख उन्हें पकड़ने के लिये कौरव पक्ष के योद्धा टूट पड़े ।
उस समय शत्रुओं के खोटे विचार जान कर महारथी नकुल, सहदेव तथा धृष्टद्युम्न एक अक्षौहिणी सेना के साथ युधिष्ठिर के पास आ धमके । वहाँ पहुँचते ही सहदेव ने बड़ी फुर्ती के साथ दुर्योधन को बीस बाण मारे । इतने में कर्ण युधिष्ठिर की सेना का संहार करने लगा । उसके बाणों से पीड़ित होकर वह सेना सहसा भाग खड़ी हुई । तब राजा युधिष्ठिर को बड़ा क्रोध हुआ ।
उन्होंने तेज किये हुए पचास बाणों से कर्ण को बींध डाला । तदनन्तर, उन दोनों में भयंकर युद्ध छिड़ा । धर्मराज शान पर चढ़ाकर तेज किये हुए भाँति-भाँति के बाणों, भल्लों, शक्ति, ऋष्टि तथा मुसलों से आपकी सेना का संहार करने लगे । उस समय आपके योद्धाओं में हाहाकार मच गया । धर्मात्मा युधिष्ठिर जहाँ-जहाँ दृष्टि डालते थे, वहाँ-वहाँ के सैनिकों का सफाया हो जाता था ।
यह देख कर्ण अत्यन्त कुपित होकर युधिष्ठिर पर नाराच, अर्धचन्द्र तथा वत्सदन्त आदि का प्रहार करने लगा । युधिष्ठिर ने भी तेज किये हुए बाणों से कर्ण को घायल कर डाला । फिर कर्ण ने हँसते-हँसते तेज किये हुए बाणों तथा तीन भल्लों से युधिष्ठिर की छाती छेद डाली । इससे धर्मराज को बड़ी पीड़ा हुई । वे रथ के पिछले भाग में बैठ गये और सारथि को वहाँ से चल देने की आज्ञा की ।
उन्हें जाते देख दुर्योधन सहित सभी कौरव ‘इसे पकड़ो-पकड़ो’ कहकर चिल्लाते हुए उनके पीछे दौड़ पड़े । इतने ही में पांचाल योद्धाओं के साथ सत्रह सौ केकय वीरों ने आकर कौरवों को आगे बढ़ने से रोक दिया । उस समय राजा युधिष्ठिर बाणों के प्रहार से बहुत घायल हो गये थे । वे नकुल तथा सहदेव के बीच में होकर धीरे-धीरे छावनी की ओर जा रहे थे, उनका होश ठिकाने नहीं था ।
ऐसी अवस्था में भी कर्ण ने दुर्योधन के हित की इच्छा से युधिष्ठिर का पीछा किया और उन्हें तीन तीखे बाणों से बींध डाला । युधिष्ठिर ने भी कर्ण की छाती में बाण मारकर बदला चुकाया । इसके बाद तीन बाणों से उसके सारथि को और चार से चारों घोड़ों को बींध डाला । फिर नकुल और सहदेव ने भी बड़े प्रयास के साथ कर्ण पर बाणों की वर्षा की ।
इसी प्रकार सूत पुत्र कर्ण ने भी तीखी धार वाले दो भल्लों से नकुल और सहदेव को घायल कर दिया । फिर युधिष्ठिर के घोड़ों को मार कर एक भल्ल से उनके मस्तक के टोप को नीचे गिरा दिया । इसी तरह नकुल के भी घोड़ों को मौत के घाट उतार कर उसके रथ की ईषा और धनुष को भी काट डाला । रथ टूट जाने पर वे दोनों पाण्डु कुमार अत्यन्त घायल होकर सहदेव के रथ पर जा बैठे ।
उन दोनों को रथहीन देख उनके मामा मद्रराज शल्य को बड़ी दया आयी । उन्होंने सूतपुत्र से कहा- “कर्ण ! तुम्हें तो आज अर्जुन से युद्ध करना है, फिर अत्यन्त क्रोध में भरकर धर्मराज से किसलिये लड़ रहे हो ? इन्हें मारने से तुम्हें क्या फायदा होगा ? इधर देखो, अर्जुन रथियों की सेना का संहार कर रहे हैं । अपने बाणों की वर्षा से हमारी सम्पूर्ण सेना को काल का ग्रास बना रहे हैं ।
उधर, भीमसेन दुर्योधन को दबोचे हुए हैं | हम लोगों के देखते-देखते वे उसे मार न डालें-इसके लिये प्रयत्न करना चाहिये । इन माद्री के पुत्रों अथवा राजा युधिष्ठिर को मारने से क्या लाभ होगा ? दुर्योधन का प्राण संकट में पड़ा है, उसे चलकर बचाओ” । कर्ण ने शल्य की यह बात सुनी और देखा कि दुर्योधन भीम सेन के चंगुल में फँस चुका है, तो युधिष्ठिर और नकुल-सहदेव को वहाँ ही छोड़कर आपके पुत्र को बचाने के लिये वह दौड़ पड़ा ।
उसके चले जाने पर युधिष्ठिर सहदेव के तेज चलने वाले घोड़ों द्वारा वहाँ से खिसक गये । राजा को अपनी पराजय के कारण बड़ी लज्जा हो रही थी । नकुल और सहदेव के साथ अपने घायल शरीर से छावनी पर पहुँचकर वे रथ से उतरे और एक सुन्दर पलंग पर लेट गये । उस समय उनके देह से बाण निकाल डाले गये तो भी हृदय के घाव से उन्हें बड़ी पीड़ा होने लगी ।
उन्होंने दोनों भाई माद्री के पुत्रों से कहा “भीमसेन मेघ के समान गरज कर लड़ रहे हैं, तुम दोनों सहायता के लिये उनकी ही सेना में जाओ” । उनकी आज्ञा पाकर नकुल दूसरे रथ पर सवार हुआ । सहदेव के पास तो रथ था ही । दोनों भाई अपने शीघ्रगामी घोड़े हाँक कर भीमसेन की सेना में जा पहुंचे ।