महाभारत युद्ध में जब कर्ण और शल्य का वाकयुद्ध अपने चरम पर पहुँच गया तो शल्य की अप्रिय बातें सुनकर कर्ण ने कहा “शल्य ! अर्जुन का रथ हाँकने वाले कृष्ण के बल और अर्जुन के दिव्यास्त्रों का जैसा मुझे पता है वैसा तुम उन्हें नहीं जान सकते । तो भी उन दोनों के साथ मैं बेधड़क होकर संग्राम करूँगा । किंतु विप्रवर परशुराम जी ने मुझे जो शाप दिया है, आज वह मुझे बहुत संतप्त (परेशान) कर रहा है ।
पूर्वकाल में मैं दिव्य अस्त्रों की प्राप्ति के लिये ब्राह्मण वेष धारण करके परशुराम जी के यहाँ रहा था । उस समय अर्जुन का हित करने के लिये वहाँ भी इन्द्र ने ही मेरे काम में विघ्न डाला था । एक बार गुरु जी मेरी जाँघ पर सिर रखे सो रहे थे, उस समय उसने एक बेडौल कीड़े के रूप में आकर मेरी जाँघ में काटा । उसके जोर से काटने के कारण मेरे शरीर से खून की धारा बहने लगी ।
किंतु गुरुजी की निद्रा न टूट जाय इस भय से मैं तनिक भी न हिला-डुला । जगने पर उन्होंने वह सब घटना देखी । मुझे ऐसा धैर्यवान् देखकर उन्होंने कहा, “अरे! तू ब्राह्मण तो है नहीं, ठीक-ठीक बता, किस जातिका है” ? तब मैंने उन्हें ठीक-ठीक बता दिया कि ‘मैं सूत हूँ ।’
मेरी बात सुनकर महातपस्वी परशुराम जी क्रोध में भर गये और मुझे शाप दिया कि “सूत ! तूने ब्राह्मण का वेष बनाकर यह ब्रह्मास्त्र प्राप्त किया है, इसलिये काम पड़ने पर तुझे इसका स्मरण न रहेगा” । इसी से इस अत्यन्त भयंकर घोर संग्राम के समय मैं उसे भूल गया हूँ । शल्य ! भरतवंश में उत्पन्न हुआ यह अर्जुन बड़ा ही पराक्रमी, भीषण और सबका संहार करनेवाला है ।
मालूम होता है, आज बड़ा तुमुल युद्ध होगा और यह अनेकों क्षत्रिय वीरों को संतप्त कर डालेगा । तो भी सत्यप्रतिज्ञ अर्जुन के साथ मैं अवश्य संग्राम करूँगा और उसे मृत्यु के मुख में डालकर छोड़ूंगा । मुझे एक दूसरा अस्त्र भी मिला हुआ है, उसी से मैं संग्राम भूमि में अतुलित तेजस्वी अर्जुन को धराशायी करूँगा । शल्य ! मैं संग्राम भूमि में अर्जुन के साथ जय या मृत्यु को ही सामने रखकर युद्ध करूँगा ।
मेरे सिवा और ऐसा कोई वीर नहीं है जो इन्द्र के समान पराक्रमी पार्थ के साथ अकेला रथारूढ़ होकर युद्ध कर सके । तुम तो निरे मूर्ख और मूढचित्त हो । तुम मुझे अर्जुन के बल पराक्रम की बातें क्या सुनाते हो ? अब मैं स्वयं ही संग्राम भूमि में उसके पराक्रम से प्रसन्न होकर क्षत्रियों की सभा में उसका वर्णन करूँगा ।
जो पुरुष अप्रिय, निष्ठुर, क्षुद्र, आक्षेप करने वाला और क्षमाशीलों का तिरस्कार करने वाला होता है, उसके जैसे सैकड़ों को भी मैं मिट्टी में मिला देता हूँ किंतु आज केवल समय की ओर देखकर मैं तुम्हें क्षमा कर रहा हूँ । मेरा तो तुम्हारे साथ बड़ी सरलता का बर्ताव है, किंतु तुम टेढ़ी-टेढ़ी बातें करते हो । तुम बड़े ही मित्रद्रोही हो । मित्रता तो सात पग साथ रहने से हो जाती है ।
यह बड़ा ही कठोर समय आ गया है । राजा दुर्योधन रणभूमि में आ गये हैं । मैं उन्हीं की विजयेच्छा से यहाँ आया हूँ । किंतु तुम अर्जुन की ही गुणगाथा गाये जाते हो, जब कि वास्तव में उसके प्रति तुम्हारा अटूट प्रेम सम्बन्ध भी नहीं है । आज विजय प्राप्त करने के लिये मैं अर्जुन पर अपना अप्रमेय और अजेय ब्रह्मास्त्र छोडूंगा ।
इस दिव्य अस्त्र के प्रभाव से मैं दण्डपाणि यम, पाशहस्त वरुण, गदाधर कुबेर और वज्रपाणि इन्द्र से तथा किसी अन्य आततायी शत्रु से भी नहीं डरता हूँ; अत: मुझे श्रीकृष्ण और अर्जुन से भी किसी प्रकार का भय नहीं है | परंतु मुझे एक भय अवश्य है | एक बार की बात है, मैं विजय के उद्देश्य से अस्त्र पाने के लिये घूम रहा था ।
उस समय अनेकों भीषण बाणों को चलाने का अभ्यास करते-करते मैंने भूल से एक होमधेनु के बछड़े को बाण मार दिया । बेचारा बछड़ा निर्जन वन में चर रहा था । यह देखकर उसके स्वामी ब्राह्मण ने कहा, चूँकि तुमने इस निरपराध होमधेनु के बच्चे को मारा है, इसलिये संग्राम में लड़ते-लड़ते तुम्हारे रथ का पहिया गड्ढे में फँस जायगा और तुम बड़ी विपत्ति में फँस जाओगे ।
ब्राह्मण के उस प्रबल शाप से मुझे आज भी भय बना हुआ है । उस ब्राह्मण को मैंने हजार गौएँ और छ: सौ बैल देने चाहे, परंतु मैं उसे प्रसन्न न कर सका । मैं बड़े सत्कार पूर्वक उस ब्राह्मण को अपना भरा-पूरा घर और भोग सामग्रियों के सहित सारी सम्पत्ति देनी चाही, किंतु उसने उसे लेना स्वीकार न किया । इस प्रकार जब मैं प्रयत्नपूर्वक अपना अपराध क्षमा कराने लगा तो उस ब्राह्मण ने कहा, “सूतपुत्र ! मैंने जो बात कही है वह तो बदल नहीं सकती ।
मिथ्या भाषण प्रजा का नाश करने वाला होता है । यदि मैं अपने कथन को मिथ्या कर दूंगा तो मुझे पाप लगेगा । अत: धर्म की रक्षा के लिये मैं झूठ तो बोल नहीं सकता । मुझसे झूठ बुलवाकर तुम मेरी ब्राह्मी गति का उच्छेद न करो । लोक में कोई भी मेरी बात को मिथ्या नहीं कर सकता । अतः अब तुम शान्त हो जाओ” । इस प्रकार यद्यपि तुमने मेरा तिरस्कार किया है तो भी मैंने सौहार्दवश तुम्हें यह प्रसंग सुना दिया है ।
अब तुम चुप रहो और आगे की बात पर ध्यान दो । तुम मेरे साथी, स्नेही और मित्र हो । इन तीन कारणों से ही अब तक जीवित बचे हुए हो । इस समय मेरे सामने राजा दुर्योधन का बड़ा भारी काम है और उसकी जिम्मेवारी भी मेरे ही ऊपर है । मैं तुम्हारे कठोर वचनों को क्षमा करने की प्रतिज्ञा कर चुका हूँ । शत्रुओं पर विजय तो तुम-जैसे हजारों शल्यों की सहायता के बिना भी मैं पा सकता हूँ ।
किंतु मित्र से द्रोह करना बड़ा पाप है, इसी से तुम अब तक बचे हुए हो” । शल्य ने कहा “कर्ण ! तुम अपने शत्रुओं के विषय में जो कुछ कह रहे हो वह सब तो तुम्हारा बकवाद ही है । मैं सहस्रों कर्णो की सहायता के बिना भी युद्ध में शत्रुओं को जीत सकता हूँ । मद्रराज के इस प्रकार कहने पर कर्ण उनसे दोगुने कटुवाक्य कहने लगा । वह बोला, “मद्रराज ! मैं जो बात कहता हूँ उसे जरा ध्यान देकर सुनो ।
इस बात की चर्चा मैंने महाराज धृतराष्ट्र के पास सुनी थी । एक बार उनके महल में कई ब्राह्मण अनेकों अद्भुत देशों और प्राचीन वृत्तान्तों का वर्णन कर रहे थे । वहाँ एक बूढ़े ब्राह्मण ने वाह्नीक और मद्रदेश की निन्दा करते हुए कहा था “जो हिमालय, गंगा, सरस्वती, यमुना और कुरुक्षेत्र से बाहर तथा सिन्धु और उसकी पाँच सहायक नदियों के बीच में स्थित है वह वाह्नीक देश धर्मबाह्य और अपवित्र है । उससे सर्वदा दूर रहना चाहिये ।
मैं एक गुप्त कार्यवश कुछ दिन वाह्नीक देश में रहा था । उस समय मैंने उनके आचार-विचार के विषय में बहुत सी बातें जान ली थीं । जहाँ शाकल नाम का नगर और आपगा नाम की नदी है वहाँ जर्तिका नाम के वाह्नीक रहते हैं । उनका चरित्र बड़ा निन्दनीय होता है । ऐसा कौन बुद्धिमान् होगा जो उन दुश्चरित्र, संस्कार हीन और दुरात्मा वाह्नीकों के साथ मुहूर्त भर भी रहना पसंद करेगा” ।
उस ब्राह्मण ने वाह्नीकों को ऐसा दुराचारी बताया था । उनमें धर्म कैसे रह सकता है ? वाह्नीक देश के लोग उपनयन आदि संस्कारों से रहित होने के होने के कारण पतित समझे जाते हैं; । वे धर्मभ्रष्ट तथा यज्ञ के अधिकार से वंचित होते हैं । इन्हीं सब कारणों से उनके दिये हुए हव्य, कव्य और दान को देवता, पितर तथा ब्राह्मण लोग नहीं स्वीकार करते, यह बात लोगों में खूब प्रसिद्ध है ।
एक विद्वान् ब्राह्मण ने तो यहाँ तक कहा था कि ‘वाह्नीक लोग काठ और मिट्टी की बनी हुई कुंडियों में भोजन करते हैं । उनमें शराब लिपटा रहता है, कुत्ते उन बर्तनों को चाटते रहते हैं, तो भी उनमें खाते समय उन्हें तनिक भी घृणा नहीं होती । वे भेड़, ऊँटनी और गदही के दूध पीते हैं तथा उस दूध के दही, मक्खन और छाछ आदि भी खातेपीते हैं ।
इतना ही नहीं, वे वर्ण-संकर संतान उत्पन्न करने वाले और दुराचारी होते हैं । शुद्ध-अशुद्ध का विचार छोड़कर सब तरह का अन्न खा लेते हैं । इसलिये विद्वानों को चाहिये कि ‘आरट्ट’ नाम से प्रसिद्ध उन वाह्नीकों का संसर्ग त्याग दें” । इसी प्रकार कारस्कर, माहिषक, कर्कोटक, वीरक और दुर्धर्म नामक देशों का भी त्याग करना उचित है ।
प्रस्थल, मद्र, गान्धार, आरट्ट, खश, वसाति, सिन्धु तथा सौवीर देश प्रायः निन्दित और अपवित्र माने गये हैं । पांचाल देश के लोग वेदों का स्वाध्याय करते हैं, कुरु देश के निवासी धर्म का आश्रय लेते है । मत्स्य देश के लोग सत्यवादी और शूरसेन निवासी यज्ञ करने वाले होते हैं । पूरब के लोग दासवृत्ति करते हैं, दक्षिणी लोगों का बर्ताव शूद्रों के समान होता है ।
मगध देश के मनुष्य इशारे से ही बात समझ लेते हैं, कोसल की प्रजा दृष्टि के संकेत को समझती है, कुरु और पांचाल के लोग आधी बात कह देने पर पूरी बात समझ पाते हैं तथा शाल्व देश के निवासी पूरी बात कहने से ही उसे हृदयंगम करते हैं । शिवि देश की प्रजा पहाड़ी आदिवासियों की तरह बुद्धिमान नहीं होती है ।
यवन लोग सब बातों को अनायास ही समझ लेते और विशेषतः शूरवीर होते हैं । म्लेच्छ जाति के लोग अपने संकेत के अनुसार बर्ताव करते हैं । दूसरे सभी लोग पूरी बात कहे बिना उसे नहीं समझ पाते । वाह्नीक और मद्र देश के मनुष्य तो पूरे गँवार होते हैं, वे किसी रथी का मुकाबला नहीं कर सकते । शल्य ! तुम भी ऐसे ही हो । तुममें उत्तर देने की भी योग्यता नहीं है ।
मैं तो डंके की चोट पर कहता हूँ “मद्र देश पृथ्वी के समस्त देशों का मल है । ऐसा समझकर तुम अपनी जिव्हा बंद करो, मेरा विरोध न करो; नहीं तो पहले तुम्हारा ही वध करके पीछे श्रीकृष्ण और अर्जुन को मारूंगा” । शल्य ने कहा “कर्ण ! तुम जिस देश के राजा बने बैठे हो, उस अंगदेश में क्या होता है? अपने ही सगे-सम्बन्धी जब रोग से पीड़ित हो जाते हैं तो उनका त्याग कर दिया जाता है ।
अपनी ही स्त्री और बच्चों को वहाँ के लोग सरे बाजार बेचते हैं । उस दिन रथी और अतिरथियों की गणना करते समय भीष्म जी ने तुमसे जो कुछ कहा था, अपने उन दोषों पर ध्यान दो और क्रोध छोड़कर शान्त हो जाओ । सभी देशों में ब्राह्मण हैं, सर्वत्र क्षत्रिय, वैश्य और शूद्र हैं तथा सब जगह सुन्दर व्रत का पालन करने वाली सती साध्वी स्त्रियाँ भी हैं ।
सब देशों में अपने-अपने धर्म का पालन करने वाले राजा लोग हैं, जो दुष्टों को दण्ड देते हैं । इसी प्रकार धार्मिक मनुष्य भी सर्वत्र होते हैं । किसी देश के सभी निवासी पाप ही करते हों-यह बात ठीक नहीं है; उसी देश में ऐसे-ऐसे सच्चरित्र और सदाचारी मनुष्य भी होते हैं, जिनकी बराबरी देवता भी नहीं कर सकते । कर्ण ! दूसरों के दोष बताने में सभी लोग बड़े प्रवीण होते हैं, किंतु उन्हें अपने दोषों का पता नहीं रहता । अथवा अपने दोष जानते हुए भी वे ऐसे भोले बने रहते हैं, मानो उन्हें कुछ पता ही न हो ।
इस प्रकार कर्ण और शल्य को परस्पर विवाद करते देख राजा दुर्योधन ने उन दोनों को रोका । उसने कर्ण को मित्रभाव से समझाया तथा शल्य के सामने हाथ जोड़कर प्रार्थना की । उसके मना करने से कर्ण मान गया और उसने शल्य की बात का कोई जवाब नहीं दिया । शल्य ने भी शत्रुओं की ओर अपना मुँह फेर लिया । तब राधा नन्दन कर्ण ने हँसकर शल्य को पुनः रथ आगे बढ़ाने की आज्ञा दी ।