एक बार दुर्योधन ने कर्ण के विषय में समझते हुए राजा शल्य से कहा “महाराज शल्य ! पूर्वकाल में महर्षि मार्कण्डेय ने मेरे पिताजी से एक उपाख्यान कहा था । वह सब कथा मैं आपको सुनाता हूँ । उसे सुनिये और मैंने जो प्रार्थना की है, उसके विषय में किसी प्रकार का विचार न कीजिये । पहले तारकामय नाम का एक संग्राम हुआ था । उसमें देवताओं ने दैत्यों को परास्त कर दिया । उस समय तारक दैत्य के ताराक्ष, कमलाक्ष और विद्युन्माली नाम के तीन पुत्र थे ।
उन्होंने कठोर नियमों का पालन करते हुए बड़ी ही भीषण तपस्या की और अपने शरीरों को बिलकुल सुखा दिया । उनके संयम, तप, नियम और समाधि से पितामह ब्रह्मा जी प्रसन्न हो गये और उन्हें वर देने के लिये पधारे । उन तीनों दैत्यों ने सर्वलोकेश्वर श्री ब्रह्माजी को प्रणाम किया और उनसे कहा, “पितामह ! आप हमें ऐसा वर दीजिये कि हम तीन नगरों में बैठकर इस सारी पृथ्वी पर आकाशमार्ग से विचरते रहें ।
इस प्रकार एक हजार वर्ष बीतने पर हम एक जगह मिलें । उस समय जब हमारे तीनों पुर मिलकर एक हो जायँ तो उस समय जो देवता उन्हें एक ही बाण से नष्ट कर सके, वही हमारी मृत्यु का कारण हो” । इस पर श्री ब्रह्माजी “ऐसा ही हो” यह कह कर अपने लोक को चले गये । ब्रह्माजी से ऐसा वर पाकर वे दैत्य बड़े प्रसन्न हुए । उन्होंने आपस में सलाह करके मय दानव के पास जाकर तीन नगर बनाने को कहा ।
अत्यन्त बुद्धिमान मय ने अपने तप के प्रभाव से तीन पुर तैयार किये । उनमें एक सोने का, एक चाँदी का और एक लोहे का था । सोने का नगर स्वर्ग में, चाँदी का अन्तरिक्ष में और लोहे का पृथ्वी में रहा । ये तीनों ही नगर इच्छानुसार आ-जा सकते थे । इनमें से प्रत्येक की लंबाई-चौड़ाई सौ-सौ योजन थी । इनमें आपस में सटे हुए बड़े-बड़े भवन और खुली हुई सड़कें थीं तथा अनेकों प्रासादों और राजद्वारों से इनकी बड़ी शोभा हो रही थी ।
इन नगरों के अलग-अलग राजा थे । सुवर्णमय नगर तारकाक्ष का था, रजतमय कमलाक्ष का और लोहमय नगर विद्युन्माली का । इन तीनों दैत्यों ने अपने शस्त्रबल से तीनों लोकों को अपने काबू में कर लिया । इन दैत्यों के पास जहाँ-तहाँ से करोड़ों दानव योद्धा आकर एकत्रित हो गये । इन तीनों पुरों में रहने वाला जो पुरुष जैसी इच्छा करता, उसकी उस कामना को मयासुर अपनी माया से उसी समय पूरी कर देता था ।
तारकाक्ष के हरि नाम का एक महाबली पुत्र था । उसने बड़ी कठोर तपस्या की । इससे ब्रह्माजी उस पर प्रसन्न हो गये । उन्हें संतुष्ट देखकर हरि ने यह वर माँगा कि “हमारे नगर में एक ऐसी बावड़ी बन जाय कि जिसमें डालने पर शस्त्र से घायल या मृत हुए योद्धा, जीवित हो कर और भी अधिक बलवान् हो जायँ” । इस प्रकार ब्रह्माजी से वर पाकर तारकाक्ष के पुत्र हरि ने अपने नगर में एक मुर्दो को जीवित कर देने वाली बावड़ी बनवायी ।
दैत्यलोग जिस रूप और जिस वेष में मरते थे उस बावड़ी में डालने पर वे उसी रूप, उसी वेष में जीवित होकर निकल आते थे । इस प्रकार उस बावड़ी को पाकर वे सारे लोकों को कष्ट देने लगे तथा अपनी घोर तपस्या से सिद्धि पाकर वे देवताओं के भय की वृद्धि करने लगे । युद्ध में उनका किसी भी प्रकार नाश नहीं हो सकता था । अब तो वे लोभ और मोह से अंधे होकर एकदम मतवाले हो गये ।
उन्होंने लज्जा को एक ओर रख दिया और सब ओर लूट-मार करने लगे । वरदान के मद में चूर होकर वे समय-समय पर जहाँ-तहाँ देवताओं को भगाकर स्वेच्छा से विचरने लगे । उन मर्यादाहीन दुष्ट दानवों ने देवताओं के प्रिय उद्यान और ऋषियों के पवित्र आश्रमों को नष्ट-भ्रष्ट कर डाला | इस प्रकार जब सब लोक पीड़ित होने लगे तो मरुद्गण को साथ लेकर देवराज इन्द्र ने चढ़ाई कर दी और उन नगरों पर वे सब ओर वज्र-प्रहार करने लगे |
किंतु जब वे ब्रह्माजी के वर के प्रभाव से उन अभेद्य नगरों को तोड़ने में समर्थ न हुए तो भयभीत होकर अनेकों देवताओं को साथ ले ब्रह्माजी के पास गये और उन्हें दैत्यों के कारण मिलने वाले अपने कष्टों की कहानी सुनायी । इस प्रकार सारा हाल सुनाकर उन्होंने प्रणाम करके ब्रह्माजी से उनके वध का उपाय पूछा । देवताओं की सब बातें सुनकर भगवान् ब्रह्माजी ने कहा, “जो दैत्य तुम लोगों को दुःख दे रहा है, वह तो मेरा अपराध करने में भी नहीं चूकता ।
इसमें संदेह नहीं, मैं सब प्राणियों के लिये समान हूँ । परंतु मेरा नियम है कि अधर्मियों का तो नाश ही करना चाहिये । इसके लिये उन तीनों नगरों को एक ही बाण से तोड़ना होगा । किंतु इस काम को करने में श्री महादेव जी के सिवा और कोई समर्थ नहीं है । इसलिये तुम सब उनके पास जाकर यह वर माँगो । वे अवश्य उन दैत्यों को मार डालेंगे” । ब्रह्माजी की यह बात सुनकर इन्द्रादि सब देवता उन्हीं के नेतृत्व में श्री महादेव जी की शरण में गये ।
भगवान् शंकर अपने शरणापन्नों को भय के समय अभयदान करने वाले और सबके आत्मस्वरूप हैं । उनके पास जाकर वे सब उनकी स्तुति करने लगे । तब उन्हें तेजोराशि पार्वतीपति श्री महादेव जी का दर्शन हुआ । सभी ने पृथ्वी पर सिर रखकर उन्हें प्रणाम किया और महादेव जी ने आशीर्वाद द्वारा सत्कार करके सबको उठाया । फिर वे मुसकराते हुए कहने लगे, “कहो, कहो, तुम्हारी क्या इच्छा है?”
भगवान की आज्ञा पाकर देवता लोग स्वस्थचित्त होकर कहने लगे, “देवाधिदेव ! आपको नमस्कार है । प्रजापति भी आपकी स्तुति करते हैं और हम सब ने भी आपकी स्तुति की है | आप सभी की स्तुति के पात्र हैं और सभी आपकी स्तुति करते हैं । शम्भो ! हम आपको नमस्कार करते हैं । आप सबके आश्रयस्थान और सभी का संहार करनेवाले हैं । ऐसे ब्रह्मस्वरूप आपको हम नमस्कार करते हैं ।
आप सभी के अधीश्वर और नियन्ता हैं तथा वनस्पति, मनुष्य, गौ और यज्ञों के पति हैं । हम आपको नमस्कार करते हैं । देव ! हम मन, वाणी और कर्मों से आपके शरणापन्न हैं; आप हम पर कृपा कीजिये” । तब भगवान् शंकर ने प्रसन्न होकर उनका स्वागत-सत्कार करते हुए कहा, “देवगण ! भय को छोड़िये और बताइये, मैं आपका क्या काम करूँ” ?
इस प्रकार जब महादेव जी ने देवता, ऋषि और पितृगण को अभयदान दिया तो ब्रह्माजी ने उनका सत्कार करके संसार के हित के लिये कहा, “सर्वेश्वर ! आपकी कृपा से इस प्रजापति के पद पर प्रतिष्ठित होकर मैंने दानवों को एक महान् वर दे दिया था । उसके कारण उन्होंने सब प्रकार की मर्यादा तोड़ दी है । अब आपके सिवा उनका और कोई भी संहार नहीं कर सकता । देवता लोग आपकी शरण में आकर यही प्रार्थना कर रहे हैं, सो आप इन पर कृपा कीजिये” ।
तब महादेव जी ने कहा, “देवताओ ! मैं धनुष बाण धारण करके रथ में सवार हो संग्राम भूमि में तुम्हारे शत्रुओं का संहार करूँगा । अतः तुम मेरे लिये एक ऐसा रथ और धनुष-बाण तलाश करो, जिनके द्वारा मैं इन नगरों को पृथ्वी पर गिरा सकूँ” । देवताओं ने कहा “देवेश्वर ! हम तीनों लोकों के तत्त्वों को जहाँ-तहाँ से इकट्ठे करके आप के लिये एक तेजोमय रथ तैयार करेंगे” ।
ऐसा कहकर उन्होंने विश्वकर्मा के द्वारा रचे हुए एक विशाल रथ को महादेव जी के लिये तैयार किया । उन्होंने विष्णु, चन्द्रमा और अग्नि को बाण बनाया तथा बड़े-बड़े नगरों से भरी हुई पर्वत, वन और द्वीपों से व्याप्त वसुन्धरा को ही उनका रथ बना दिया । इन्द्र, वरुण, यम और कुबेर आदि लोकपालों को घोड़े बनाया एवं मन को आधार भूमि बना दिया । इस प्रकार जब वह श्रेष्ठ रथ तैयार हो गया तो महादेवजी ने उसमें अपने आयुध रखे ।
ब्रह्मदण्ड, कालदण्ड, रुद्रदण्ड और ज्वर, ये सब ओर मुख किये उस रथ की रक्षा में नियुक्त हुए | अथर्वा और अंगिरा उनके चक्ररक्षक बने | ऋग्वेद, सामवेद और समस्त पुराण उस रथ के आगे चलने वाले योद्धा हुए | इतिहास और यजुर्वेद पृष्ठरक्षक बने तथा दिव्यवाणी और विद्याएँ पार्श्वरक्षक बनीं । स्तोत्र तथा वषट्कार और ओंकार रथ के अग्रभाग में सुशोभित हुए ।
उन्होंने छहों ऋतुओं से सुशोभित संवत्सर को अपना धनुष बनाया तथा अपनी छाया को धनुष की अखण्ड प्रत्यंचा के स्थान में रखा । इस प्रकार रथ को तैयार देख वे कवच और धनुष धारण कर विष्णु, सोम और अग्नि से बने हुए दिव्य बाण को लेकर युद्ध के लिये तैयार हो गये । तब देवताओं ने सुगन्धयुक्त वायु को उनके लिये हवा करने को नियुक्त किया । तब महादेव जी समस्त युद्धसज्जा से सुसज्जित हो पृथ्वी को कम्पायमान करते रथ पर सवार हुए ।
बड़े-बड़े ऋषि, गन्धर्व, देवता और अप्सराओं के समूह उनकी स्तुति करने लगे । इस समय भगवान् शंकर खड्ग, बाण और धनुष धारण करके बड़ी ही शोभा पा रहे थे । उन्होंने हँसकर कहा, “मेरा सारथि कौन बनेगा? देवताओं ने कहा, “देवेश्वर ! आप जिसे आज्ञा देंगे, वही आपका सारथि बन जायगा, इसमें आप तनिक भी संदेह न करें” ।
तब भगवान ने कहा, “तुम स्वयं ही विचार करके जो मुझसे श्रेष्ठ हो, उसे मेरा सारथि बना दो” । यह सुनकर देवताओं ने पितामह ब्रह्माजी के पास जाकर उन्हें प्रसन्न करके कहा, “भगवन् ! आपने हमसे पहले ही कहा था कि मैं तुम्हारा हित करूँगा, सो अपना वह वचन पूरा कीजिये । देव ! हमने जो रथ तैयार किया है, वह बड़ा ही दुर्धर्ष है | भगवान् शंकर उसके योद्धा नियुक्त किये गये हैं, पर्वतों के सहित पृथ्वी ही रथ है तथा नक्षत्रमाला ही उसका वरूथ है ।
किन्तु उसका कोई सारथि दिखायी नहीं देता । सारथि इन सबकी अपेक्षा बढ़-चढ़कर होना चाहिये, क्योंकि रथ तो उसी के अधीन रहता है । हमारी दृष्टि में आपके सिवा और कोई भी इसका सारथि बनने योग्य नहीं है । आप सर्वगुण सम्पन्न और सब देवताओं में श्रेष्ठ हैं । अतः अब आप ही रथ पर बैठकर घोड़ों की रास सँभालिये” । ब्रह्माजी ने कहा “देवताओ ! तुम जो कुछ कहते हो, उसमें कोई बात झूठ नहीं है । अत: जिस समय भगवान् शंकर युद्ध करेंगे, मैं अवश्य उनके घोड़े हाँकूँगा” ।
तब देवताओं ने सम्पूर्ण लोकों के स्रष्टा भगवान् ब्रह्माजी को श्री महादेव जी का सारथि बनाया । जिस समय वे उस विश्ववन्द्य रथ पर बैठे, उसके घोड़ों ने पृथ्वी पर सिर टेककर उन्हें प्रणाम किया । परम तेजस्वी भगवान् ब्रह्मा ने रथ पर चढ़ कर घोड़ों की रास और कोड़ा सँभाला और श्री महादेव जी से कहा “देवश्रेष्ठ ! रथ पर सवार होइये” । तब भगवान् शंकर, विष्णु, सोम और अग्नि से उत्पन्न हुआ बाण लेकर अपने धनुष से शत्रुओं को कम्पायमान करते रथ पर चढ़े ।
उस समय महर्षि, गन्धर्व, देवसमूह और अप्सराओं ने उनकी स्तुति की । भगवान् शिव रथ पर बैठकर अपने तेज से तीनों लोकों को देदीप्यमान करने लगे । उन्होंने इन्द्रादि देवताओं से कहा, “तुम लोग ऐसा संदेह मत करना कि यह बाण इन पुरों को नष्ट नहीं कर सकेगा, अब तुम इस बाण से इन असुरों का अन्त हुआ ही समझो” । देवताओं ने कहा, “आपका कथन बिलकुल ठीक है । अब इन दैत्यों का अन्त हुआ ही समझना चाहिये ।
आपका वचन किसी प्रकार मिथ्या नहीं हो सकता” । इस प्रकार विचार करके देवता लोग बड़े प्रसन्न हुए । इसके बाद देवाधिदेव श्री महादेव जी उस विशाल रथ पर चढ़कर सब देवताओं के साथ चले | उनके इस प्रकार कूच करने पर सारा संसार और देवता लोग प्रसन्न हो गये । ऋषिगण अनेकों स्तोत्रों से उनकी स्तुति करने लगे और करोड़ों गन्धर्व गण तरह तरह के बाजे बजाने लगे । अब भगवान् शंकर ने मुसकरा कर कहा, “प्रजापते ! चलिये, जिधर वे दैत्यगण हैं, उधर ही घोड़े बढ़ाइये” ।
तब ब्रह्माजी ने अपने मन और वायु के समान वेगवान् घोड़ों को दैत्य और दानवों से रक्षित उन तीनों पुरों की ओर बढ़ाया । इस समय नन्दीश्वर ने बड़ी भारी गर्जना की, जिससे सारी दिशाएँ गूंज उठीं । उनका वह भीषण नाद सुनकर तारकासुर के अनेकों दैत्य नष्ट हो गये । उनके सिवा जो शेष रहे, वे युद्ध के लिये उनके सामने आ गये । अब त्रिशूलपाणि भगवान् शंकर ने क्रोध में भरकर अपने धनुष पर रौंदा चढ़ाया और उस पर बाण चढ़ाकर उसे पाशुपतास्त्र से युक्त किया ।
फिर वे तीनों पुरों के इकट्ठे होने का चिन्तन करने लगे । इस प्रकार जब वे धनुष चढ़ाकर तैयार हो गये तो उसी समय तीनों नगर मिलकर एक हो गये । यह देखकर देवता लोग बड़ी हर्ष ध्वनि करने लगे तथा सिद्ध और महर्षियों के सहित उनकी स्तुति करते हुए जय जय कार करने लगे । इस प्रकार जब असह्य तेजस्वी भगवान् शंकर असुरों का संहार करने की तैयारी कर रहे थे, उनके सामने तीनों पुर एकत्रित होकर प्रकट हुए ।
उन्होंने तुरंत ही अपना दिव्य धनुष खींचकर उन पर वह त्रिलोकी का सारभूत बाण छोड़ा । उस बाण के छूटते ही तीनों पुर नष्ट होकर गिर गये । उस समय बड़ा ही आर्तनाद हुआ । महादेव जी ने उन असुरों को भस्म करके पश्चिम समुद्र में डाल दिया । इस प्रकार त्रिलोक हितकारी भगवान् शिव ने कुपित होकर उस त्रिपुर का दाह किया और दैत्यों को निर्मूल कर दिया ।
फिर अपने क्रोध से उत्पन्न हुई अग्नि को रोककर उन्होंने कहा, “तू त्रिलोकी को भस्म न कर” । इस प्रकार दैत्यों का नाश हो जाने पर समस्त देवता, ऋषि और लोक प्रकृतिस्थ हो गये तथा बड़े श्रेष्ठ वचनों से भगवान् शंकर की स्तुति करने लगे । फिर भगवान की आज्ञा पाकर ब्रह्मादि सभी देवगण सफल मनोरथ होकर अपने-अपने स्थानों को चले गये । इस तरह श्री महादेव जी ने समस्त लोकों का कल्याण किया था ।
उस समय जिस प्रकार जगत्कर्ता भगवान् ब्रह्माजी ने उनका सारथ्य किया था उसी प्रकार आप भी वीरवर कर्ण के अश्वों का संचालन कीजिये । राजन् ! इसमें संदेह नहीं कि आप श्रीकृष्ण, कर्ण और अर्जुन से भी श्रेष्ठ हैं । कर्ण युद्ध करने में श्री महादेव जी के समान है तो आप रथ हाँकने में साक्षात् ब्रह्माजी के सदृश हैं । अत: आप दोनों मिलकर मेरे शत्रुओं को उन दैत्यों के समान ही परास्त कर सकते हैं ।
महाराज ! अब आप ऐसा उपाय कीजिये जिससे आज कर्ण संग्राम भूमि में अर्जुन का वध कर सके । कर्ण की, हमारी और हमारे राज्य की स्थिति अब आपही के ऊपर निर्भर है । हमारी विजय भी आप पर ही अवलम्बित है । अतः आप कर्ण के घोड़ों का नियन्त्रण कीजिये । महाराज ! कर्ण को स्वयं श्री परशुराम जी ने धनुर्विद्या सिखायी है । यदि इसमें कोई दोष होता तो वे इसे कभी दिव्य अस्त्र न देते ।
मैं तो कर्ण को क्षत्रियकुल में उत्पन्न हुआ कोई देवपुत्र ही समझता हूँ । यह कवच और कुण्डल पहने उत्पन्न हुआ है तथा वह विशालबाहु और महारथी है; इसलिये इसका जन्म सूतकुल में होना किसी प्रकार सम्भव नहीं है ।