पाण्डव कौन थे, देवताओं के अंश से उनका अवतरण किस प्रकार संभव हुआ?
प्राचीन काल की बात है | यादवों में शूरसेन नामक एक श्रेष्ठ राजा हुए, जो वसुदेव जी के पिता थे । कालान्तर में शूरसेन को एक कन्या उत्पन्न हुई, जिसका नाम उन्होंने पृथा रखा । शूरसेन के फुफेरे भाई थे कुन्तिभोज | वे संतानहीन थे ।
शूरसेन ने अपने भाई कुन्तिभोज से पहले ही प्रतिज्ञा कर रखी थी कि ‘मैं तुम्हें अपनी पहली संतान भेंट कर दूँगा’ । प्रतिज्ञा के अनुसार शूरसेन ने अपनी पहली संतान जो की उनकी कन्या पृथा थी, कुन्तिभोज को लालन-पालन के लिए दे दी ।
कुन्तिभोज की धर्मकन्या होने से पृथा का नाम कुन्ती हो गया । कुन्ती को राजपरिवार में देवताओं के पूजन तथा अतिथियों के सत्कार का कार्य सौंपा गया । एक समय वहाँ महर्षि दुर्वासा जी आये । अपने महान् क्रोध के लिए पहचाने जाने वाले दुर्वासा ऋषि को कुन्ती ने अपने सेवाभाव से संतुष्ट कर दिया । वे कुन्ती पर प्रसन्न हुए |
आशीर्वाद स्वरूप उन्होंने, उन्हें एक वशीकरण मंत्र दिया, जो तीनो लोक में प्रभावी था, एवं उसके प्रयोग की विधि भी कुंती को बता दी और कहा “शुभे ! तुम इस मंत्र द्वारा जिस-जिस देवता का आवाहन करोगी, उसी-उसी के अनुग्रह से तुम्हें पुत्र प्राप्त होगा” | कुन्ती उन महान ऋषि के अनुग्रह से प्रसन्न हुई | समय बीतता रहा, कुन्ती अब विवाह योग्य हो गयी ।
उस समय की परम्परा के अनुसार राजा कुन्तिभोज ने कुन्ती के विवाह के लिए स्वयंवर का आयोजन किया और स्वयंवर में कुन्ती ने भरतवंश शिरोमणि, नृप श्रेष्ठ पाण्डु का वरण किया । विवाह के पश्चात् , कुन्ती महाराज पाण्डु के साथ हस्तिनापुर आ गयीं । हस्तिनापुर नरेश पाण्डु का दूसरा विवाह मद्रदेश के अधिपति महाराज शल्य की बहन माद्री के साथ हुआ ।
एक समय की बात है, राजा पाण्डु एक विशाल वन में विचरण कर रहे थे, वहाँ उन्होंने आखेट के लिए एक मृग-मृगी के युगल को, अपने बाणों से बींध डाला, पर वास्तव में वे युगल ऋषि दम्पति थे । फलस्वरूप उन्हें उन ऋषि द्वारा शाप प्राप्त हुआ कि ‘वे भी जब स्त्री प्रसंग में प्रवृत्त होंगे तो उन्हें भी स्त्री संग मृत्यु का वरण करना पड़ेगा |
उन ऋषि दम्पति का यह दारूण शाप सुनकर राजा पांडु अत्यन्त दुःखी तथा भयभीत हो गये और फिर वानप्रस्थ धर्म का आश्रय लेकर शतश्रृंग पर्वत पर दोनों रानियों के साथ वे तपस्या में प्रवृत्त हो गये, किंतु संतानहीनता का कष्ट उन्हें सताता रहा ।
एक दिन उन्होंने कुन्ती के सामने अपनी संतानहीनता के लिए चिन्ता प्रकट की और पुत्र प्राप्ति के लिये उन्हें कोई अन्य प्रयत्न करने की आज्ञा दी । तब कुन्ती ने हाथ जोड़कर किशोरावस्था में महर्षि दुर्वासा से प्राप्त वरदान की बात उन्हें बतलायी और कहा “आप आज्ञा दें, मैं किस देवता का आवाहन करूँ” । कुन्ती की बात सुनकर पाण्डु को बड़ी प्रसन्नता हुई और उन्होंने कहा “प्रिये ! मैं धन्य हूँ, तुमने मुझ पर महान् अनुग्रह किया है ।
तुम्हीं मेरे कुल को धारण करने वाली हो । उन महर्षि को भी नमस्कार है, जिन्होंने तुम्हें ऐसा वर दिया । धर्मज्ञे ! अधर्म से प्रजा का पालन नहीं हो सकता । इसलिये हे वरारोहे ! तुम आज ही विधिपूर्वक प्रयत्न करो । शुभे ! सबसे पहले तुम धर्मराज का आवाहन करो, क्योंकि वे ही सम्पूर्ण लोकों मे धर्मात्मा हैं । धर्म के द्वारा दिया हुआ जो पुत्र होगा, उसका मन अधर्म में नहीं लगेगा” |
पति से इस प्रकार आज्ञा प्राप्त कर कुन्ती ने उनकी परिक्रमा की और मन्त्र पढ़कर अच्युतस्वरूप भगवान् धर्म का आवाहन किया । ऋषियों का शाप और वरदान अमोघ होता है, वह कभी निष्फल नहीं हो सकता । कुन्ती के आवाहन करते ही साक्षात् धर्मदेवता, अपने सूर्य के समान तेजस्वी विमान में बैठकर उस स्थान पर पहुँचे, जहाँ देवी कुन्ती विराजमान थी |
देवी कुन्ती का आशय समझकर धर्म देवता ने अपने दिव्य तेज से उन्हें पुत्र प्राप्ति के लिए गर्भ धारण कराया और यथासमय कुन्ती ने साक्षात् धर्मावतार एक तेजस्वी पुत्र को जन्म दिया । वे ही धर्मराज युधिष्ठिर के नाम से समस्त लोकों में विख्यात हुए ।
पुत्र के जन्म लेते ही वहाँ अद्भुत आकाशवाणी हुई, जो इस प्रकार थी “यह श्रेष्ठ पुरूष धर्मात्माओं में अग्रगण्य होगा और इस पृथ्वी पर पराक्रमी एवं सत्यवादी राजा होगा । पाण्डु का यह प्रथम पुत्र ‘युधिष्ठिर’ नाम से विख्यात हो कर तीनों लोकों में प्रसिद्धि एवं ख्याति प्राप्त करेगा | यह यशस्वी, तेजस्वी तथा सदाचारी होगा” ।
धर्मदेव के अंशावतार धर्मराज युधिष्ठिर को पुत्र रूप में प्राप्त कर महाराज पाण्डु को महान् प्रसन्नता हुई । वे ख़ुशी से फूले नहीं समाये | वे पुनः कुन्ती से बोले “प्रिये ! क्षत्रिय को बल से ही महान कहा गया है, अतः एक ऐसे पुत्र का वरण करो, जो बल में सबसे श्रेष्ठ हो । चूँकि मैंने सुना है कि वायु देवता बल-पराक्रम में सबसे बढ़-चढ़कर हैं, अतः तुम इस बार उन महान पराक्रमी वायुदेव का आवाहन करो” ।
पति से इस प्रकार आज्ञा पा कर कुन्ती ने इस बार पवन देव का ध्यान कर उनका आवाहन किया । फलस्वरूप उसी समय अपने मृगरुपी विचित्र विमान पर आरूढ़ हो कर पवन देव वहाँ उपस्थित हुए और देवी कुन्ती का आशय समझकर उन्होंने देवी कुन्ती को अपने दिव्य तेज से, नियत समय पर पुत्र प्राप्ति का वर दिया ।
फलस्वरूप महान बलशाली भीम का प्राकटय हुआ । भीमसेन को पुत्र रूप में प्राप्त करने के बाद, भगवान् की प्रेरणा से, राजा पाण्डु के मन में एक ऐसे पुत्र की अभिलाषा जगी, जो सब प्रकार से श्रेष्ठ हो तथा सभी सुलक्षणों से सम्पन्न हो । तब उन्होंने विचार किया कि देवताओं में तो इन्द्र ही सबसे श्रेष्ठ हैं, इसीलिए वे ‘देवराज’इन्द्र हैं, अतः पुत्र प्राप्ति के लिये मुझे भी उनकी आराधना करनी चाहिये ।
यह निश्चय कर वे एक पैर पर खड़े होकर उग्र तप में प्रवृत्त हो गये । उनके तप से प्रसन्न हो कर देवराज इन्द्र अपने अत्यन्त द्रुतगामी विमान के साथ वहाँ उपस्थित हुए और पांडु की मन्शा समझ कर उन्होंने उनसे कहा “राजन् ! मैं तुम्हें ऐसा पुत्र दूँगा, जो तीनों लाकों में विख्यात होगा” |
इन्द्र के वरदान से प्रसन्न हुए पाण्डु ने देवी कुन्ती से कहा “कल्याणि ! देवताओं के अधिपति इन्द्र हम पर प्रसन्न हैं और हमारे सकंल्प के अनुसार हमें पुत्र देना चाहते हैं, अतः तुम ऐसे ऐश्वर्यशाली पुत्र की प्राप्ति के लिये इस बार देवराज इन्द्र का आवाहन करो” ।
तदनन्तर देवी कुन्ती ने देवराज इन्द्र का स्मरण कर उनका आवाहन किया । अपने अमोघ वज्र के साथ देवराज इन्द्र वहां उपस्थित हो गये और उनके दिव्य तेज़ से कुन्ती ने अर्जुन को जन्म दिया । फाल्गुन मास और फाल्गुनी नक्षत्र में जन्म लेने के कारण उनका नाम फाल्गुन रखा गया |
उनके जन्म के समय इस प्रकार आकाशवाणी हुई “कुन्तीभोज कुमारी ! यह बालक कार्तवीर्यार्जुन के समान तेजस्वी, भगवान् शिव के समान पराक्रमी और देवराज इन्द्र के समान अजेय होकर तुम्हारे यश का दिग-दिगन्त तक विस्तार करेगा । जैसे भगवान् विष्णु ने वामन रूप में प्रकट होकर देवमाता अदिति के हर्ष को बढ़ाया था, उसी प्रकार यह अर्जुन तुम्हारी प्रसन्नता को बढ़ायेगा” ।
इसी आकाशवाणी के साथ वहाँ आकाश से पुष्पवृष्टि होने लगी और देव-दुन्दुभियों का तुमुलनाद बड़े जोर से गूँज उठा । सारे देवता वहाँ उपस्थित होकर हर्षध्वनि करने लगे । इधर, राजा पांडु की दूसरी पत्नी, देवी माद्री के मन में भी संतान-सुख की लालसा जगी । उन्होंने स्वयं महारानी कुन्ती से अपने मन की बात कही ।
माद्री की इस प्रकार से इच्छा जानने के बाद कुन्ती ने माद्री से कहा “मै तुम्हे मन्त्र बताऊँगी, तुम एक बार किसी देवता का चिन्तन करो, उससे तुम्हें योग्य संतान की प्राप्ति होगी, इसमें संशय नहीं है” |
तब माद्री ने बहुत सोच-विचारकर दोनों अश्विनी कुमारों का स्मरण किया और उन दोनों ने उपस्थित होकर अपने दिव्य तेज़ से, देवी माद्री को दो युगल पुत्र प्राप्त कराये । उनमें से एक का नाम रखा गया नकुल और दूसरे का सहदेव ।
उन दोनों के जन्म के समय आकाशवाणी हुई “ये दोनों बालक अश्विनी कुमारों से भी बढ़कर बुद्धि, रूप और गुणों से सम्पन्न होंगे तथा अपने तेज एवं बढ़ी-चढ़ी रूप-सम्पत्ति के द्वारा ये दोनों सदा प्रकाशित रहेंगे” ।
इस प्रकार से पाँचों पाण्डव देवताओं के अंशावतार के रूप में प्रकट हुए और उन्होंने धर्म की रक्षा के लिये महान् प्रयत्न किया । ये वो समय था जब द्वापर युग का अवसान हो रहा था और कलियुग का प्राकट्य होने वाला था | लेकिन भगवान् के अनन्य भक्त इन पाँचों भाइयों ने साक्षात् परमेश्वर की सहायता से धर्म की स्थापना एवं दुष्टों का नाश किया ।
अर्जुन को तो साक्षात् नर का अवतार ही कहा गया है । साक्षात् हरि ही जब भक्तों पर कृपा करने के लिये नाना अवतार धारण करते हैं तो वे ही नर-नारायण-इन दो रूपों में अवतार धारण कर बदरिकाश्रम में लोकमंगल के लिये तप करते हैं और वे ही पुनः श्रीकृष्ण चन्द्र और अर्जुन के रूप में द्वापर के अंत में पृथ्वी पर अवतीर्ण हुए ।
इसी तथ्य को महाभारत में बताते हुए कहा गया है कि एक ही सत् तत्व नर-नारायण के रूप् में द्विधा व्यक्त है, नारायण को कृष्ण तथा फाल्गुन (अर्जुन) को नर कहा गया है | देवताओं के अंश से प्रकट हुए पाण्डवों के दिव्य चरित्र में ध्यान देने वाली बात यह है कि उन्होंने भगवान् श्रीकृष्ण का आश्रय ग्रहण किया था । धर्मराज युधिष्ठिर तो श्री कृष्ण चन्द्र को ही अपना सर्वस्व मानते थे । वे श्रीकृष्ण की इच्छा के अनुसार ही वे चलते थे ।
ईश्वर सदा उनके साथ होते हैं, जो धर्म के साथ होते हैं | रास्ते में भले ही कितने कष्ट एवं झंझावातों के बादल आयें लेकिन जो वीर इनमे अडिग, अविचल खड़ा हो कर इनका सामना करता है और धर्म का साथ नहीं छोड़ता वही ईश्वर का कृपापात्र होता है | इसी से श्याम सुन्दर सदा उन्हीं पाण्डवों के पक्ष में रहते थे, और उन्होंने कभी उन्हें नहीं छोड़ा । अन्तर्तारकीय (Interstellar) महाभारत के युद्ध में पाण्डवों की विजय इसी धर्म तथा ईश्वर में भक्ति के कारण हुई ।