जगतगुरु आदि शंकराचार्य जी के परकाया प्रवेश की घटना विश्व प्रसिद्द है | घटना के अनुसार, वैदिक धर्म की पुनर्स्थापना के लिए आदि गुरु शंकराचार्य ने जब वाराणसी में विरोधी विद्वानों को शास्त्रों में परास्त कर दिया तो उनका शास्त्रार्थ अद्वैतवाद के समर्थन में भी प्रारंभ हुआ |
उनका शास्त्रार्थ ब्रह्म के ‘एकोहम द्वितीयो नास्ति’ के आधार पर प्रारंभ हुआ | अद्वैत सिद्धांत के समर्थन में जब उन्हें काशी में विजय प्राप्त हो गई तब वह मिथिला की ओर बढ़े | उन दिनों मिथिला में श्री मंडन मिश्र नामक एक बड़े भारी विद्वान थे |
उस क्षेत्र में उन्ही का आभामंडल था चारो तरफ | मिथिला पहुंचने पर आचार्य शंकर का मंडन मिश्र से डट कर शास्त्रार्थ हुआ | शास्त्रार्थ कई दिनों तक चला | अंत में आचार्य शंकर से मंडन मिश्र हार गए |
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यहाँ यह बात सभी को ध्यान में रखना चाहिए कि भारतीय सनातन परम्परा में, शास्त्रार्थ में कुतर्क का कोई स्थान नहीं है | प्राचीन काल में लोग शुद्ध तत्व चिन्तन पर आधारित तर्कों एवं अनुभव जनित ज्ञान के आधार पर ही शास्त्रार्थ करते थे |
मंडन मिश्र की धर्मपत्नी भारती बहुत विदुषी महिला थी | अपने पति और आदि गुरु शंकराचार्य के शास्त्रार्थ में भारती ने ही मध्यस्थता की थी | अपने पतिदेव के हारने पर उन्हें बड़ा दुःख हुआ था | अंत में भारती ने आचार्य शंकर से गंभीर हो कर कहा “सन्यासी ! पति का आधा शरीर उसकी पत्नी होती है | आपने मेरे पति को परास्त किया, अब आप मुझ से शास्त्रार्थ करें” |
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आचार्य शंकर ने भारती से शास्त्रार्थ करना स्वीकार कर लिया | भारती और आचार्य शंकर का भी कई दिनों तक शास्त्रार्थ चला | अंत में भारती भी हारने लगी | तब भारती को एक उपाय सूझा | भारती ने मन में विचार किया कि सन्यासी को काम कला का कुछ भी ज्ञान नहीं होता है | फिर यह तो बालक पन में ही सन्यासी हो गए हैं | अतः इन्हें काम-कला का बिल्कुल भी ज्ञान नहीं होगा |
और तुरंत ही भारती ने काम-कला पर शास्त्रार्थ प्रारंभ कर दिया | आचार्य शंकर वास्तव में काम-कला से अनभिज्ञ थे | एक, दो प्रश्नों के उत्तर के बाद आचार्य ने थोड़े समय के लिए अवसर मांगा | भारती ने अवसर दे दिया | आचार्य शंकर ने अपनी सूक्ष्म दृष्टी से देखा कि एक नवयुवक राजा अचानक किसी कारण से मर गया है |
आचार्य ने अपने शिष्यों को अपने पार्थिक शरीर की रक्षा के लिए समझा दिया और स्वयं योग विधि से अपनी जीव-आत्मा का सद्योमृत राजा के शरीर में प्रवेश करा दिया | राजा का शरीर प्राणवान हो गया और युवक राजा उठ बैठे | रनिंवास में आनंद की लहर छा गई | हाँलाकि यह रहस्य किसी के समझ में आया नहीं | लेकिन आचार्य ने राजा के उसके मानव शरीर से क्रमशः काम कला का अनुभव से पूरा ज्ञान प्राप्त कर लिया था |
अपनी विद्या को पूरी करके आचार्य निश्छल और निर्विकार भाव से राजा के शरीर को त्याग कर के अपने शरीर में प्रवेश कर गए | राज्य में पुनः शोक की लहर दौड़ गयी और राजा पुनः मरे हुए समझे जाने लगे |
उधर आचार्य शंकर अपने कर्तव्यों की ओर पुनः अग्रसर हुए | अबकी बार भारती और आचार्य में जो शास्त्रार्थ हुआ तो उसमें भारती को हारना पड़ा | शास्त्रार्थ समाप्त होने पर मंडन मिश्र और उनकी पत्नी भारती दोनों आचार्य शंकर के शिष्य हो गए |