पूरी दुनिया में पुनर्जन्म के कई मामले देखने को मिले हैं, जिसमे से कुछ-एक महत्वपूर्ण घटनाएं रहस्यमय में भी प्रकाशित हुई हैं लेकिन आज हम आपको जिस घटना के बारे में बताने जा रहे हैं वो थोड़ी विचित्र है |
ये घटना आज से उनचास वर्ष पूर्व कल्याण में भी प्रकाशित हुई थी किन्तु आज, जब वर्तमान भौतिक जीवन और उसमे मिलने वाले भौतिक सुख ही सबसे प्रधान हो गए हैं, इस घटना का वर्णन महत्वपूर्ण है |
ये घटना जिनके साथ घटी, उन्ही के शब्दों में इस घटना का वर्णन किया जा रहा है, जो इस प्रकार है | “उन दिनों मैं उत्तर प्रदेश के एक बड़े औद्योगिक शहर में, एक सरकारी मिल में, नौकरी करता था |
मेरी उम्र भी अधिक नहीं थी और ना ही मेरा विवाह हुआ था | ऑफिस के पास ही मैंने एक कमरा किराए पर ले रखा था और पास के ही एक साधारण से होटल में भोजन करता था | जिस होटल में मैं भोजन करता था, वहां के ज्यादातर कस्टमर वही मिल-फैक्ट्री के मजदूर ही होते थे |
मेर विचार से उनमे अगर कोई सफ़ेदपोश, पढ़ा-लिखा जेंटलमैन-टाइप आदमी उस होटल में खाता था तो वो मैं ही था | असल में ख़ास बात यह थी कि उस होटल के मालिक के दो लड़के उसी मिल में काम करते थे जिसमे मैं नौकरी करता था इसलिए मुझसे उनका बहुत काम पड़ता था |
इन्ही सब वजहों से मैं उस होटल का एक विशेष ग्राहक बन गया | जिस टेबल पर मैं खाना खाता, मेरे आने से पहले उसकी खूब अच्छे से सफाई हो जाती | त्योहारों पर जब भी कोई पकवान बनाया जाता तो क्या बनेगा, इसमें मेरी राय अंतिम मानी जाती |
लगभग रोज ही मेरे ही पसंद की सब्ज़ी बनती | मेरी थाली में ज्यादा दही परोसा जाता (क्योंकि दही मुझे शुरू से पसंद थी) | उस होटल का मालिक गंगाधर, एक पचपन वर्ष का वृद्ध लेकिन हृष्ट-पुष्ट व्यक्ति था |
अपनी जवानी में वो अखाड़ा चलाया करता था इसलिए शरीर भी लगभग पहलवानों जैसी थी | मेरी खाने-पीने की आदतों से वह खूब परिचित हो गया था | मेर लिए बगैर कहे कड़क चाय बनती | शाम चार बजे, बिना मेरे मंगाए, मेरी ऑफिस में नौकर चाय लाता |
रात के खाने के बाद उसका नौकर दौड़ जाता मेरे लिए पान लाने और बिना कहे उसमे मैनपुरी तम्बाखू डाली जाती और मुझे परोसी जाती | खाना खाने के बाद वह अपने कंधे पर लटकी तौलिया मुझे हाँथ पोछने के लिए देता | और मैं आराम से अपने घर के लिए निकल देता |
दिन बहुत चैन और राते सुकून से कट रही थी | इसी बीच मेरा दूसरे शहर में तबादला (Transfer) हो गया | और उसके बाद मैं फिर इस शहर का रुख न कर सका | लगभग बीस वर्षों तक मुझे फिर इधर लौटने का मौका नहीं मिल सका और मैं इस ‘ज़िन्दगी’ को धीरे-धीरे भूल गया |
एक बार बीच में पता लगा कि गंगाधर होटलवाले का देहांत हो गया और वो इस दुनिया से चल बसा | ये घटना शायद, मेरे होटल छोड़ने के एक साल बाद की ही थी | अचानक 20 वर्ष बाद मुझे सरकारी काम से वापस उसी शहर में पुराने ऑफिस में एक दिन के लिए जाना पड़ा |
वहां जाने पर मैंने देखा कि शहर की वो बस्ती अब काफी बदल चुकी थी | पहले वहां एक ही होटेल था लेकिन अब छह-सात होटेल्स खुल चुके थे | पान की भी कई दुकाने खुल चुकी थी और मेरे ऑफिस के आस-पास एक अच्छा-खासा बाज़ार तैयार हो चुका था |
मैंने गंगाधर के होटल के बारे में पूछा तो मुझे एक बड़े शानदार से होटल में ले जाया गया | होटल की शानो-शौकत बता रही थी कि सब कुछ बिलकुल बदल चुका था | अब वहाँ नए ढंग का फर्नीचर मौजूद था और कोने में एक रेडियो बज रहा था |
वहां बैठते ही बिना मेरे मांगे, मेरी टेबल पर एक आठ-नौ साल का लड़का, एक कड़क चाय रखकर चला गया | मुझे यह जानकर थोड़ा आश्चर्य हुआ कि आखिर ये लड़का बिना मुझसे पूछे मेरे लिए कड़क चाय ही क्यों रख गया |
हालाँकि ये बात सही थी कि इससे पहले मैं इस होटल में ऐसी ही चाय पीने का आदी था | रात को खाने के समय उसी लड़के ने बिना मुझसे आर्डर लिए, मेरी पसंद की सब्ज़ी के साथ, मेरी थाली परोस दी |
मैंने देखा कि दूसरे ग्राहकों की अपेक्षा मेरी थाली में, दही भी अधिक परोसी गयी थी | और वहां किचन में टमाटर का साग होते हुए भी मुझे नहीं परोसा गया था | असल में मुझे टमाटर का साग, न जाने क्यों, शुरू से ही पसंद नहीं था |
आज से 20 वर्ष पहले मैंने गंगाधर से ये कह रखा था कि मुझे टमाटर का साग कभी न परोसा जाय | लेकिन उसे मरे तो कई वर्ष बीत चुके थे और यहाँ मुझे कोई पहचानता नहीं था ; फिर इस लड़के ने मुझे टमाटर का साग क्यों नहीं परोसा ?
इसलिए मैंने उस लड़के से पूछा-तुमने मुझे टमाटर का साग क्यों नहीं परोसा ? “आपको अच्छा नहीं लगता इसलिए” मैंने फिर पूछा “तुमको कैसे पता, मुझे तो यहाँ कोई पहचानता भी नहीं….और मैं भी तुमसे पहली बार मिल रहा हूँ..फिर तुमने कैसे जान लिया कि मुझे टमाटर का साग पसंद नहीं है ?
“बीस साल पहले आप यहाँ खाना खाते थे न तब आपको टमाटर का साग पसंद नहीं था” | मुझे थोड़ा झटका लगा | “पर तुम तो 8-9 साल के बच्चे लगते हो, तुम 20 साल पुरानी बात कैसे जानते हो”? “हाँ ठीक है….लेकिन मैं तब भी इसी होटल में था..हाँ तब मैं इतना छोटा नहीं था” |
जवाब सुनकर मैं सन्नाटे में आ गया लेकिन मेरी जिज्ञासा बढ़ गयी, मन में यह भी लगा शायद वह बहक रहा है, इसलिए फिर पूछा-“तुम्हारा नाम ?” “लोग मुझे बाल मुकुंद कहते है और समझते हैं कि मैं यहाँ नौकर हूँ लेकिन मेरा नाम गंगाधर है और मैं इस होटल का मालिक हूँ” |
मेरी जबान तालू से चिपक गयी | मेरे पैर थर-थर काँप रहे थे | अपने सूखे हुए होंठ पर मैंने जबान फेरी और जल्दी-जल्दी अपने हाँथ-मुंह धोया और ऑफिस लौट आया | उस समय रात के नौ बज रहे थे और मेरे सोने का प्रबन्ध, ऑफिस के ही एक कमरे में कर दिया गया था |
उसी रात को मुझे ट्रेन पकड़नी थी और वापस लौटना था | मैं अपने समय पर स्टेशन पहुँच गया | मेरे साथ मेरे ऑफिस का चपरासी और मेरे एक ऑफिस के ही मित्र भी स्टेशन आये हुए थे |
लेकिन स्टेशन पर पहुँचने के बाद मैं यह देखकर आश्चर्यचकित रह गया कि बालमुकुन्द भी वहाँ मौज़ूद था | मैंने उससे बहुत कम बाते की (पता नहीं क्यों ?) | थोड़ी देर में ट्रेन आ गयी | जब ट्रेन चलने लगी तो उसकी आँखों में आँसू आ गए | वह बोला-“अच्छा जल्दी ही मिलूँगा” |
मैंने अपने दोस्त के कान में कहा “शायद गंगाधर फिर पैदा हो गया है | तुम इस लड़के पर नज़र रखना और मुझे इसके बारे में खबर भेजते रहना | यह कहके मैं चला आया |
वहाँ से लौटने के बाद भी मेरी आँखों से बालमुकुन्द का मासूम चेहरा और मष्तिष्क से गंगाधर की यादे जा नहीं रही थी | लेकिन कुछ समय बाद यह घटना भी भूल गयी मुझे | इन बीस वर्षों के दौरान मेरी भी ज़िन्दगी काफी बदल चुकी थी |
मेरा विवाह हो चुका था और मेरी पत्नी गर्भवती थी | उसे मैंने हॉस्पिटल के प्रसूतिगृह में भर्ती कराया | इधर मुझे रोज़ हॉस्पिटल जाना पड़ रहा था | एक शाम मैं हॉस्पिटल से घर लौटा तो मेरे नाम दरवाज़े पर एक लिफ़ाफ़ा पड़ा था |
खोलकर पढ़ा तो मुझे ऐसा लगा कि जैसे किसी ने मेरे गाल पर भरपूर तमाचा जड़ा हो | उस पत्र में बालमुकुन्द की मौत का समाचार था, वो लगभग एक वर्ष पहले चल बसा | मैं एक गहरी सांस छोड़कर सोफे पर बैठ गया और अपने चेहरे को दोनों हाँथो से ढक लिया |
कुछ ही दिनों बाद मैं एक पुत्र का पिता बना, घर में खुशियाँ आयी और ज़िन्दगी अपने अंतहीन प्रपन्चों के साथ फिर चल पड़ी | पाँच साल बिना किसी महत्वपूर्ण घटना के ऐसे ही बीत गए |
मैं धीरे-धीरे बालमुकुन्द और गंगाधर को भूलने लगा था पर कभी-कभी बालमुकुन्द का चेहरा अचानक से मेरे सामने आ जाता और तब मुझे ऐसा महसूस होता जैसे मेरे सीने में किसी ने लात मार दी हो |
मेरा लड़का मोहन जब पाँच साल का था, एक दिन मेरी पत्नी ने उससे पूछा-“बेटा ! तू डॉक्टर बनेगा ?”| बेटे ने जवाब दिया “नहीं” | “तो वक़ील बनेगा ?” | बेटे ने फिर बोला “नहीं” | “तो मेरा बेटा जज बनेगा” | बेटे ने फिर नकारात्मक उत्तर दिया |
“तो क्या करेगा तू” | “मैं होटल चलाऊंगा माँ” वह बोला | उस समय मैं कुछ लिख रहा था | उत्तर सुनते ही मेरी कलम मेरे हाँथ से छूट गयी लेकिन तुरंत ही मैंने अपने आप को सम्भाल लिया और अपने देवी-देवताओं को मनाने लगा |
उसके कुछ दिन बाद एक दिन मैं ऑफिस से लौटा और खाना खाने बैठ गया | मैंने देखा कि पत्नी ने टमाटर का साग बनाया है, मेरा मूड ख़राब हो गया | लेकिन तभी साग देखकर पास बैठा मोहन चिल्लाया “बाबू जी टमाटर का साग नहीं खाते | उन्हें अच्छा नहीं लगता” |
मैंने झपट कर उसका मुंह पकड़ लिया और कहा कि-“मोहन ! ऐसा नहीं कहते” | “क्यों पहले तो तुम टमाटर का साग नहीं खाते थे” “कब?” “पहले ! बहुत साल पहले” | इससे आगे उससे बात करने की हिम्मत नहीं थी मुझमे | सीने में जो डर था साक्षात सामने साकार हो चुका था |
मेरी पत्नी हक्की-बक्की होकर सब देख रही थी लेकिन उसके आगे मैंने फिर एक बड़ी गलती कर दी | मैंने अपनी पत्नी को अलग बुलाकर कहा-“बहुत साल पहले मैं एक होटल में खाना खाता था | उसी होटल का मालिक गंगाधर ही हमारे यहाँ पैदा हो गया है” |
और दूसरे ही दिन मोहन को बुखार आ गया | मेरी अंतरात्मा अन्दर-ही-अन्दर रो रही थी | उसके एक सप्ताह बाद मोहन चल बसा | अंतिम समय जब वह बिस्तर पर लेटा था तो मैंने उससे पूछा था-“मोहन ! तुम कब तक मुझे छलते रहोगे ?” |
मुझे याद है वो मुस्कुरा कर बोला था-“अब नहीं मिलेंगे” | तबसे ‘मोहन’ के पुनर्जन्म की कोई सूचना मुझे फिर नहीं मिली | मुझे पता था कि वो मुझे छोड़ कर जा चुका था….हमेशा के लिए | मेरे आँसू आज भी मेरी आँखों में ही थे, ढलके नहीं थे…शायद किसी के आने का इंतज़ार कर रहे थे….काश एक बार !
रहस्यमय के अन्य लेख पढने के लिए कृपया नीचे दिए गए लिंक्स पर क्लिक करें
https://rahasyamaya.com/the-cursed-tomb-of-the-king-casimir-iv/
https://rahasyamaya.com/the-ancient-mysterious-civilization-of-america/
https://rahasyamaya.com/what-is-death/