मृत्यु क्या है ? इसका उत्तर कई दृष्टिकोण से दिया जा सकता है लेकिन क्या कभी किसी ने मृत्यु को देखा है या मृत्यु को साक्षात अनुभव किया है इस का सकारात्मक उत्तर दुनिया में विरले लोगों के पास ही होगा | इस सम्बन्ध में भारतीय तत्वदर्शी योगियों ने सारस्वरूप, ज्ञान के जिन तथ्यों को रखा है, संसार उसके लिए उनका हमेशा ऋणी रहेगा |
उनके अनुसार मृत्यु से कुछ समय पहले मनुष्य को बड़ी बेचैनी, पीड़ा और छटपटाहट होती है, क्योंकि शरीर की सारी नाड़ियों में से प्राण खिंच कर एक जगह एकत्रित होता है, लेकिन पुराने अभ्यास के कारण वो फिर से नाड़ियों में खिसक जाता है जिससे एक प्रकार का आघात लगता है, यही कष्ट का कारण होता है | ऐसा एक से अधिक बार हो सकता है | और ये कितनी बार होगा, यह निर्भर करता है कि जीवात्मा किस कदर सांसारिक मोह, वासना से घिरा हुआ था |
अगर मौत किसी रोग, आघात या किसी अन्य कारण से हो रही हो तो उससे भी पीड़ा होती है | मरने से पहले मनुष्य कष्ट पाता ही है भले ही वो इसको अपनी जिह्वा से प्रकट कर सके या न कर सके | लेकिन जब प्राण निकलने का समय बिलकुल पास आ जाता है तो उसे एक प्रकार की मूर्छा आ जाती है और उसी मूर्छा या अचेतन अवस्था में उसके प्राण निकल जाते हैं |
जब मनुष्य मरने वाला होता है तो उसकी समस्त बाह्य शक्तियां एकत्रित होकर अंतर्मुखी हो जाती हैं और फिर स्थूल शरीर से बाहर निकल पड़ती हैं | विदेशी विद्वानों का मत है कि किसी जीव का सूक्ष्म शरीर, बैंगनी रंग की छाया लिए स्थूल शरीर से बाहर निकलता है जबकि प्राचीन भारतीय योगियों ने इसका रंग शुभ्र श्वेत ज्योति जैसा माना है |दोनों के अपने-अपने अनुसन्धान हैं |
अंतिम समय, जीवन में जो पुरानी बातें, घटनाएं, धूमिल पड़ कर मस्तिष्क के अति सूक्ष्म कोष्ठकों में निष्क्रिय अवस्था में पड़ी रहती हैं, वे सब एकत्रित होकर एक साथ निकलने की कोशिश करती हैं जिसकी वजह से वो जागृत एवं सजीव हो जाती हैं | इसलिए कुछ ही क्षणों के भीतर अपने समस्त जीवन की घटनाओं को एक फिल्म की तरह मनुष्य देख लेता है |
इन सब का जो सम्मिलित निष्कर्ष निकलता है वह सार रूप में संस्कार बनकर मृतात्मा के साथ हो लेता है | ज्ञानी बताते हैं कि यह घड़ी अत्यंत ही पीड़ा की होती है | भौतिक कष्ट से तुलना की जाय तो कहा गया है कि एक साथ हज़ार बिच्छुओं के दंश जैसा कष्ट होता है |
बस यूं समझ लीजिये कि जैसे कोई मनुष्य भूल से अपने छोटे से पुत्र पर गोली चला दे और उसका पुत्र मृत्यु-शैया पर पड़ा तड़प रहा हो तो उस दृश्य को देखकर एक सहृदय पिता के ह्रदय में अपनी भूल के कारण अपने प्राण-प्रिय पुत्र के लिए ऐसी भयंकर दुर्घटना हो जाने पर जो दारुण कष्ट और व्यथा पैदा होती है ठीक वैसी ही पीड़ा उस समय उस जीव का प्राण अनुभव करता है क्योंकि तब उसे ये जीवन अत्यंत बहुमूल्य लगने लगता है और वो जानता है कि इस बहुमूल्य जीवन का उसने वैसा सदुपयोग नहीं किया जैसा उसे करना चाहिए था |
मृत्यु का समय उपस्थित होने पर प्राणी की शारीरिक चेतनाएं तो शून्य हो ही जाती हैं पर मानसिक वेदना मर्मान्तक होती है | मृत्यु से ठीक पहले तक शरीर अपना कष्ट सह चुका होता है | रोग आदि की शारीरिक पीड़ा तो कुछ क्षण पूर्व ही, जबकि इन्द्रियाँ अपनी शक्तियों के साथ अंतर्मुखी होने लगती है, बंद हो जाती है |
उस समय बीमारी या किसी आघात से शरीर और जीव के बंधन टूटने प्रारम्भ हो जाते हैं | शरीर के ऊर्ध्व भाग में बने मार्गों, जैसे मुख, कान, आँख, नाक, से अकसर प्राण निकलता है | दुष्ट प्रकृति के लोगों का प्राण शरीर के अधोभाग में स्थित मार्गों (मल-मूत्र मार्ग) से निकलता देखा जाता है | योगी, ब्रह्मरंध्र से प्राण त्यागते हैं |
शरीर से निकलने के बाद जीव एक विचित्र अवस्था में पड़ जाता है | घनघोर परिश्रम से थका हुआ व्यक्ति जिस प्रकार से एक कोमल और आरामदायक बिछौना पाते ही गहरी नींद में सो जाता है, उसी प्रकार से मृतात्मा को जीवन भर का सारा श्रम उतारने के लिए एक निद्रा की आवश्यकता होती है | इस नींद से जीव को बड़ी शान्ति मिलती है और आगे के जीवन के लिए वह शक्ति प्राप्त कर लेता है |
लेकिन मरते ही नींद नहीं आती बल्कि उसमे कुछ देर लगती है | साधारण तौर पर एक महीना लग सकता है | उसका कारण यह है कि मरने के बाद कुछ समय तक पिछले जीवन (या जीवनों) की इच्छाएं और वासनाएँ प्रौढ़ रहती हैं और वो धीरे-धीरे ही निर्बल पड़ती हैं |
भौतिक जीवन में देखा जाय तो वैसे भी कड़ी मेहनत कर के आने पर हमारे शरीर का रक्त-संचार बहुत तीव्र होता है और पलंग मिल जाने पर भी हम उतने समय तक जागते रहते हैं जब तक की फिर से रक्त की गति धीमी या सामान्य न हो जाए |
मृतात्मा भौतिक शरीर से अलग होने पर सूक्ष्म शरीर में प्रस्फुटित होती है | यह सूक्ष्म शरीर, स्थूल शरीर के बनावट के जैसा ही होता है | मृतक को इस बात का आश्चर्य लगता है कि उसका शरीर कितना हल्का हो चुका है, वह हवा में पक्षियों की तरह उड़ सकता है और इच्छामात्र से जहाँ चाहे आ-जा सकता है |
अपने स्थूल शरीर के आस-पास अपने परिवार और प्रियजनों को रोता-बिलखता देखकर वह उनसे कुछ कहना चाहता है या अपने पुराने शरीर में लौटना चाहता है लेकिन उससे ये सब हो नहीं पाता | पश्चिमी जगत में मृतात्माओं से संपर्क करने वाली कुछ ‘तथाकथित’ गुप्त संस्थाएं हैं |
मृतात्माओं से संपर्क करने के इनके अपने तरीके और माध्यम हैं |ऐसी ही एक संस्था के एक अनुभव के अनुसार एक प्रेतात्मा ने बताया कि “मैंने मरने के बाद बड़ी विचित्र स्थिति में अपने को पाया | अपने परिवार और मित्रों में मोह होने के कारण मैं अपने स्थूल शरीर में आना चाहता था लेकिन मैं लाचार था | मैं सबको देखता था लेकिन मुझे कोई नहीं देख पा रहा था | मैं सबको सुन भी रहा था पर मैं जो बड़े जोर-जोर से बोल रहा था उसे कोई नहीं सुन पा रहा था |
इन सब बातों से मुझे बहुत कष्ट हो रहा था लेकिन अपने नए जीवन और शरीर को लेकर कुछ ख़ुशी भी रही थी कि मैं कितना हल्का हो चुका हूँ और कितनी तेज़ी से चारो तरफ उड़ सकता हूँ |
जब मैं ज़िन्दा था तो मौत से बहुत डरता था लेकिन अब मुझे डर जैसी कोई चीज समझ नहीं आ रही थी | सूक्ष्म शरीर में होने के कारण पुराने शरीर से कोई विशेष ममता भी नहीं रही क्योंकि नया शरीर पुराने शरीर की तुलना में हर लिहाज़ से अच्छा था | मैं अपना अस्तित्व वैसा ही अनुभव करता रहा जैसा कि मैं जीवित दशा में था |
कई बार मैंने अपने हाँथ पैर को हिलाया-डुलाया और अपने अंग-प्रत्यंग को देखकर मुझे ऐसा नहीं लगा कि मैं मर चुका हूँ | तब मुझे लगा कि मृत्यु में डरने जैसी कोई बात नहीं वह तो शरीर परिवर्तन की एक असाधारण लेकिन सुखद प्रक्रिया है|”
लेकिन सभी इतने किस्मत वाले नहीं होते | जिन्होंने अपनी ज़िन्दगी में दूसरों (विशेष रूप से गरीबों और असहायों) के साथ बुरा किया है वो बुरा पायेंगे | मृत्यु उनके लिए एक अभिशाप की तरह होती है जो उसी समय तय करती है कि अगला प्रवेश उनका कहाँ होने वाला है |
जब तक मृत शरीर की अंत्येष्टि क्रिया होती है तब तक जीव बार-बार उसके आस-पास मँडराता रहता है | जला देने पर वह उसी समय उससे निराश होकर मन को दूसरी और लौटा लेता है | अधिक अज्ञान और माया-मोह के बंधन में अधिक दृढ़ता से बंधे हुए मृतक अकसर श्मशानों में बहुत दिनों तक चक्कर काटते रहते है |
शरीर की ममता बार-बार उधर खींचती है और वे अपने को संभालने में असमर्थ होने के कारण उसी के आस-पास रुदन करते हैं | कई ऐसे होते हैं जो शरीर की अपेक्षा प्रियजनों से अधिक मोह करते है | वे मरघटों की बजाय प्रिय व्यक्तियों के निकट रहने का प्रयत्न करते हैं | वृद्ध व्यक्तियों की कामनाएँ स्वभावतः ढीली पड़ जाती हैं इसलिए वे मृत्यु के बाद बहुत जल्दी निद्रा-ग्रस्त हो जाते हैं |
लेकिन वे युवा जिनकी कामनाएँ प्रबल होती हैं, बहुत समय तक विलाप करते फिरते हैं, उनमे भी खासतौर पर वे लोग जो अकाल मृत्यु, अपघात या आत्महत्या से मरे होते हैं | अचानक और उग्र वेदना के साथ मृत्यु, कुछ स्थूल, कुछ सूक्ष्म सी रहती है |
ऐसी आत्माएँ प्रेत रूप में प्रत्यक्ष सी दिखाई देती है और अदृश्य भी हो जाती हैं | साधारण मृत्यु से मरे हुओं के लिए यह नहीं है कि वो तुरंत प्रकट हो जाएँ,उन्हें उसके लिए बड़ा प्रयत्न करना पड़ता है और विशेष प्रकार का तप करना पड़ता है |
लेकिन अपघात से मरे हुए जीव सत्ताधारी प्रेत के रूप में विद्यमान हो सकते हैं और उनकी विषम मानसिक परिस्थिति उन्हें नींद भी नहीं लेने देती | वे बदला लेने की इच्छा से या इन्द्रिय कामनाओं को तृप्त करने के लिए किसी पुराने वृक्ष, गुफा, खँडहर या जलाशय के आस-पास पड़े रहते हैं और जब अवसर देखते हैं अपने अस्तित्व को प्रकट करने या बदला लेने की इच्छा से प्रकट हो जाते हैं |
इन्ही प्रेतों को कई तांत्रिक शव-साधना करके या श्मशान जगाकर अपने वश में कर लेते हैं और उनसे एक दास की तरह काम लेते हैं | इस प्रकार से बांधे हुए प्रेत उन तांत्रिकों से प्रसन्न नहीं रहते बल्कि मन ही मन बड़ा क्रोध करते है और यदि मौका मिल जाए तो उन्हें मार भी डालते हैं |
बंधन सभी को बुरा लगता है, प्रेत लोग छूटने में असमर्थ होने के कारण अपने मालिक का कहना मानते हैं लेकिन इससे उन्हें बहुत दुःख होता है | आबद्ध प्रेत प्रायः एक ही स्थान पर रहते हैं और बिना कारण जल्दी-जल्दी स्थान परिवर्तन नहीं करते |
साधारण कामनाओं वाले प्रबुद्धचित्त और धार्मिक वृत्ति वाले लोग (जन-साधारण इसी श्रेणी में आता है), मृत्यु के बाद जब अंत्येष्टि क्रिया हो जाती है तो फिर पुराने सम्बन्धियों से रिश्ता तोड़ लेते हैं और मन को समझा कर उदासीनता धारण करते हैं | उदासीनता आते ही उन्हें निद्रा आ जाती है और फिर आराम करके नई शक्ति प्राप्त करने के लिए वो निद्राग्रस्त हो जाते हैं |
ये निद्रा अत्यंत रहस्यमय होती है | यह कितने समय तक होती है इसका कोई निश्चित नियम नहीं | लेकिन हाँ जीव की चेतना का विस्तार इसमें महत्वपूर्ण भूमिका निभाता है | एक मान्यता के अनुसार तीन वर्ष की निद्रा सामान्यतया होती है जिसमे प्रारंभ के एक वर्ष तक बड़ी गहरी निद्रा होती है | दूसरे वर्ष उसकी निद्रा तन्द्रा में बदलती है |
इस तन्द्रा के भंग होने पर जीव, नवीन जन्म धारण करने की खोज में लग जाता है | यहाँ एक बात महत्वपूर्ण है कि जीव स्वयं अपने गर्भ का चुनाव कर सके इसके लिए उसकी चेतना में आपेक्षित विस्तार जरूरी है अन्यथा वह ब्रह्मांडीय नियमो में बंधा हुआ अपने ‘कर्मो’ के अनुसार जन्म ग्रहण करता है |
इसीलिए बड़े-बुजुर्ग कह के गए हैं कि हमेशा अच्छे कर्म करो क्योंकि कल को जब कोई तुम्हारे साथ नहीं होगा, तुम्हारे कर्म तुम्हारा साथ देंगे | वो कहते हैं न ‘बुरे काम का बुरा नतीजा’ ,….. सही कहते हैं |
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