महर्षि चित्र ने अपने गुरुकुल में यज्ञ-आयोजित किया था । ऋत्विक् के लिये उन्होंने महर्षि उद्दालक को आमंत्रित किया लेकिन उद्दालक कुछ समय के लिये समाधि लेकर अन्तरिक्ष के कुछ रहस्यों का अध्ययन करना चाहते थे इसलिये उन्होंने अपने पुत्र श्वेतकेतु को यज्ञ के ऋत्विक् के रूप में भेज दिया, अब महर्षि चित्र को हिचकिचाहट इस बात की थी कि बगैर योग्यता की परख किये महर्षि चित्र उन्हें यज्ञ का आचार्य कैसे बनाए इसलिए उन्होंने श्वेतकेतु से प्रश्न किया- ‘सवृत लोके यस्मित्राधास्य हो बोचदध्वा लोके वास्यसीति’ ।
अर्थात्-क्या इस लोक में कोई आवरण वाला ऐसा स्थान है जहाँ तुम मेरे प्राणों को स्थिर कर सकोगे अथवा कोई ऐसा आवरण रहित अद्भुत स्थान है जहाँ पहुँचा कर मुझे यज्ञ के फलस्वरूप दिव्य अक्षय लोक का भागी बनाओगे ?।
श्वेतकेतु ने इस प्रश्न का उत्तर देने में अपनी असमर्थता प्रकट की (यद्यपि श्वेतकेतु स्वयं एक उच्चकोटि के ऋषि थे) । वे लौटकर अपने पिता के पास गये और उनसे वही प्रश्न पूछा जो उनसे (श्वेतकेतु से) महर्षि चित्र ने पूछा था । महर्षि उद्दालक बड़े सूक्ष्मदर्शी थे उन्होंने सारी स्थिति समझ ली कि चित्र ने श्वेतकेतु से ऐसा प्रश्न क्यों पूछा | लेकिन सच्चाई तो ये थी कि, वे (महर्षि उद्दालक) स्वयं इसी रहस्य को जानने के लिए अविकल्प समाधि (जिस समाधि में चिन्तन, मनन, भावानुभूति चलती रहती है उसे सविकल्प समाधि कहते हैं) लेना चाहते थे ।
उन्होंने अपने ध्यान में ये अनुभव किया कि महर्षि चित्र यह रहस्य पहले से ही जानते हैं सो पिता पुत्र दोनों महर्षि चित्र के पास गये और उनके प्रश्न का उत्तर सविनय उन्हीं से बताने का आग्रह करने लगे । उनकी जिज्ञासा को समझकर महर्षि चित्र ने उन्हें मृत्यु की अवस्था और देवयान मार्ग द्वारा दिव्य उच्च लोकों की प्राप्ति का जो ज्ञान दिया है वह सारा का सारा ही आख्यान महान् वैज्ञानिक सत्यों ओर आश्चर्यों से ओत-प्रोत है और कौषीतकि ब्राह्मणोपनिषद् में उसका विस्तार से वर्णन है ।
उससे यह पता चलता है कि भारतीय मनीषा (ऋषि-मुनी) न केवल प्राण और जीवन के रहस्यों से विज्ञ थे वरन् उन्हें सूक्ष्म से सूक्ष्म भौगोलिक ओर ब्रह्माण्ड विज्ञान के रहस्यों का भी ज्ञान था । आज जब उस ज्ञान को हम आधुनिक विज्ञान की कसौटी पर कसते हैं तो हमें यह मानना पड़ता है कि भारतीय साधनायें किसी भी भौतिक जगत के विज्ञान से अधिक महत्वपूर्ण हैं और जीवन से सम्बन्धित समस्त जिज्ञासाओं और समस्याओं का वही सर्वश्रेष्ठ विकल्प है ।
महर्षि चित्र, महर्षि उद्दालक और श्वेतकेतु को बताते हैं- आर्य ! यज्ञादि श्रेष्ठ कर्म करने वाले लोगों को उच्च लोकों की प्राप्ति जिस तरह होती है वह मैं आप लोगों को बताता हूँ, प्राणों के योग से चन्द्रमा को बल मिलता है, पर कृष्ण पक्ष में तथा दक्षिणायन सूर्यगति के समय स्वर्गादि उच्च लोकों का द्वार अवरुद्ध रहता है इसलिये योगीजन उस समय अपने प्राणों को अपने ध्यान में ही स्थिर कर लेते हैं ।
अपनी निष्काम भावना को दृढ़ रखते हुए वे जितेन्द्रिय, देवयान मार्ग से अपनी मानवेतर यात्रा प्रारम्भ करते हैं, और सबसे पहले अग्नि लोक को प्राप्त होते हैं, फिर वायुलोक और वहाँ से सूर्य लोक की ओर गमन करते हैं । सूर्य लोक से वरुण लोक, इन्द्रलोक, प्रजापति लोक में पहुँचते हुए वे अंत में ब्रह्म लोक के अधिकारी बनते है |
कौषीतकि ब्राह्मणोपनिषद् की इस आख्यायिका में आगे के वर्णन में बड़े विस्तार पूर्वक देवयान मार्ग की अनुभूतियों का वर्णन हैं | जीवात्मा को वहाँ से जैसे दृश्य दिखाई देते हैं जैसी-जैसी ध्वनियाँ और गन्ध की अनुभूति होती है उस सब का बड़ा ही अलंकारिक और मनोरम वर्णन किया गया है ।
पहली बार पढ़ने से ऐसा लग सकता है जैसे इसका वास्तविकता से कोई सम्बन्ध न हो पर जब दर्शन और आज के आधुनिक विज्ञान के सिद्धांतो पर हम उसे तौलते और उसका विश्लेषण करते हैं तब आश्चर्यचकित रह जाते हैं कि इतनी विराट् अनुभूति प्राचीन ऋषियों को कैसे सम्भव हो सकी ।
जैसे–जैसे आधुनिक द्रव्य और ब्रह्माण्ड विज्ञान समय के पथ पर आगे बढ़ रहा है, उनकी अनुभूतियों को शतप्रतिशत सत्य प्रमाणित कर रहा है । इसका एक ज्वलंत प्रमाण अभी कुछ वर्षों पहले आई क्रिस्टोफ़र नोलेन द्वारा रचित फिल्म इन्टरस्टेलर थी जो विशुद्ध रूप से भारतीय ब्रह्माण्ड विज्ञान के सिद्धांतो से प्रेरित थी | यद्यपि अभी विज्ञान अपूर्णावस्था में है तथापि अभी तक उसने जो भी निष्कर्ष निकाले हैं वह भारतीय तत्वदर्शन से एक भी कदम आगे नहीं बढ़ पाते।
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