बारह ज्योतिर्लिग कहाँ स्थित हैं, उनकी कथाएं

12-jyotirlinga-stories-in-hindiअखिल विश्व ब्रह्माण्ड में भूलोक, भूलोक में भी जम्बू, प्लक्ष तथा क्रोच् आदि द्वीपों में जम्बू द्वीप; पुनः जम्बू – द्वीपान्तर्गत किम्पुरूष, कुरूमाल आदि वर्षों में भारत वर्ष श्रेष्ठ माना जाता है। भारत वर्ष का माहात्म्य यहाँ की सम्भ्यता और संस्कृति को लेकर है।

यही वह भूमि है, जहां भगवान के समस्त अवतार हुए है। अंश अवतार, कला अवतार एवं पूर्ण अवतार इत्यादि अवतार धारण कर भगवान अपने आर्त भक्तों का भव सागर से उद्धार करते हैं, कभी राम – कृष्ण रूप से तो कभी शिव रूप से।

वे भगवान अनन्त गुण राशि से युक्त अनन्तानन्त वैभवादि से विलसित अनन्त स्वरूप हैं, इसलिये भगवती श्रुति ने भी ‘नेति  – ‘नेति’ शब्दों के द्वारा अन्यों से भगवतत्व की पृथकता बतलायी है। भगवान का अवतरण आप्तकाम पुरूषों को निःश्रेयस – प्रदानार्थ ही हुआ करता हैं।

अण्ड – पिण्ड – सिद्धान्त अनुसार जो अण्ड में है, वही पिण्ड में भी है अर्थात सर्वज्ञ भगवान विराट पुरूष रूप होकर अनंत ब्रह्माण्डों के स्वामी बन जाते हैं तथा वे ही पुनः एक शिव लिंग में भी समाहित हो जाते हैं। ‘ज्योति’ शब्द प्रकाश का वाचक है एवं ‘लिंग’ शब्द चिन्ह का।

‘लीनं प्रच्छन्नस्वरूपं प्रकटयाति यत् तत् लिंगम।’ अर्थात जो चिन्ह परब्रह्म परमात्मा के स्वरूप का अवबोधन करा दे, वह लिंग है। ब्रह्मसूत्र – वेदान्त दर्शन ( 1।1।24 ) – में ‘ज्योतिश्चरणाभिधानात्।।’ सूत्र द्वारा ‘ज्योति’ शब्द को परब्रह्म का अभिव्यंजक माना गया है; क्योंकि छान्दोग्योपनिषद में उस ज्योतिर्मय ब्रह्म के चार पद बतलाये गये हैं।

न्याय शास्त्र ने तो ‘लिङ्गात लिङ्गिनों ज्ञानम् अनुमानम्’ के द्वारा अनुमान प्रमाण के लिये लिंग का होना ही आवश्यक बतलाया है। यहां लिंग हुआ चिन्ह एवं लिंगी हुए परब्रह्म परमात्मा, जिसे तैत्तिराीयोपनिषद में ‘रसो वै सः’ इत्यादि महावाक्यों द्वारा संकेतिक किया गया है।

ध्यातव्य हो कि नैयायिकों ने अनुमान प्रमाण के द्वारा ही ईश्वर की सिद्धि की है। इसके प्रमाण न्याय कुसुमाजंलिकार उदयनाचार्य प्रभूति विद्वान है। लिंग पुराणों में ‘लिंगे सर्वं प्रतिष्ठितम’ कहकर चराचर जगत की प्रतिष्ठा लिंग में ही बतलायी है।

ज्योतिर्लिंग बारह ही क्यों हैं 

तर्क संग्रह आदि ग्रंथों में लिंग की त्रिविधता कही गयी है – (1) अन्वयव्यतिरेकि, (2) केवलान्वयि तथा (3) केवलव्यतिरेकि। व्याकरण के अनुसार लिंग शब्द में ‘अच’ प्रत्यय के योग से ‘लिंगम’ शब्द बना है। ‘द्वादश’ शब्द बारह संख्या का वाचक है एवं ‘ज्योतिः’ शब्द सूर्य का।

‘सूर्यों ज्योतिः स्वाहा’ – इस वचन से ज्योति का प्रादुर्भाव सूर्य से माना जाता है और सूर्य द्वादश आदित्य के रूप में शास्त्र विश्रुत हैं। अतः द्वादश आदित्य के रहने के कारण उनकी ज्योति भी तदनुसार बारह ही हुई, इस कारण ज्योतिर्लिंग भी बारह ही माने गये।

इन द्वादश ज्योतिर्लिंग का प्रमाण शिवपुराण, पद्मपुराण, मत्स्यपुराण आदि में विस्तृत रूप में है एवं प्रस्थानत्रयी – भाष्यकार आद्य जगदुरू भगवान शंकराचार्य ने अपने ‘द्वादशज्योतिर्लिंगस्तोत्रम’ में देश, दिशा एवं स्थान आदि के द्वारा इसे प्रमाणित किया है।

श्री शिव महापुराण में द्वादश ज्योतिर्लिंग का प्रमाण उपलब्ध होता है। अर्थात् सौराष्ट में सोमनाथ, श्री शैल में मल्लिका अर्जुन, उज्जैन में महाकाल, ओंकार  में परमेश्वर, हिमवत्पृष्ठ में केदारनाथ, डाकिनी में भीम शंकर , वाराणसी में विश्वनाथ, गौतमी तट पर त्रयम्बकनाथ, चिता भूमि में वैद्यनाथ, दारूका वन में नागेश, सेतु बंध में रामेश्वर एवं शिवालय में घुश्मेश्वर ज्योतिर्लिंग, विराजमान हैं।

श्री शिव महापुराण की ही शतरूद्र संहिता (42।5) – में इन बारह अवतारों को परामात्मा शिव का ‘अवतार द्वादशक’ कहा गया है और इनके दर्शन तथा स्पर्श से सब प्रकार के आनंद प्राप्ति की बात बतलायी गयी है।

शिव पुराण की कोटि रूद्र संहिता (1।9-10) में सम्पूर्ण जगत को ही लिंगभूत माना गया है।  द्वादश ज्योतिर्लिंग का परिचयात्मक विवरण संक्षेप में इस प्रकार दिया जा रहा है।

सोमनाथ ज्योतिर्लिंग

‘जो अपनी भक्ति प्रदान करने के लिये अत्यन्त रमणीय तथा निर्मल सौराष्ट्र प्रदेश (काठियावाड़) में दयापूर्वक अवतीर्ण हुए हैं, चन्द्रमा जिनके मस्तक का आभूषण है, उन ज्योतिर्लिंग स्वरूप भगवान सोमनाथ की शरण में जाता हूँ’।

महात्मा प्रजापति दक्ष ने अपनी सत्ताईस कन्याओं को चंद्रमा के लिये दान किया। उन पत्नियों में रोहिणी नाम की पत्नी चंद्रमा को विशेष प्रिय थी।शेष कन्याओं ने अपनी वेदना प्रजापति दक्ष को सुनायी, किंतु शिव माया से विमोहित चन्द्र ने उनकी बातों पर तनिक भी ध्यान न दिया।

फलस्वरूप प्रजापति दक्ष ने उसे क्षयी होने का शाप दे दिया। चंद्रमा की क्षीणता से हाहाकार मच गया। सभी देवता ब्रह्मा की शरण में गये। ब्रह्मा जी ने प्रभास क्षेत्र में जाकर शिव आराधना की बात कही। चंद्र देव प्रभास क्षेत्र में जाकर शिव अर्चन करने लगे।

भगवान शंकर प्रसन्न हो गये तथा उन्होंने वर मांगने को कहा। चंद्रमा ने अपना मनोभिलषित क्षय नाशक वर मांगा। भगवान आशुतोष ने चंद्रमा को एक पक्ष में प्रतिदिन बढ़ने का वर दिया।

पुनः चंद्रमा ने कहा कि प्रभो! आप गिरिजा सहित यहां स्थित रहें। इस क्षेत्र की महिमा बढ़ाने के लिये तथा चंद्रमा के यश के लिये भगवान शिव वहां सोमेश्वर ( सोमनाथ ) के नाम से विख्यात हुए। वर्तमान में यह काठियावाड़ (गुजरात) प्रदेश के अन्तर्गत प्रभास क्षेत्र में विराजमान है।

मल्लिकार्जुन ज्योतिर्लिंग

भगवत्पाद शंकराचार्य जी ने इनकी वंदना इस प्रकार की है। ‘जो ऊँचाई के आदर्शभूत पर्वतों से भी बढ़कर ऊँचे श्री शैल के शिखर पर, जहां देवताओं का अत्यन्त समागम होता रहता है, प्रसन्नतापूर्वक निवास करते हैं, तथा जो संसार सागर से पार कराने के लिये पुल के समान है, उन एक मात्र प्रभु मल्लिका अर्जुन को मैं नमस्कार करता हूँ’।

श्री शिव महापुराण में ऐसा प्रसंग आया है कि पार्वती पुत्र कुमार कार्तिकेय जब पृथ्वी की परिक्रमा कर कैलाश पर आये और नारद जी ने गणेश जी के विवाह आदि का वृत्तान्त उन्हें सुनाया, तो वे क्रुद्ध होकर क्रोच् पर्वत पर चले गये।

भगवान शिव और भगवती पार्वती स्नेह सहित कुमार कार्तिकेय के पास गये, किंतु उस स्थान में अपने पुत्र के न मिलने पर पुत्र स्नेह से व्याकुल होकर उन्होंने वहां अपनी ज्योति स्थापित कर दी तथा वहां से अपने पुत्र को देखने के लिये वे अन्य पर्वतों पर जाने लगे, परंतु अमावस्या के दिन शिव जी तथा पूर्णिमा के दिन माता पार्वती वहां निश्चय ही जाती रहती हैं।

इसी दिन से मल्लिका अर्जुन में शिव जी का ज्योतिर्लिंग प्रसिद्ध हुआ। सम्प्रति यह ज्योतिर्लिंग तमिलनाडु प्रान्त के कृष्णा जिले में कृष्णा नदी के तट पर श्रीशैल ( पर्वत ) पर है। इसे दक्षिण का कैलाश भी कहते हैं।

महाकाल ज्योतिर्लिंग

श्री शंकराचार्य महाराज जी ने उक्त ज्योतिर्लिंग की वंदना करते हुए कहा है ‘संत जनों को मोक्ष देने के लिये जिन्होंने अवन्तिपुरी (उज्जैन) में अवतार धारण किया है, उन महाकाल नाम से विख्यात महादेव जी को मैं अकाल – मृत्यु से बचने के लिये नमस्कार करता हूँ’।

अवन्ति (अवन्ती – अवन्तिका) नामक शिव जी की एक प्रिय नगरी है, जो बड़ी ही पवित्र और संसार को पवित्र करने वाली है। उस नगरी में एक वेदपाठी श्रेष्ठ ब्राह्मण निवास करता था। उसके चार पुत्र थे – देवप्रिय, प्रियमेधा, सुकृत और सुव्रत।

उस समय रत्नमाल पर्वत पर दूषण नामक दैत्यों का एक महाबली राजा रहता था। वह वैदिक धर्म का विरोधी था। काल क्रमानुसार दैत्यों ने उस नगरी को घेर लिया। ब्राह्मणों ने कोई अन्य उपाय न देख कर शिव जी की शरण ली और उनका पार्थिव लिंग बना कर पूजन प्रारम्भ किया।

इसी समय दूषण नामक दैत्य ससैन्य उन पर टूट पड़ा, किंतु उन ब्राह्मणों ने दैत्यों का वचन सुना ही नहीं; क्योंकि वे महादेव के ध्यान में मग्न थे। ज्योंही वह दुष्टात्मा दूषण उन ब्राह्मणों को मारने चला, त्योंही उस पार्थिव मूर्ति के स्थान में एक भयानक शब्द करके गडढा हो गया और उसी गर्त से विकट रूपधारी महाकाल नामक शिव प्रकट हुए और उन्होंने अपने हुंकार मात्र से सेना सहित दूषण को तत्काल भस्म कर दिया।

प्रकृत लिंग मालवा प्रदेश में शिप्रा नदी के तट पर उज्जैन नगर में विराजमान है, जो अवन्तिका पुरी के नाम से विख्यात है। यह राजा भोज, उदयन, विक्रमादित्य, भर्तृहरि एवं महाकवि कालिदास की साधना – स्थली रही है।

ओंकारेश्वर ज्योतिर्लिंग

भगवान शंकराचार्य कहते हैं ‘जो सत्पुरूषों को संसार – सागर से पार उतारने के लिये कावेरी और नर्मदा के पवित्र संगम के निकट मान्धाता के पुर में सदा निवास करते हैं, उन अद्वितीय कल्याणमय भगवान ओकारेश्वर का मैं स्तवन करता हूँं’।

श्री शिव महापुराण में ऐसा प्रसंग आया है कि किसी समय देवर्षि नारद जी ने गोकर्ण तीर्थ में जाकर वहां उन गोकर्ण नामक शिव जी की बड़ी पूजा की तथा पुनः विन्ध्याचल पर्वत पर उनकी आराधना की। तब विन्ध्य पर्वत को यह अहंकार हो गया कि मुझमें सब कुछ है तथा किसी भी प्रकार की न्यूनता नहीं है।

इससे विन्ध्य पर्वत नारद जी के समक्ष आकर खड़ा हो गया तथा उसने मनुष्य रूप में अपनी अहंमन्यता प्रकट की, तब उसके ऐसे भाव को देख कर नारद जी ने कहा “तुम अवश्य ही सभी गुणों के आकर हो, परंतु सुमेरू पर्वत सबसे ऊँचा है।” यह सुन कर विन्ध्याचल दुःखी हुआ एवं बड़े प्रेम से ऊँकार नामक शिव की पार्थिव मूर्ति बनाकर पूजा करने लगा।

शिव जी प्रसन्न होकर प्रकट हुए और उससे वर मांगने को कहा। भगवान शिव को प्रकट हुआ देख कर ऋषियों, मुनियों और देवतओं ने उनसे वहीं निवास करने की प्रार्थना की। फलस्वरूप भगवान शिव वहां ओंकरेश्वर नाम से प्रसिद्ध हुए। यह स्थान आज कल मालवा प्रान्त में नर्मदा नदी के तट पर स्थित है। यहां ओंकरेश्वर और अमलेश्वर (अमरेश्वर) के दो पृथक – पृथक लिंग हैं, परंतु ये एक ही लिंग के दो स्वरूप हैं।

केदारेश्वर ज्योतिर्लिंग

शिवपुराण के अनुसार धर्म पुत्र नर – नारायण जब बदरिकाश्रम में जाकर पार्थिव पूजन करने लगे तो उनसे प्रार्थित शिव जी वहां प्रकट हुए। कुछ समय पश्चात एक दिन शिव जी ने प्रसन्न होकर उनसे वर मांगने को कहा तो लोक कल्याणार्थ नर – नारायण ने उनसे प्रार्थना की कि ‘हे देवेश! यदि आप हमसे प्रसन्न हैं तो स्वयं अपने रूप से पूजा के निमित्त सर्वदा यहां स्थित रहें।’

तब उन दोनों के ऐसा कहने पर हिमाश्रित केदार नामक स्थान में साक्षात महेश्वर ज्योतिःस्वरूप हो स्वयं स्थित हुए। उनका वहां केदारेश्वर नाम पड़ा। वर्तमान समय में श्री केदारनाथ हिमालय के ‘केदार’ नामक श्रृंग पर स्थित हैं।

भीम शंकर ज्योतिर्लिंग

श्री शिव महापुराण में ऐसी कथा है कि पूर्व समय में भीम नामक एक बड़ा ही वीर राक्षस था। वह रावण के भाई कुम्भकर्ण और कर्कटी नामक राक्षसी से उत्पन्न हुआ था। वह श्री हरि विष्णु का विरोधी था; क्योंकि उसके पिता कुम्भकर्ण का वध श्रीराम ने किया था। अतएव वह श्री हरि को पीड़ा देने के निमित्त उग्र तप करने लगा।

ब्रह्मा जी से वर पाकर उसने समस्त पृथ्वी को अपने अधीन कर लिया। समस्त देवता शिव जी की शरण में गये एवं अपनी वेदना प्रकट की। उधर राक्षस भीम ने कामरूप देश के राजा सुदक्षिण पर आक्रमण किया। कामरूपेश्वर सुदक्षिण का शिव में पूर्ण विश्वास था।

उन्होंने भगवान सदाशिव की शरण ली और पार्थिव लिंग बनाकर उसका पूजन प्रारम्भ किया। उस राक्षस भीम ने कामरूपेश्वर पर प्रहार करना चाहा, परंतु उसकी तलवार पार्थिव लिंग तक पहुंची भी न थी कि उस लिंग से साक्षात शिव प्रकट हो गये और उन्होंने हुंकार मात्र से राक्षस भीम का सेना सहित संहार कर दिया।

वे वहां भीम शंकर नामक ज्योतिर्लिंग के रूप में प्रतिष्ठित हुए। सम्प्रति यह स्थान मुम्बई से पूर्व और पूना से उत्तर भीमा नदी के किनारे सह्याद्रि पर्वत पर है। कुछ लोग इसे आसाम में भी बतलाते हैं।

श्री शंकराचार्य जी ने इनकी स्तुति करते हुए कहा है ‘जो डाकिनी और शाकिनी वृन्द में प्रेतों द्वारा सदैव सेवित होते हैं, उन भक्त हितकारी भगवान भीम शंकर को मैं प्रणाम करता हूँ।’

विश्वेश्वर ज्योतिर्लिंग

सभी देवताओं की साधना – स्थली है काशी। आद्य भगवत्पाद श्री शंकराचार्य जी ने भगवान विश्वेश्वर की स्तुति में कहा “जो स्वयं आनंदकन्द हैं और आनंदनपूर्वक आनंदवन (काशी क्षेत्र) में वास करते हैं, जो पाप समूह का नाश करने वाले हैं, उन अनाथों के नाथ काशी पति श्री विश्वनाथ की शरण में मैं जाता हूँ।”

भगवान शिव ने अपनी प्रेरणा से समस्त तेजों के सार स्वरूप पांच कोश का एक सुंदर नगर निर्माण किया। जहां पर भगवान विष्णु ने सृष्टि रचने की इच्छा से शिव जी का चिर काल तक ध्यान किया, किंतु शून्य छोड़ उन्हें कुछ भी भान न हुआ।

इस अदभुत दृश्य को देख कर उन्होंने अपने शरीर को जोर से हिलाया तो उनके कर्ण से एक मणि गिरी, जिससे उस स्थान का नाम ‘ मणि कर्णिका’ तीर्थ पड़ा। फिर मणि कर्णिका के उस पंचकोश विस्तार वाले सम्पूर्ण मण्डल को शिव जी ने अपने त्रिशूल पर धारण किया।

उन्होंने इस पंचकोश को ब्रह्माण्ड मंडल से पृथक रखा। यहीं पर उन्होंने अपने मुक्तिदायक विश्वेश्वर नामक ज्योतिर्लिंग को स्वयं स्थापित किया है। सम्प्रति यह स्थान उत्तर प्रदेश में वाराणसी (काशी) में स्थित है।

न्न्यम्बकेश्वर ज्योतिर्लिंग

एक समय गौतम ऋषि ने अपने शिष्यों को जल लाने के लिये भेजा। जब वे पात्र लेकर गर्त पर गये, उसी समय जल लेने के लिये आयी हुई ऋषि पत्नियों ने उन शिष्यों को देख कर जल लेने का विरोध किया और कहा कि पहले हम लोग भर लेंगी, तब तुम दूर से भरना।

तब उन शिष्यों को समझा कर स्वयं उनके साथ जल लेने को गयीं और गौतम ऋषि को दिया। ऋषि – पत्नियों ने क्रोधवशात उपर्युक्त सम्पूर्ण वृत्तान्त असत्य रूप में अपने – अपने पतियों से कहा। फलस्वरूप ऋषियों ने गणेशार्चन कर गौतम ऋषि को आश्रम से बहिष्कृत करने का वर मांगा।

भक्त पराधीन गणेश जी को उनकी बात माननी पड़ी। गौतम जी इस वृत्तान्त से अज्ञात थे। गणेश जी ने केदार तीर्थ पर जौ – भक्षण करने के लिये एक दुर्बल गौ का रूप धारण किया। गौतम जी ने एक तृण के स्तम्भ से उस गौ का निवारण किया, जिससे वह गाय मृत्यु को प्राप्त हुई।

फलस्वरूप गो हत्या का आरोप लगा कर उन ऋषियों ने सपरिवार गौतम मुनि को वहां से बहिष्कृत किया। गो हत्या – निवारणार्थ अन्य ऋषियों ने गंगा जी को लाकर स्नान करने एवं कोटि संख्या में पार्थिव लिंग बनाकर शिव अर्चन करने की बात कही।

उक्त क्रिया करने पर शिव जी वहां प्रकट हुए , तब गौतम ने पाप निवारणार्थ गंगा सहित महादेव जी से वहां निवास करने का आग्रह किया। यह सुन कर शिव जी तथा गंगा जी वहां स्थित हुए।

गंगा जी ‘गौतमी’ नाम से तथा शिव जी का लिंग ‘ न्न्यम्बक ’ नाम से विख्यात हुआ। सम्प्रति यह ज्योतिर्लिंग महाराष्ट्र प्रान्त के नासिक जिले में ब्रह्म गिरि के निकट गोदावरी नदी के तट पर है। श्री शंकराचार्य जी ने न्न्यम्बकेश्वर की स्तुति करते हुए कहा है “जो गोदावरी तट के पवित्र देश में सह्याद्रि पर्वत के विमल शिखर पर वास करते हैं, जिनके दर्शन से तुरंत ही पातक नष्ट हो जाता है, उन श्री न्न्यम्बकेश्वर का मैं स्तवन करता हूँ।

वैद्यनाथ ज्योतिर्लिंग

पीठ वैद्यनाथ धाम तो द्वादश ज्योतिर्लिंगों में सर्वश्रेष्ठ माना गया है। ऐसा पद्म पुराण में कहा गया है। आद्य जगदगुरू शंकराचार्य वैद्यनाथ ज्योतिर्लिंग की स्तुति करते हुए कहते है “जो पूर्वोत्तर दिशा में वैद्यनाथ धाम के भीतर सदा ही गिरिजा के साथ वास करते हैं, देवता और असुर जिनके चरण कमलों की आराधना करते हैं, उन श्री वैद्यनाथ को मैं प्रणाम करता हूँ।”

ऐसा प्रसंगआया है कि राक्षसाधिप रावण ने कैलाश पर्वत पर जाकर शिव जी की आराधना की और शीत काल में आकण्ठ जल में तथा ग्रीष्म काल में पंचाग्नि के बीच कठोर तप करना प्रारम्भ किया।

रावण ने शिव जी को प्रसन्न करने के लिये अपने एक – एक कर नौ सिर काट डाले, जब एक सिर बचा रहा, तब शिव जी प्रसन्न हो गये। शिव जी को प्रसन्न हुआ जान कर रावण ने उनसे यह प्रार्थना की कि ‘हे प्रभो! मैं आपको अपनी नगरी लंका में ले चलना चाहता हूँ। मैं आपकी शरण में हूँ।’

भगवान शिव ने कहा “अच्छा, तुम्हारी यही इच्छा है तो तुम मेरे लिंग को परम भक्ति के साथ अपने साथ ले चलो, पर यह ध्यान रखना कि यदि तुम कहीं बीच में इसे पृथ्वी पर रख दोगे तो यह वहीं स्थिर हो जायगा।”

इसके बाद जब रावण ज्योतिर्लिंग लेकर लंका के लिये चला तो वह प्रबल लघु शंका के वेग से पीड़ित होने लगा। एक गोप बालक को महालिंग देकर वह लघु शंका करने लगा, परंतु उस बालक ने भी अधिक देर तक लिंग का भार न सह सकने के कारण उसे पृथ्वी पर रख दिया और उसी समय से वह लिंग वैद्यनाथ ज्योतिर्लिंग नाम से विख्यात हुआ।

सम्प्रति यह महालिंग झारखण्ड प्रांत के संथाल परगना में स्थित है, यहीं पर भवानी सती का हृदय भी गिरा है, अतः यह 51 शक्तिपीठों में एक है, लेकिन यहां यह विशेषता पायी जाती है। यहां ज्योति का वाचक चन्द्रकान्त मणि आज भी विद्यमान है।

नागेश ज्योतिर्लिंग

पश्चिम समुद्र तट पर स्थित एक वन में दारूक नाम का एक बलवान राक्षस अपनी पत्नी दारूका तथा अन्य राक्षसों के साथ रहता था। एक बार बहुत सी नावें उधर आ निकलीं, जो मनुष्यों से भरी थीं। राक्षसों ने उनमें बैठे हुए सब लोगों को पकड़ लिया और बेड़ियों से बांध कर कारागार में डाल दिया।

उनमें सुप्रिय नाम से प्रसिद्ध एक वैश्य था, जो उस दल का मुखिया था। वह बड़ा, सदाचारी, भस्म रूद्राक्षधारी तथा भगवान शिव का परम भक्त था। एक समय दारूक राक्षस के सेवक ने उस वैश्य के आगे शिव जी का सुंदर रूप देखा तो दौड़कर उसने सब चरित्र अपने स्वामी को सुनाया।

वृत्तान्त सुनकर दारूक वैश्य से समाचार पूछने लगा और कहने लगा कि सत्य – सत्य बतलाओ नहीं तो मैं तुझे मार डालूँगा। वैश्य ने कहा – मैं कुछ नहीं जानता। इस पर क्रुद्ध होकर दारूक ने उसे मारने की आज्ञा दी।

वैश्य शिव जी का स्मरण कर उनके नाम को रटने लगा, उससे प्रसन्न हो सदाशिव पाशुपत अस्त्र से स्वयं राक्षसों को मारने लगे। दारूक की सेना मारी गयी। इस प्रकार राक्षसों को मार कर शिव जी ने उस वन में चारों वर्णों को रहने का अधिकार दिया और यह भी कहा कि यहां राक्षस न रहें।

यह देख कर दारूका नाम की राक्षसी ने वंश – रक्षार्थ मां भवानी की वंदना की, पुनः पार्वती जी ने शिव जी से आग्रह किया तो शिव जी ने भी सहमति प्रकट की। फिर उन्होंने शिव जी से कहा – इस युग के अन्त तक तामसिक सृष्टि रहेगी।

दारूका राक्षसी मेरी शक्ति है। यह राक्षसों में वरिष्ठ होकर राज्य करेगी। इस प्रकार शिव – पार्वती परस्पर वार्तालाप करते हुए वहीं स्थित हो गये, भगवान का वहां ‘ नागेश्वर ’ नाम पड़ा। वर्तमान में यह स्थान गुजरात राज्य अन्तर्गत गोमती द्वारका से ईशान कोण में बारह – तेरह मील की दूरी पर है।

कोई – कोई इसे तेलंगाना राज्य अन्तर्गत औढ़ा ग्राम में स्थित लिंग को ही ‘ नागेश्वर ’ ज्योतिर्लिंग मानते हैं। कुछ लागों के मत से अल्मोड़ा से 17 मील उत्तर – पूर्व में स्थित यागेश ( जागेश्वर ) शिव लिंग ही नागेश ज्योतिर्लिंग है।

रामेश्वर ज्योतिर्लिंग

त्रेतायुग में भगवान श्री रामचन्द्र जी सीता हरण के पश्चात सीता जी की खोज करने के क्रम में सुग्रीव – हनुमान आदि के सहयोग से लंका पर चढ़ाई करने के पूर्व वानरी सेना लेकर समुद्र के किनारे पहुंचे। उसी समय उन्हें प्यास लगी। उन्होंने अनुज लक्ष्मण से जल मांगा।

लक्ष्मण ने वानरों को जल लाने की आज्ञा दी। वानर जल लेकर आये। श्री राम ने ज्यों ही जल पीना चाहा, त्यों ही उन्हें स्मरण हो आया कि मैंने अभी तक शिव अर्चन नहीं किया फिर उन्होंने पार्थिव लिंग बना कर षोडशोपचार विधि से शिव पूजन किया। शिव जी प्रसन्न हुए एवं वर मांगने को कहा।

श्री राम ने लोक कल्याणार्थ शिव जी को इस स्थान पर निवास करने के लिये कहा। तब शिव जी ‘रामेश्वर’ नाम से विख्यात हुए। वर्तमान समय में यह ज्योतिर्लिंग तमिलनाडु प्रान्त के रामनद जिले में है। श्री शंकराचार्य जी ने रामेश्वर ज्योतिर्लिंग की स्तुति में कहा है “जो भगवान श्री रामचंद्र जी के द्वारा ताम्रपर्णी और सागर के संगम में अनेक बाणों द्वारा पुल बांध कर स्थापित किये गये हैं, उन श्री रामेश्वर को मैं नियम से प्रणाम करता हूँ।”

घुश्मेश्वर ( घृष्णेश्वर ) ज्योतिर्लिंग

दक्षिण दिशा में देव नामक पर्वत है। उस पर सुधर्मा नामक वेदज्ञ ब्राह्मण सपत्नीक निवास करते थे। दुर्भाग्यवश उनकी प्रथम पत्नी सुदेहा से उनको कोई पुत्र न हुआ। काल क्रमानुसार घुश्मा से विवाह कर उन्हें पुत्र रत्न की प्राप्ति हुई। सुदेहा दुखी रहने लगी।

कुछ समय बाद सुदेहा ने पुत्र मारण रूप पैशाचिक कर्म किया, किंतु शिव भक्ता घुश्मा ने शोक रहने पर भी नित्य पार्थिव पूजन नहीं त्यागा। पूजन के पश्चात जब वह पार्थिव लिंग का विसर्जन करने तालाब पर गयी तो शिव कृपा से उसका पुत्र जीवित मिला।

भगवान शिव ने घुश्मा के इस भक्ति भाव से प्रसन्न होकर कहा “हे घुश्मे! वर मांगो। किंतु नतमस्तक करबद्ध घुश्मा ने कहा “हे देवेश! सुदेहा मेरी बहन है, अतः आप उसकी रक्षा करें। और यहाँ सर्वदा निवास करें। इस पर वहां भगवान शिव ‘घुश्मेश्वर’ के नाम से प्रख्यात हुए।

सम्प्रति यह ज्योतिर्लिंग दौलताबाद से बारह मील दूर बेरूल नामक ग्राम के पास है। श्री शंकराचार्य जी ने इनकी स्तुति में है “जो इलापुर के सुरम्य मंदिर में विराजमान होकर समस्त जगत के आराधनीय हो रहे हैं, जिनका स्वभाव बड़ा ही उदार है, उन घृष्णेश्वर नामक ज्योतिर्मय भगवान शिव की शरण में जाता हूँ।”

रूद्राष्टक

नमामीशमीशान निर्वाणरूपं। विभुं व्यापकं ब्रह्म वेदस्वरूपं।।
निजं निर्गुणं निर्विकल्पं निरीहं। चिदाकाशमाकाशवासं भजेऽहं।।
निराकारमोंकारमूलं तुरीयं। गिरा ग्यान गोतीतमीशं गिरीशं।।
करालं महाकाल कालं कृपालं। गुणागार संसारपारं नतोऽहं।।
तुषाराद्रि संकाश गौरं गभीरं। मनोभूत कोटि प्रभा श्री शरीरं।।
स्फुरन्मौलि कल्लोलिनी चारू गंगा। लस˜ालबालेन्दु कंठे भुजंगा।।
चलत्कुण्डलं भ्रू सुनेत्रं विशालं। प्रसन्न्ाननं नीलकंठं दयालं।।
मृगाधीशचर्माम्बरं मुण्डमालं। प्रियं शंकरं सर्वनाथं भजामि।।
प्रचंडं प्रकृष्ंट प्रगल्भं परेशं। अखंडं अजं भनुकोटिप्रकाशं।।
त्रयः शूल निर्मूलनं शूलपाणिं। भजेऽहं भवानीपतिं भावगम्यं।।
कलातीत कल्याण कल्पान्तकारी। सदा सज्जनानन्ददाता पुरारी।।
चिदानंद संदोह मोहापहारी। प्रसीद प्रसीद प्रभो मन्मथारी।।
न यावद् उमानाथ पादारविन्दं। भजंतीह लोके परे वा नराणां।।
न तावत्सुखं शान्ति सन्तापनाशं। प्रसीद प्रभो सर्वभूताधिवासं।।
न जानामि योगं जपं नैव पूजां। नतोऽहं सदा सर्वदा शंभु तुभ्यं।।
जरा जन्म दुःखौघ तातप्यमानं। प्रभो पाहि आपन्न्ामामीश शंभो।।
रूद्राष्टकमिदं प्रोक्तं विप्रेण हरतोषये। ये पठन्ति नरा भक्त्या तेषां शम्भुः प्रसीदति।।

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