सर्व व्यापक निर्गुण निराकार ब्रह्म अनुभवगम्य है। उसका प्रत्यक्ष दर्शन नहीं होता, किंतु उसके साकार रूप सूूर्य का प्रकाश, नित्य ब्रह्म का प्रत्यक्ष प्रकाश् हैै। शत पथ ब्राह्मण में कहा गया हैे कि ‘असौ वा आदित्यो ब्रह्म अहरहः पुरस्तताज्जायते’ (7।4।1।14) अर्थात यह आदित्य, सूर्य, या ब्रह्म प्रतिदिन सामने प्रकट होता है जिसका भाव यह है कि व्यापक अमूर्त ब्रह्म ही मूर्त सूर्य के रूप में प्रतिदिन प्रातः सबके समक्ष उदित हो रहा है।
प्रश्नोउपनिषद में भी कहा गया है कि ‘ प्राणः प्रजानामुदयत्येष सूर्यः।।’ (1।8)। अर्थात प्रजाओं का प्राण रूप यह सूर्य उदित हो रहा है। प्राणि मात्र चेष्ट सूर्योदय ही होती है। इसलिये श्रृति में सूर्य को चराचर जगत का आत्मा कहा गया है ‘सूर्य आत्मा जगतस्तस्थुषश्च ’ ( यजु0 7।42 )। सूर्य से ही जगत की सृष्टि , स्थिति तथा लय होता है, जिसका निर्देश सूर्योपनिषद में इस प्रकार है ‘जो सूर्य है , वह मैं ही हूं। इस कथन से आत्मरूप सूर्य ब्रह्म की उपासना व्यक्त होती है।
तैत्तिरीयोपनिषद में कहा गया है कि ‘आदित्येन वाव सर्वे लोका महीयन्ते ’ (1।5।1)। इसका भाव यह है कि ‘भूः , भुवः , स्वः’ ये व्याहृतियां पृथ्वी, अंतरिक्ष तथा स्वर्ग लोक के नाम से विख्यात हैं। इनके ऊपर एक चौथी व्याहृति ‘ महः ’ है , जिसके अधिष्ठाता सूर्य हैं। इनसे ही तीनों लोकों की महत्ता है। महर्लोक सात लोकों के मध्य में है , नीचे के ‘भू र्भुवः स्वः’ तथा ऊपर के ‘जनः , तपः , सत्यम’ के बीच दिनमणि रूप महर्लोक से सभी लोक प्रभावित हैं।
सूूर्य केेे ब्रह्म रूप का निर्देेश शतपथ ब्राह्मण मेें अनेक बार हुुआ हैै जैैसा कि ‘असौ वा आदित्यों ब्रह्म असौ वा आदित्योे बृृहज्ज्योतिः’ (6।3।1।15) , ‘असौ वा आदित्यः सूर्यः’ (9।4।2।23) , ‘ असौ सूर्यो वै सर्वेषां देवानामात्मा।’ इस प्रकार सूर्य विषयक अनेक सूक्तियों के द्वारा सूर्य के महत्व को बताते हुए यह भी कहा गया है कि इनका भाव यह है कि सूर्य की सत्ता से ही वसन्त , ग्रीष्म आदि ऋतुएँ प्रतिदिन अनुभूत होती हैं।
सूर्योदय से दो घंटे चौबीस मिनट तक वसन्त ऋतु , इसके बाद सगरव-गो दोहन काल तक ग्रीष्म, फिर क्रमशः वर्षा, शरदादि,हेमन्त-इन ऋतुओं का संक्रमण काल है। इस प्रकार दिन के बारह घंटों में इन पांच ऋतुओ का विभाजन है, जो सूर्य के कारण ही होता है। सूर्य की प्रखर किरणों का अनुभव हमें मध्याहृ मे ही क्यो होता है? इसका कारण यह है कि उस समय सूर्य इस लोक के अत्यन्त सन्निकट रहता है।
सूर्य की दूरी और निकटता ही सूर्य की अतप्त तथा तप्त किरणों के अनुभव का कारण है। मध्याहृ में सूर्य के भीतर अधिक प्रखर किरणों का सन्निवेश होना कारण नहीं है; क्योंकि सूर्य ब्रह्म सदा एक समान रहता है, इसमें कमी-वेशी नहीं होती है। वैज्ञानिकोें की मान्यता के अनुुसार पृथ्वी सेे सूर्य की दूरी 9 करोड़ 70 लाख मील है इसीलिये सूर्य की किरणें पृथ्वी तल पर सूर्योदय के 8 मिनट 18 सेकेण्ड बाद पहुंचती हैं।
इसी प्रकार प्रातः काल के समान सायंकाल में भी सूर्य की दूरी अधिक होती है जिसका यही कारण है कि प्रातः उदय तथा सायं अस्त के समय सूर्य लाल वर्ण का ही दिखायी देता है , वही उसका अपना असली रूप है। उदय के कुछ समय बाद सूर्य में शुक्ल वर्ण की प्रतीति तो द्रष्टा के नेंत्रों में सूर्य की किरणों के चाकचिक्य से होती है। स्वरूपतः सूर्य लाल ही है तभी तो अन्यत्र भी जब कभी सूर्य उदित होता है तो लाल ही दिखायी देता है।
मूर्त रूप दृश्य – पदार्थों में सबसे बड़ा प्रकाश पुंज ज्योतिष्मान सूर्य ही है , दूसरा नहीं। अमूर्त , व्यापक , परम प्रकाश ब्रह्म का मूर्त रूप सूर्य भी ब्रह्म ही है। मैत्रायण्युपनिषद (5।3) में मूर्त और अमूर्त रूप से ब्रह्म का निर्देश इस प्रकार हुआ है ‘द्वे वा ब्रह्मणो रूपे मूर्तं चामूर्तम्।’ अमूर्त निराकार ब्रह्म का यह विश्व ब्रह्माण्ड मूर्त रूप है, इसमें ज्योति रूप मूर्त सूर्य है।
इसके समान दूसरा कोई दृश्य नहीं है। ब्रह्माण्ड के भीतर सभी ग्रह – उपग्रह सूर्य से ही संचारित होते हैं। सूर्य मूलभूत अमूर्त परब्रह्म ज्योति रूप ठोस प्रकाश है , अतः यह भी उस परम प्रकाश से सदा आकृष्ट रहता है।
इस प्रकार यह मूर्त रूप सूर्य प्रत्यक्ष ब्रह्म ही है। इसकी उपासना सगुण ब्रह्म की आराधना है। अतः जो व्यक्ति सूर्य नारायण की श्रद्धापूर्वक आराधना करता है, उसे भुक्ति – मुक्ति – दोनों की ही उपलब्धि अवश्य होती है , यह बात अनुभव के द्वारा सिद्ध होती है।