इस ब्रम्हाण्ड में भगवान के जो भी अवतार हो चुके हैं या भविष्य में होने वाले है , बड़े-बड़े विद्वानों द्वारा भी उनकी गणना नहीं की जा सकती है। भगवान का रूप सत्य है; वह तीनों कालों में , सभी देशों में , सभी दिशाओं में अबाधित रहता है। कार्य , कारण सिद्धांत के अन्तर्गत कारण को सत्य कहते हैं। भगवान ‘सर्वकारणकारण’ हैं – इसलिये भगवान परम सत्य कहलाते हैं। जगत मे नियति या वस्तु का गुण – धर्म ही सत्य है।
जगत का प्रत्येक पदार्थ एक नियम के अन्तर्गत अनुशासित है , जैसे – अग्नि का धर्म ऊपर की ओर जाना है , जल का धर्म नीचे की ओर प्रवाहित होना है , वायु भी नियमानुसार चलती है , सूर्य भी नियम के अनुसार उदय और अस्त होता है , समुद्र भी अपनी सीमा नहीं लांघता है – इस प्रकार नियति रूप से परम-सत्ता के जगत में यह सत्यरूप अवतार ही है । प्रत्येक पदार्थ का अपना अपना अस्तित्व है, उस आधार पर ही वह कार्य-सम्पादन करते है।
श्रुति एवं पुराणों में सत्य को ब्रह्म कहा गया है -‘सत्यं ज्ञानमनन्तं ब्रह्म।’ परब्रह्म परमात्मा सत्यस्वरूप हैं । उनकी नित्य सत्ता है , वे ज्ञानस्वरूप हैं तथा देश – काल की सीमा से रहित हैं । परब्रह्म का नाम सत्य है । सत्य ही परब्रह्म है । सत्य ही परम तप है । यह सत्य, ज्ञान एवं अनंत ब्रह्म ही है।
परम सत्यरूप परमात्मा का हम ध्यान करते हैं |
शास्त्रों में सत , चित और आनंद परमात्मा के रूप निश्चित किये गये हैं । प्रतिष्ठा, ज्योति और यज्ञ के रूप में उनका अवतार होता है । सत्ता और धृति – ये दोनों प्रतिष्ठा के रूप हैं । चित का रूप ज्योति है , जिसके तीन भेद हैं – नाम, रूप और कर्म । आनंद का रूप यज्ञ है । जो सर्वज्ञ तथा सबको जानने वाला है , जिसका ज्ञान ही एकमात्र तप है । यह विराट रूप जगत उसके संकल्प मात्र से ही उत्पन्न हो जाता है । समस्त प्राणियों तथा लोकों के नाम – रूप और अन्न भी उत्पन्न हो जाते हैं ।
श्रीमद भागवत (10।2।26) में भगवान श्री कृष्ण की स्तुति देवताओं ने इस प्रकार की है – हे भगवन! आप सत्य संकल्प हैं , सत्य ही आपकी प्राप्ति का श्रेष्ठ साधन है । सृष्टि के पूर्व , संसार की स्थिति के समय तथा प्रलय में इन असत्य अवस्थाओं में भी आप सत्य हैं । पंच-महाभूत के आप आदि कारण हैं तथा उसके भीतर भी आप ही स्थित हैं , आप तो सत्य के स्वरूप हैं । हम सभी आपकी शरण में आये हैं ।
इस प्रकार नियति, प्रतिष्ठा, नाम – रूप आदि से भगवान का प्रथम अवतार स्वयम्भू ही परिलक्षित होता है । अतः सत्य का प्रथम आविर्भाव स्वयम्भू ही है । स्वरूप एवं शक्ति में सर्वश्रेष्ठ भगवान का प्रथम अवतार विराट पुरूष (स्वयम्भू) है । काल , स्वभाव , कार्य – कारणात्मिका प्रकृति , मन (महतत्व) , द्रव्य (महाभूत) , विकार (अहंकार) , गुण (सत्व , रज और तम), इन्द्रियां (पांच कर्मेन्द्रियां और पांच ज्ञानेन्द्रियां), विराट (समष्टि शरीर, ब्रह्माण्ड रूप), स्वराट (समष्टि जीव हिरण्य गर्भ), स्थावर-जङ्गम आदि सभी भगवान की विभूतियां हैं।
अतः सत्य का प्रथम आविर्भाव स्वयम्भू ही है । मनुष्यों में जो विभिन्न शक्तियां हैं , वे भगवान के विभूति अवतार ही हैं । उद्भिज, अण्डज, स्वदेज और जरायुज – ये चार प्रकार के प्राणी सभी चैतन्य हैं , पर चेतना की कलाओं की भिन्नता के कारण ही नाम – रूप में भिन्न है । उद्भिज में चेतना की एक कला , स्वदेज में दो कला , अण्डज में तीन कला और जरायुज में चेतना की चार कलाएं तथा जीवन्मुक्त महात्माओं में चेतना की आठ कलाएं विकसित रहती हैं , इससे अधिक कला के विस्तार को अवतार कहते हैं ।
मूलरूप में सत – तत्व परमात्म तत्व ही है , इसी सत्स्वरूप परमात्मा की स्तुति करते हुए श्रीमद भागवत में कहा गया है – ‘जिससे इस जगत की सृष्टि , स्थिति और प्रलय होते हैं – क्योंकि वह सभी सद्रूप पदार्थों में अनुगत है और असत पदार्थों से पृथक है; जड़ नहीं , चेतन है ; परतंत्र नहीं , स्वयं-प्रकाश है ; जो ब्रह्मा अथवा हिरण्य गर्भ नहीं , बल्कि उन्हें अपने संकल्प से ही जिसने उस वेदज्ञान का दान किया है ।
इस से जुड़े संबंध में बड़े-बड़े विद्वान भी मोहित हो जाते हैं; जैसे तेजोमय सूर्य रश्मियों में जल का , जल में स्थल का और स्थल में जल का भ्रम होना , वैसे ही जिसमें यह त्रिगुणमयी जाग्रत स्वप्न सुषुप्तिरूपा सृष्टि मिथ्या होने पर भी अधिष्ठान सत्ता से सत्यवत प्रतीत हो रही है , उस अपनी स्वयं प्रकाश ज्योति से सर्वदा और सर्वथा माया और माया कार्य से पूर्णतः मुक्त रहने वाले परम सत्यरूप परमात्मा का हम ध्यान करते हैं’ ।