श्री कृष्ण लीला रहस्यम
परम प्रभु परमेश्वर भगवान् श्री विष्णु जी से जो कृपाप्रसाद नन्दरानी यशोदा मैया को मिला, वैसा न तो ब्रह्मा जी को, न ही शंकर जी को, और न ही उनकी अर्धांगिनी लक्ष्मी जी को भी कभी प्राप्त हुआ । आज उस परात्पर, परब्रह्म परमेश्वर की, भगवान् कृष्ण के रूप में, बाल लीलाओं का वर्णन बिना यशोदा मैया के, असंभव है | इस कथामृत का रसास्वादन जिसने किया वही इसके अमृतत्व को समझ सकता है |
किसी समय अष्ट वसुओं में श्रेष्ठ द्रोण ने पद्मयोनी ब्रह्मा जी से यह प्रार्थना की कि “हे देव ! जब में पृथ्वी पर जन्म धारण करूँ, तब भगवान श्री हरि श्रीकृष्ण में मेरी परम भक्ति हो” । विधाता की लीला कौन जानता है, जिस समय वसु द्रोण भगवान ब्रह्मा जी से यह प्रार्थना कर रहे थे उसी समय वहां उनके साथ उनकी धर्मशीला पत्नी धरा देवी (पृथ्वी माता) भी वहीं खड़ी थीं ।
धरा देवी ने अपने मुख से कुछ नहीं कहा पर उनके शरीर का रोम-रोम परमेश्वर से वही मांग रहा था जो उस समय वहाँ खड़े उनके पतिदेव भगवान ब्रह्मा जी से मांग रहे थे, अर्थात वो भी वहाँ भगवान कृष्ण को अपने पुत्र के रूप में मांग रही थी । विधाता ब्रह्मा ने कहा “तथास्तु-ऐसा ही होगा”, और अंतर्ध्यान हो गये |
कालान्तर में इसी वर के प्रताप से धरा देवी ने पृथ्वी पर व्रजमण्डल के एक ‘सुमुख’ नामक गोप एवं उनकी पत्नी पाटला की कन्या के रूप में भारतवर्ष में जन्म धारण किया | ये वो समय था जब स्वयं भगवान श्रीकृष्ण चन्द्र के अवतरण का समय हो चला था, श्वेतवाराहकल्प की अटठाईसवीं चतुर्युगी के द्वापर युग का अन्त हो रहा था उस समय ।
सुमुख और पाटला ने अपनी सुन्दर सी कन्या का नाम यशोदा रखा । बड़ी होने पर यशोदा का विवाह व्रजराज नन्द से हुआ । व्रजराज नन्द पूर्व जन्म में वही द्रोण नाम के वसु थे, जिनकी चिरसंगिनी धरा ने ही यशोदा रूप में उनसे विवाह किया था |
वास्तव में भगवान् की नित्य लीला में भी एक यशोदा हैं । वे भगवान श्रीकृष्ण की नित्य माता हैं । भगवान के नित्य धाम में वात्सल्य रस की घनीभूत मूर्ति वे यशोदा रानी भगवान को सदा वात्सल्य रस का आस्वादन कराया करती हैं । जब भगवान के पृथ्वी पर अवतरण का समय हुआ तब उन चिदानन्दमयी, वात्सल्यरसमयी यशोदा का भी इन यशोदा (पूर्व जन्म की धरा)-में ही आवेश हो गया ।
पाटलापुत्री यशोदा पुत्र के रूप में आनन्दकन्द परब्रह्म पुरूषोत्तम स्वयं भगवान श्रीकृष्ण अवतीर्ण हुए । जब भगवान् अवतीर्ण हुए थे, उस समय यशोदा जी की आयु ढल चुकी थी । इससे पूर्व अपने पति नन्द जी के साथ यशोदा ने न जाने कितनी चेष्टा की थी कि उन्हें संतान हो पर उन्हें संतान हुई नहीं । अतः जब पुत्र हुआ, तब फिर उनके आनन्द का कहना ही क्या था |
यशोदा को पुत्र हुआ था, इस आनन्द में उस समय सारा व्रजपुर निमग्न हो गया । छठे दिन यशोदा ने अपने पुत्र की छठी पूजी । इसके दूसरे दिन से ही मानो यशोदा-वात्सल्य-सिन्धु का मन्थन आरम्भ हो गया, मानो स्वयं जगदीश्वर अपनी जननी का हृदय मथते हुए राशि-राशि भावरत्न निकाल-निकालकर बिखेरने लगे |
कंसप्रेरित पूतना यशोदा नन्दन को मारने आयी । उसने अपना विषपूरित स्तन यशोदा नन्दन के श्रीमुख में दे दिया । किंतु यशोदा नन्दन उसके विषमय दूध के साथ ही उसके प्राणों को भी पी गये । शरीर छोड़ते समय श्रीकृष्ण को लेकर ही पूतना मधुपुरी की ओर दौड़ी ।
आह ! उस क्षण यशोदा के प्राण भी मानो पूतना के पीछे-पीछे दौड़ चले । यशोदा के प्राण तभी लौटे, तभी उनमें जीवन का संचार हुआ, जब पुत्र को लाकर गोपसुन्दरियों ने उनके वक्षःस्थल पर रखा । यशोदा ने स्नेहवश उस समय परमात्मा श्रीकृष्ण पर गोपुच्छ फिराकर उनकी मंगल कामना की और अपने सीने से चिपटा लिया ।
क्रमशः यशोदा नन्दन बढ़ रहे थे एवं उसी क्रम में मैया का आनन्द भी प्रतिक्षण बढ़ रहा था । यशोदा मैया पुत्र को देख-देखकर फूली नहीं समाती थीं | कभी-कभी पालने पर पुत्र को सुलाकर वे आनन्द में इस तरह से निमग्न हो जाती कि उन्हें आस-पास की दुनिया का भान ही नहीं होता |
इस प्रकार से जननी का प्यार पाकर श्रीकृष्ण चन्द्र तो आज इक्यासी दिन के हो गये थे पर जननी को ऐसा लगता था मानो कुछ देर पहले ही मैंने अपने पुत्र का वह सलोना मुख देखा है । आज वे अपने पुत्र को एक विशाल शकट के नीचे पालने पर सुला आयी थीं । इसी समय कंस प्रेरित उत्कच नामक एक बड़ा भारी दैत्य आया और उस गाड़ी में प्रविष्ट हो गया |
शकट को यशोदा नन्दन पर गिराकर वह उनको पीस डालना चाहता था । पर इससे पूर्व ही यशोदा नन्दन ने अपने नन्हे कोमल पैर से शकट को उलट दिया और उस शकटासुर की ईहलीला का अन्त कर दिया ! इधर जब जननी ने शकट-पतन का भयंकर शब्द सुना, तब ये सोच बैठीं कि मेरा लाल तो अब जीवित रहा नहीं । बस, दहाड़ मारकर एक बार चीत्कार कर उठीं और फिर सर्वथा प्राणशून्य-सी होकर वहीँ गिर पड़ी ।
बड़ी कठिनाई से गोपसुन्दिरयाँ उनकी मूर्छा तोड़ने में सफल हुई । उन्होंने आँखें खोलकर अपने पुत्र को देखा, देखकर रोती हुई ही अपने को धिक्कारने लगीं “हाय रे हाय ! मेरो यह नीलमणि नवनीत से भी अधिक सुकोमल है, केवल तीन महीने का है और इसके निकट शकट हठात् भूमि पर गिरकर टूट गया । यह बात सुनकर भी मेरे प्राण न निकले, मैं उन्हीं प्राणों को लेकर अभी तक जीवित हूँ, तो यही सत्य है कि मैं वज्र से भी अधिक कठोर हूँ । मैं कहलाने मात्र को माता हूँ, मेरे ऐसे मातृत्व को, मातृवत्सलता को धिक्कार है” |
यशोदा रानी कभी तो प्रार्थना करतीं ‘हे विधाता ! मेरा वह दिन कब आयेगा, जब मैं अपने लाल को बकैयाँ चलते देखूँगी, दूध की दँतुलियाँ देखकर मेरे नेत्र शीतल होंगे, इसकी तोतली बोली सुनकर कानों में अमृत बहेगा’- कभी श्रीकृष्ण चन्द्र से ही निहोरा करने जातीं | अपनी जननी का मनोरथ पूर्ण करते हुए क्रमशः श्रीकृष्ण चन्द्र बोलने भी लगे, बकैयाँ भी चलने लगे और फिर खड़े होकर भी चलने लगे ।
इतने में एक वर्ष पूरा हो गया, यशोदा रानी ने अपने पुत्र की प्रथम वर्षगाँठ मनायी । उधर मायावी कंस के मायावी दानव, दांत पीस कर रह जाते | इस बार कंस ने तृणावर्त दैत्य को भेजा । वह आया और यशोदा के नीलमणि को उड़ाकर आकाश में चला गया । यशोदा मृतवत्सा गौ की भाँति निढाल हो कर पृथ्वी पर गिर पड़ीं ।
इस बार जननी के जीवन की आशा किसी को न थी । पर जब श्रीकृष्ण चन्द्र तृणावर्त को चूर्ण-विचूर्ण कर लौटे, गोपियाँ उन्हें दैत्य के छिन्न-भिन्न शरीर पर से उठा लायीं, तब तत्क्षण यशोदा के प्राण भी लौट आये | दैत्य के द्वारा अपहृत शिशु को पाकर महाप्रयाण (मृत्यु) में लीन होने पर भी यशोदा उसी क्षण वैसे ही चैतन्य हो गयीं, जैसे वर्षा का जल पाकर इन्द्रगोप (बीरबहूटी) कीट की जाति जीवित हो जाती है |
यशोदा एवं यशोदा नंदन (श्रीकृष्ण) में होड़ लगी रहती थी । यशोदा का वात्सल्य उमड़ता, उसे देखकर उससे सौगुने परिमाण में श्रीकृष्ण चन्द्र का लीलामाधुर्य प्रकाशित होता; फिर इस लीलामाधुरी को देखकर सहस्रगुनी मात्रा में यशोदा का भावसिन्धु तरन्गित हो उठता, इन भावलहरियों से धुलकर पुनः श्रीकृष्ण चन्द्र की लीला किरणें निखर उठतीं, क्षणभर पूर्व जो थीं उससे लक्षगुणित परिमाण में चमक उठतीं-इस क्रम से बढ़कर यशोदा का वात्सल्य अनन्त, असीम, अपार बन गया था । उसमें डूबी हुई यशोदा और सब कुछ भूल गयी थीं, केवल नीलमणि ही उनके नेत्रों में नाचते रहते थे ।
कब दिन हुआ, कब रात्रि आयी-यशोदा को यह भी किसी के बताने पर ही भान होता था । उनको क्षणभर के लिये उनकी चिर भाव समाधि से जगाने के लिये ही मानो यशोदा नन्दन ने मृत्तिका-भक्षण (मिटटी खाने) की लीला की थी । ‘उनके लाल श्रीकृष्ण ने मिटटी खायी है’, जान पड़ते ही यशोदा जी की त्योरियाँ चढ़ गयीं |
वे लगीं उनका श्रीमुख देखने और फिर उनके मुख में सारा विश्व अवस्थित देखा, अनंत ब्रह्मांडों की उत्पत्ति एवं उनके लय को देखा | देखकर एक बार तो वे काँप उठीं, किंतु इनते में ही श्रीकृष्ण चन्द्र की वैष्णवी माया का विस्तार हुआ । यशोदा-वात्सल्य सागर में एक लहर उठी, वह यशोदा के इस विश्वदर्शन के स्मृति तक को बहा ले गयी, नीलमणि को गोद में लेकर यशोदा प्यार से उन्हें स्तनपान कराने लगीं |
यशोदा भूली रहती थीं, पर दिन तो पूरे हो ही रहे थे । यशोदा के अनजान में ही उनके पुत्र की दूसरी वर्षगाँठ भी आ पहुँची । फिर देखते-देखते ही उनके नीलमणि दो वर्ष दो महीने के हो गये । पर अब नीलमणि ऐसे, इतने चंचल हो गये थे कि यशोदा को एक क्षण भी चैन नहीं लेने देते । गोपियों के घर जाकर न जाने कितने दही के भाँड फोड़ आया करते थे |
एक दिन मैया का वह दही भाँड भी फोड़ दिया, जो उनके कुल में वर्षों से सुरक्षित चला आ रहा था । जननी ने डराने के उददेश्य से श्रीकृष्ण चन्द्र को ऊखल में बाँधा । सारा विश्व अनन्त काल तक यशोदा की इस चेष्टा पर बलिहार जायगा |
इस सबन्ध को निमित्त बनाकर यशोदा के नीलमणि ने दो अर्जुन वृक्षों को जड़ से उखाड़ दिया । फिर तो व्रजवासी यशोदा नन्दन की रक्षा के लिये अतिशय व्याकुल हो गये । पूतना से, शकट से, तृणावर्त से- इतनी बार तो नारायण ने उनके नीलमणि को बचा लिया, पर अब आगे यहाँ इस गोकुल में तो एक क्षण भी नहीं रहना चाहिये । गोपों ने परामर्श करके यह निश्चय कर लिया था-बस, इसी क्षण वृन्दावन चले जाना है ।
यही हुआ, यशोदा अपने नीलमणि को लेकर वृन्दावन चली आयीं । वृन्दावन आने के पश्चात् श्रीकृष्ण चन्द्र की अनेक भुवन मोहिनी लीलाओं का प्रकाश हुआ । उन्हें गोपबालकों के मुख से सुन-सुनकर तथा उनको अपनी आँखों से देखकर यशोदा कभी तो आनन्द में निमग्न हो कर विह्वल हो जातीं और कभी पुत्र की रक्षा के लिये उनके प्राण व्याकुल हो उठते ।
श्रीकृष्ण चन्द्र का तीसरा वर्ष अभी पूरा नहीं हुआ था, फिर भी वे बछड़ा चराने वन में जाने लगे । वन में वत्सासुर-बकासुर आदि को मारा । जब इन घटनाओं का विवरण जननी सुनती थीं, तब पुत्र के अनिष्ट की आशंका से उनके प्राण छटपटाने लगते, तुरंत अपने नीलमणि को छाती से लगाकर अगले दिन से उनके बाहर निकलने पर प्रतिबन्ध लगा देती लेकिन फिर सबके समझाने पर भोली मैया मान भी जाती ।
पाँचवें वर्ष की शुक्लाष्टमी से श्रीकृष्ण चन्द्र का गोचारण आरम्भ हुआ तथा इसी वर्ष की गर्मियों के समय उनकी कालियदमन-लीला हुई । कालिय के बंधन में पुत्र को बँधा देखकर यशोदा जी को जो दशा हुई थी, उसे चित्रित करने की क्षमता किसी में नहीं । छठे वर्ष में जैसी-जैसी विविध मनोहारिणी गोष्ठक्रीड़ा श्रीकृष्ण चन्द्र ने की, उसे सुन-सुन यशोदा को कितना सुख हुआ था, इसे भी वर्णन करने की शक्ति किसी में नहीं ।
सातवें वर्ष धेनुक-उद्धार की लीला हुई, आठवें वर्ष गोवर्धन धारण की लीला हुई, नवें वर्ष में सुदर्शन का उद्धार हुआ, दसवें वर्ष अनेक आनन्दमयी बालक्रीडाएँ हुईं, ग्यारवें वर्ष अरिष्ट-उद्धार हुआ, बारहवें वर्ष के फाल्गुन मास की द्वादशी को केशी दैत्य का उद्धार हुआ । इन-इन अवसरों पर यशोदा के हृदय में हर्ष अथवा दुःख की जो धाराएँ फूट निकलती थीं, उनमें यशोदा स्वयं तो डूब ही जातीं, सारे व्रज को भी निमग्न कर देती थी ।
इस प्रकार ग्यारह वर्ष, छः महीने यशोदा रानी के भवन को श्रीकृष्ण चन्द्र आलोकित करते रहे, किंतु अब यह आलोक मधुपुरी जानेवाला था । यशोदा मैया के ह्रदय पर वज्राघात करते हुए, श्रीकृष्ण चन्द्र को मधुपुरी ले जाने के लिये अक्रूर आ ही गये । वह फाल्गुन द्वादशी की सन्ध्या थी, अक्रूर ने यशोदा के हृदय पर मानो अतिक्रूर वज्र गिरा दिया हो ।
सारी रात व्रजेश्वर व्रजरानी यशोदा को समझाते रहे, पर यशोदा किसी प्रकार भी सहमत नहीं हो रही थीं | किसी भी हालत में पुत्र को कंस की रंगशाला देख आने की अनुमति नहीं देती थीं । आखिर में योगमाया ने माया का विस्तार किया, यशोदा भ्रान्त हो गयीं । अनुमति तो उन्होंने फिर भी नहीं दी, पर अब तक जो विरोध कर रही थीं, वह न करके आँसू ढालने लगीं ।
विदा होते समय यशोदा रानी की जो करूण दशा थी, उसे देखकर कौन नहीं रो पड़ा । आह ! क्या जीव-जगत, क्या जड़-जगत, सब कुछ थम सा गया था | व्यग्र हुई यशोदा यात्रा के समय करने योग्य मंगल कार्य भी नहीं कर रही थी । इतनी भ्रान्तचित्त हो गयी थीं कि अपने वात्सल्य के उपयुक्त अपने पुत्र को कोई योग्य पाथेय (राहखर्च)- तक नहीं दे पा रही थीं, या शायद देना भूल गयी थीं ।
मैया सिर्फ श्रीकृष्ण चन्द्र को हृदय से लगाकर निरन्तर रो रही थीं, उनके अजस्त्र अश्रुप्रवाह से भूमि पुलकित हो रही थीं । उस अतीव मर्मस्पर्शी दृश्य में चैतन्यता धारण करने के लिए असीम धैर्य की आवश्यकता थी | रथ श्रीकृष्ण चन्द्र को लेकर चल पड़ा । रथचक्रों (पहियों) के चिन्ह भूमि पर अंकित होने लगे, मानो धरारूपिणी यशोदा के छिदे हुए हृदय को पृथ्वी देवी व्यक्त कर रही थी ।
श्रीकृष्ण चन्द्र के विरह में जननी यशोदा की क्या दशा हुई, इसे यथार्थ में वर्णन करने की सामर्थ्य शायद सरस्वती जी में भी नहीं । यशोदा मैया वास्तव में विक्षिप्त-सी हो गयीं थीं । जहाँ से श्रीकृष्ण चन्द्र रथ पर बैठे थे, वहाँ वह प्रतिदिन चली आतीं । उन्हें दीखता-अभी-अभी मेरे नीलमणि को अक्रूर लिये जा रहे हैं ।
वे चीत्कार कर उठतीं “अरे ! क्या व्रज में कोई नहीं, जो मेरे जाते हुये नीलमणि को रोक ले, पकड़ ले । वह देखो, रथ बढ़ा जा रहा है, मेरे प्राण लिये जा रहा है, मैं दौड़ नहीं पा रही हूँ, कोई दौड़कर मेरे नीलमणि को पकड़ लो भैया !” कभी जड़-चेतन, पशु-पक्षी, मनुष्य- जो कोई भी दृष्टि के सामने आ जाता, उसी से वसुदेव पत्नी देवकी को अनेक संदेश भेजतीं |
किसी पथिक ने यशोदा का यह संदेश श्रीकृष्ण से जाकर कह भी दिया । सांत्वना देने के लिये श्रीकृष्ण ने उद्धव को भेजा । उद्धव आये, पर जगदीश्वर की जननी के आँसू पोंछ नहीं सके । उतनी सामर्थ्य ही नहीं थी उनमे |
यशोदा रानी का हृदय तो तब शीतल हुआ जब वे कुरूक्षेत्र मे श्री कृष्ण से मिलीं । अपने कान्हा को हृदय से लगाकर, गोद में बैठाकर उन्होंने नव-जीवन पाया । कुरूक्षेत्र से जब यशोदारानी लौंटी, तब उनकी जान में उनके नीलमणि उनके साथ ही वृन्दावन लौट आये | बहुत कम ही लोग इस रहस्य को समझ सकते हैं | यशोदा का उजड़ा हुआ संसार फिर से बस गया ।
उधर अनन्तकोटि ब्रह्माण्ड अधीश्वरी महामाया के अधिपति श्रीकृष्ण चन्द्र अपनी लीला समेटने वाले थे । इसीलिये उन्होंने अपनी जननी यशोदा को भी पहले से ही भेज दिया ।
अंतिम समय जब भानुनन्दिनी, गोलोकविहारिणी श्री राधा किशोरी को वे विदा करने लगे, तब गोलोक के उसी दिव्यातिदिव्य विमान पर उन्होंने अपनी जननी यशोदा मइया को भी बिठाया, उन्हें प्रणाम किया तथा राधा किशोरी के साथ ही यशोदा मैया भी अन्तर्धान हो गयीं, उनके नित्य गोलोक धाम में जहाँ उनके कन्हैया खड़े थे…उनके स्वागत के लिए |