भगवान के अवतार से तात्पर्य है-‘अवति भक्तांस्तारयति पतितांश्चेति अवतारः।’ अर्थात भक्तों की रक्षा करना और पापियों का उद्धार करना उन भगवान के अवतार का मुख्य प्रयोजन है। भगवान के असंख्य अवतार हैं, ‘अवतारा ह्यासंख्येयाः’ (श्रीमद0 1।3।26)।
ब्रह्मा जी ने भगवान की स्तुति में कहा है-हे भगवन ! आप सारे जगत के स्वामी और विधाता हैं। अजन्मा होने पर भी आप देवता, ऋषि, मनुष्य, पशु-पक्षी और जलचर आदि योनियों में अवतार ग्रहण करते हैं-इसलिये कि इन रूपों के द्वारा दुष्ट पुरूषों के अंदर का अहंकार तोड़ कर उनका उद्धार करें और सत्पुरूषों पर अनुग्रह करें।
श्रीमद भगवत गीता (1।5।20)-में ‘इदं हि विश्वं भगवान’ अर्थात यह समस्त विश्व भगवान का ही स्वरूप है-ऐसा बताया गया है। परमात्मा का प्रथम अवतार विराट पुरूष ही है। काल, स्वभाव, कार्य, कारण, मन, पंचमहाभूत, अहंकार, तीनों गुण, इन्द्रियां, ब्रह्माण्ड-शरीर, उसका अभिमानी, स्थावर और जङ्गम जीव-सब के सब उन अनंत भगवान के ही रूप हैं।
वास्तव में यह विराट पुरूष ही प्रथम जीव होने के कारण समस्त जीवों का आत्मा, जीव रूप होने से परमात्मा का अंश और प्रथम अभिव्यक्त होने के कारण भगवान का आदि अवतार है। यह समस्त भूत समुदाय इसी में प्रकाशित होता है। भूत समुदाय के साथ ही भगवान अपनी महिमा से व्याप्त वाड.मय में भी प्रतिष्ठित होते हैं। श्रीमद भागवत भगवान का ही वाड.मय अवतार है।
प्रभास क्षेत्र में उद्धव जी ने श्री भगवान से निवेदन किया कि हे भगवन! आप अपने भक्तों का कार्य पूर्ण करके निज धाम पधारे रहे हैं तथा कलियुग का समय भी आ रहा है। ऐसी स्थिति में भक्तजन आपके वियोग में पृथ्वी पर कैसे रह सकेंगे ?
उस समय श्री भगवान ने अपनी सारी सत्ता श्रीमद भागवत में रख दी और वे अन्तर्धान होकर भागवत समुद्र में प्रवेश कर गये। इसलिये यह भगवान की साक्षात वाड.मयी-शब्दमयी मूर्ति है। इसके सेवन, श्रवण, पठन अथवा दर्शन से सारे पाप नष्ट हो जाते हैं |
कौशिक संहिता के श्रीमद भागवत माहात्म्य (6।56-60)-में भी श्रीमद भागवत को भगवान की शब्दमयी मूर्ति बताया गया है तथा भगवान के अंग-प्रत्यंगों के रूप में बहुत ही सुंदर चित्रण किया गया है।
उसमे कहा गया है कि ‘श्रीमद भागवत, भगवान श्री कृष्ण की ही वाड.मयी मूर्ति है। भगवान कृष्ण, इसका उद्धव जी को उपदेश करके स्वयं भी इसी में प्रवेश कर गये। श्री भगवान कृष्ण का पादारविन्द से जानुपर्यन्त (पैर से घुटने तक का) भाग प्रथम स्कन्ध है। जानु से ऊपर कटिपर्यन्त (घुटने से कमर तक) द्वितीय स्कन्ध है।
तृतीय स्कन्ध नाभि है। चतुर्थ स्कन्ध उदर है। पंचम स्कन्ध हृदय है। षष्ठ स्कन्ध बाहुओं सहित कण्ठ भाग है। सप्तम स्कन्ध को भगवान का सर्वलक्षण-संयुक्त मुख बताया गया हैं | अष्टम स्कन्ध आँखें, नवम स्कन्ध कपोल और भृकुटि हैं। दशम स्कन्ध ब्रह्मरन्ध्र है, एकादश स्कन्ध भगवान का मन है और द्वादश स्कन्ध को भगवान की आत्मा बताया गया है।
इस प्रकार श्रीमद भागवत के रूप में भगवान के स्वरूप का वर्णन किया गया है। यह भगवान का सगुण-साकार दिव्य विग्रह ही है। कतिपय विद्वानों की मान्यता है कि श्रीमद भागवत के प्रत्येक श्लोक श्री कृष्ण हैं और उनका अर्थ श्री राधा जी हैं। अतः श्रीमद भागवत भगवान श्री राधा कृष्ण का अवतार है।