आनंदकन्द भगवान श्री कृष्ण चन्द्र की जन्मभूमि, केलि-क्रीड़ा एवं लीला स्थली होने का गौरव प्राप्त होने से व्रज भूमि भारत वर्ष मे अति पावन है। इस व्रज भूमि में गोपाल कृष्ण की गौचारण-स्थली एवं गोचर भूमि गोवर्धन का अपना विशिष्ट महत्व है, जहां सात कोस (इक्कीस किमी0) – की परिक्रमा वाला गिरिराज गोवर्धन स्वयं श्याम सुन्दर के स्वरूप में विराजमान है। मथुरा से पश्चिम दिशा में लगभग अट्ठारह किमी0 की दूरी पर अवस्थित यह गिरिराज, गोवर्धन पर्वत के नाम से प्रसिद्ध है।
श्री गिरिराज महाराज कलियुग के प्रथम देव हैं और व्रजवासियों के परम आराध्य हैं। यह मान्यता है कि गिरिराज की शरण में मन से मांगी मनौती अवश्य पूर्ण होती है और शरणागत की इच्छापूर्ति में गिरिराज जी क्षणिक भी देर नहीं करते अतः यह आज भी असंख्य जनता की श्रद्धा के पात्र हैं।
देश के विभिन्न भागों से करोड़ों नर-नारी गिरिराज की परिक्रमा कर इनकी पावन रज को सिर पर धारण करके अपने जीवन को धन्य मानते हैं। यहां दिन-रात ‘गिरिराज महाराज की जय’ के उद्धोषों से परिक्रमा मार्ग गुंजित रहता है।
पूर्वकाल में यह पर्वत बहुत ऊंचा था; किंतु अब भूमि में शनैः-शनैः अदृश्य होता जा रहा है। शास्त्रों में इनका तीन योजन ऊँचा होने का प्रमाण प्राप्त होता है। इनकी ऊँचाई एवं विस्तार में भौगोलिक क्षरण अपक्षरण की प्रक्रिया के कारण निरंतर कमी होना स्वाभाविक है।
श्री कृष्ण-काल में श्यामल गिरि कन्दराओं से आच्छादित, मनमोहक हरित लताओं, सघन कुंज-निकुंजों , वन-उपवनों, श्वेत ताल-तलैयौं तथा स्वच्छ झरनों से परिवेष्टित आनंदकन्द योगिराज श्री कृष्ण की रासक्रीड़ा-स्थली गिरिराज को भगवान श्री कृष्ण ने सात वर्ष की आयु मे इन्द्र के प्रकोप से व्रजवासियों की रक्षा हेतु अपनी उँगली पर उठाया और सप्ताहपर्यन्त धारण करके इन्द्र देव का मान-मर्दन किया।
धार्मिक दृष्टि से गिरिराज जी का प्राचीनकाल से ही व्रज में सर्वाधिक गौरवपूर्ण स्थान और महत्व रहा है। व्रज में मान्यता है कि इनकी पूजन-परिक्रमा के मंत्र-‘गोवर्धन-गिरे तुभ्यं गोपानां सर्वरक्षकम। नमस्ते देवरूपाय देवानां सुखदायिने।।’-का दो सहस्र बार जप करके चार बार प्रदक्षिणा करने पर सिद्धि अवश्य प्राप्त होती है। श्री गिरिराज जी की तलहटी एवं कन्दराओं में भगवान श्री कृष्ण तथा श्री राधा जी के विहार-स्थल रहे हैं अतएव इस भूमिका विशेष महत्व है।
गिरिराज गोवर्धन के अवतरण के संबंध में गर्ग संहिता में उल्लेख है कि भारत के पश्चिमी भाग में स्थित शाल्मली द्वीप में पर्वतराज श्री द्रोणांचल के घर में उनकी पत्नी के गर्भ से श्री गोवर्धन नाथ जी का जन्म हुआ। देवताओं ने पुष्प वर्षा करके श्री गोवर्धन जी की वंदना की।
एक समय पुलस्त्य ऋषि भ्रमण करते हुए वहां गये। वहां नाना प्रकार के हरे-भरे वृक्ष-लताओं से परिपूरित सुंदर श्यामल गोवर्धन को देखकर उन्हें अपने स्थल पर स्थापित करने की प्रबल इच्छा जाग्रत हो गयी; क्योंकि काशी के निकट कोई ऐसा पर्वत नहीं था, जहां शांति से बैठ कर वे साधना कर सकें।
अतःउन्होंने द्रोणांचल जी से गोवर्धन जी को देने का अनुरोध किया। पर्वतराज बाध्य होने से इंकार नहीं कर सकें अतः दुखी होकर ऋषि से यह तय कर लिया कि मैं आपके हाथ में रहकर ही चलूंगा और आप मुझे कहीं भी नीचे नहीं रख सकेंगे ।
पर्वतराज ने उन्हें बताया की यदि किसी प्रकार वे उनको नीचे रख देंगे तो वे वहीं रह जायेगें और तिल भर भी आगे नहीं चल पायेगें । पुलस्त्य ऋषि ने इन शर्तों को स्वीकार कर अपने हाथ में गोवर्धन जी को रख काशी को प्रस्थान किया। मथुरा पहुंचने तक तो गिरिराज जी हल्के रहे, किंतु फिर इतने भारी हो गये कि ऋषि हाथ में रखने मे असमर्थ हो गये और उन्हें भूमि पर रख दिया।
संध्या-वंदन, स्नान तथा भोजन के उपरान्त ऋषि पुलस्त्य चेष्टापूर्वक गिरिराज को उठाने लगे तो गिरिराज जी ने जाने से इंकार कर दिया। तब ऋषि ने क्रुद्ध होकर यह शाप दे दिया कि तुम नित्य प्रति एक तिल के समान घटते जाओगे। गिरिराज जी ने ऋषि के शाप को ग्रहण किया; क्योंकि उन्हें ज्ञात था कि श्याम सुंदर श्री कृष्ण भगवान व्रज में अवतरित होकर विविध लीलाएं करेंगे, जिससे मैं कृतार्थ हो जाऊंगा।
वाराह पुराण में वर्णन होता है कि भगवान श्री रामचन्द्र जी की आज्ञा से श्री हनुमान जी उत्तरांचल से गोवर्धन जी को कंधे पर रखकर ला रहे थे तो देववाणी हुई कि समुद्र में सेतु बन गया है। देववाणी सुन हनुमान जी ने इन्हें यहीं पृथ्वी पर रख दिया। तब हरिभक्त गिरिराज जी ने हनुमान जी से कहा – ‘आपने मुझे भगवान के चरण चिन्हों से वंचित किया है, अतः मैं आपको शाप दे दूंगा।’ इस पर हनुमान जी बोले-‘हे गिरिराज! क्षमा करें।
जब इन्द्र की पूजा का खण्डन करके भगवान श्री कृष्ण आपकी पूजा करवायेंगे तो इन्द्र कुपित होकर व्रज में उत्पात करने लगेंगे , उस समय आप व्रजवासियों के रक्षक होंगे। द्वापर के अंत समय में श्री कृष्ण जी का अवतार होगा वे ही आपकी इच्छा की पूर्ति करेंगे।’ ऐसा कह कर हनुमान जी आकाश मार्ग से श्री राम जी के पास गये और उन्हें सारा वृत्तान्त सुनाया। इस पर श्री रामचन्द्र जी ने कहा-‘सेतुबन्ध हेतु लाये गये ये सब पर्वत पर मेरे चरण स्पर्श से विमुक्त हो गये, परंतु गोवर्धन को अपने हस्त करतल तथा सर्वाङ्गस्पर्श से पवित्र करूंगा।
मैं वसुदेव के कुल में जन्म लेकर व्रज में विविध लीला करूंगा तथा गोवर्धन के ऊपर गौचारण, गोपियों के संग अदभुत विलास आदि से उसे हरिदास श्रेष्ठ बना दूंगा। व्रज में गोवर्धन मेरी लीलाओं के परम सहायक रूप से प्रसिद्ध होगा।’
गोवर्धन की उत्पत्ति के बारे में गर्ग संहिता में इस प्रकार से भी कहा गया है कि कंस संताप के कारण जब देवताओं ने प्रार्थना की तो श्री कृष्ण ने व्रज के उद्धार हेतु अवतार धारण करने की इच्छा जब श्री राधिका जी को सुनायी तो वे बोलीं कि मैं आपका वियोग एक पल भी नहीं सह सकती।
इस पर श्री कृष्ण ने कहा कि आपको संग लेकर ही व्रज में अवतार धारण करूंगा। इस पर श्री राधिका जी ने कहा ‘प्राणनाथ! जहां वृन्दावन नहीं है, जहां यह यमुना नदी नहीं है तथा जहां गोवर्धन पर्वत नहीं है, वहां मेरे मन को सुख नहीं मिल सकता’|
यह सुनकर श्री कृष्ण ने अपने धाम गोलोक से चौरासी कोस विस्तृत भूमि और गिरिराज गोवर्धन और यमुना नदी को भूतल पर भेज दिया । भगवान श्री कृष्ण के बाल्यकाल तक समस्त व्रजवासी गोपी-ग्वाल, गौ-बछड़े लेकर कार्तिक अमावस्या की लक्ष्मी पूजा के पश्चात प्रतिपदा को सायंकाल विभिन्न पकवानों के साथ विधि-विधान से मेघों के राजा इन्द्र देव का पूजन किया करते थे।
यशोदा मैया भी एक बार इस पूजा के लिये पकवान बना रही थीं तो कृष्ण कन्हैया खेलने के उपरान्त आकर कलेऊ मांगने लगे। इस पर माँ ने कहा कि आज तो इन्द्र देवता की पूजा करके ही खाने को मिलेगा।
यह सुनकर कन्हैया बोले-‘मैया व्रज-गौओं का रखवाला तो गोवर्धन बाबा है और यही देवता साँचो है, इन्द्र तो इनको चेरो है’ – अस्तु गोप-ग्वालों ने अपने गौ-बछड़ों को सजाकर और विविध पकवानों को लेकर गोवर्धन की पूजा की। कृष्ण-कन्हैया ने गिरधारी रूप धारण कर सभी पकवान खा लिये।
इस बात से क्रोधित होकर देव इन्द्र ने बादलों को घनघोर वर्षा करने का आदेश दे दिया , जिससे व्रज बह जाय । इंद्र के इस आदेश से थोड़ी देर में ही घनघोर वर्षा होने लगी।
घनघोर वर्षा को देख श्री कृष्ण जी ने खेल-खेल में ही गिरिराज पर्वत को अपनी उँगली पर उठा लिया , जिस से समस्त गोपाल और गोपियाँ , ग्वाल – बाल अपने गौ-बछड़ों सहित जिरिराज के शरण में चले गये । सात दिन-रात निरंतर मूसलाधार घनघोर बारिश होती रही , किंतु व्रज का कुछ भी बिगड़ नहीं पाया ।
देवराज इन्द्र को अब धीरे धीरे अब यह समझ आ रहा था की श्री कृष्ण कोई साधारण बालक नहीं अपितु कोई दिव्य शक्ति है अतः वह ऐरावत हाथी तथा सुरभि गाय को अपने साथ लेकर श्री कृष्ण के चरणों में आ पड़े।
सात दिन की निरंतर भयानक वर्षा के प्रहार से व्यथित व्रजवासियों की रक्षा नंद के सुकुमार श्री कृष्ण ने बायें हाथ की कनिष्ठा उँगली पर गोवर्धन पर्वत को उठा करके ही की |
इन्द्र के मान-भंग और विपत्ति विमोचन के पश्चात श्री कृष्ण के समझाने पर सभी व्रजवासी उमंगपूर्वक गिरिराज पूजा की घर-घर तैयारी करने लगे।
कार्तिक शुक्ल प्रतिपदा के दिन जतीपुरा में अनेक उत्सवों के संग गोवर्धन पूजा अनूठे ढंग से गाजे-बाजे से होती है। यहां प्रातःकाल से ही गिरिराज के मुखारविन्द पर कुन्तलों दूध-दही चढ़ाया जाता है।
इस समय भजन-कीर्तन गान एवं बाजे बजने से अनुपम समां बंध जाता है। इस दिन छप्पन भोग अन्नकूट के दर्शन होते हैं। भक्त जन गिरिराज जी को दुग्धाभिषेक करा कर प्रसाद ग्रहण करके स्वयं को धन्य मानते हैं। गोवर्धन के दानघाटी मंदिर में भी नित्य गिरिराज जी पर दूध-दही चढ़ता है और बहुधा अन्नकूट के भव्य दर्शन होते रहते हैं।
देवराज इन्द्र द्वारा श्री कृष्ण से क्षमा मांगने पर सुरभि गाय द्वारा श्री कृष्ण के किये गये दुग्धाभिषेक के प्रतीक के रूप में दूध चढ़ाया जाता है। जन-मानस में यह विश्वास है कि गिरिराज के ध्यान से मन वांछित फल प्राप्त होता है और सभी संकट टल जाते हैं। आज भी व्रजमण्डल में कार्तिक शुक्ल प्रतिपदा दीपावली के अगले दिन गोवर्धन पूजा की परम्परा है।
इस दिन गोबर के गोवर्धनमय परकोटा, गाय, बछड़े, ग्वालिया आदि बनाकर मोर-पंखों, घुँघरूओं तथा रंगों से उन्हें सजा कर रात्रि में परिवार के सभी जन एकत्रित हो पकवानों, मिठाईयों, खिलौने तथा दूध आदि से पूजा करते हैं और साथ ही साथ सभी इसकी सात परिक्रमा करते हैं।
व्रज में इस दिन घर-घर अन्नकूट बनता है तथा अतिथियों को बड़े प्रेम से इस प्रसाद को खिलाते हैं। गोवर्धन पूजा का यह महापर्व श्रद्धा-भक्ति के वातावरण में नाना प्रकार से गोवर्धन महाराज की जय-जयकार के संग सम्पन्न होता है।
इस समय गोवर्धन महिमा के गीत गये जाते हैं, जैसे इस गिरिराज पहाड़ी पर संवत् 1550 में एक भगवत-स्वरूप का प्राकट्य हुआ, जिसे व्रजवासी देवदमन के नाम से पूजते हैं।
संवत 1556 में श्री महाप्रभु वल्लभाचार्य के व्रज में पुनः पदापर्ण करने पर व्रजवासियों ने उन्हें इस स्वरूप के दर्शन कराये। श्री वल्लभाचार्य ने इसका नाम श्रीनाथ (श्री गोवर्धननाथ) रखा। वल्लभकुल सम्प्रदाय के जनक श्री वल्लभाचार्य की सात गद्दियों में से एक है।
व्रजकाव्य में गिरिगोवर्धन महिमा का अनुपम वर्णन करते हुए लोक कवियों ने गिरिराज जी पर श्रद्धासुमन अर्पित किये नाना प्रकार के शिखर से सुशोभित यह गोवर्धन गिरि सभी कार्यों को सिद्ध कर लोगों की रक्षा करते हैं।
गिरिराज की विभिन्न रंगमयी शिखरों की आभा के लोकरंजक एवं लोकरक्षक दोनों ही रूप कविवर होतीराम के इस छन्द में द्रष्टव्य हैं – समस्त तीर्थों का मुख्य धाम और सभी देवों का महान टीका है यह गिरिराज, जहां की कन्दराओं में श्यामा श्याम विराजते हैं और सखियों सहित श्री कृष्ण-बलराम खेलते हैं।
गिरि गोवर्धन के अन्तर्गत श्री कृष्ण की अनूठी लीलाओं के अनेक स्थल हैं, उदाहरणार्थ-विछुआ कुण्ड, ज्ञान -अज्ञान वृक्ष, मेंहदी कुण्ड, गोरोचन कुण्ड, ऋणमोचन कुण्ड इत्यादि।
सब देवों के देव श्री गिरिराज की पावन कन्दराओं का उपभोग वृजराज नन्दन करते हैं | इस गिरिवर पर श्री कृष्ण-लीलाओं का एक प्रमुख स्थल दानघाटी है, जहां गोपाल कृष्ण ने ग्वालों के संग गोपियों से मक्खन, दूध-दही का दान लिया था।
वर्तमान में यहां गिरिवर दानघाटी मनमोहक मंदिर है। मानसी गंगा के भीतर श्रीमुकुट गिरिराज जी के मुखारविन्दर का मंदिर है, जिसके तीन ओर मानसी गंगा का जल है, जो सायंकाल ऐसा प्रतीत होता है मानो श्री गिरिराज स्वयं स्वरूप धारण कर किसी सुंदर नौका में बैठकर जल-विहार कर रहे हों। हरगोकुल से आगे श्री गिरिराज की एक ऐसी शिला है, जो तीर्थ यात्रियों के आकर्षण का मुख्य केन्द्र है। इस शिला को दूर से देखने पर ऐसा लगता है कि श्री कृष्ण भगवान अपनी एक टांग को ढेढ़ी करके अपनी बांकी अदा में वंशी बजा रहे हों।
व्रज की मुकुट ध्वजा श्री गिरिगोवर्धन कोई सामान्य पर्वत नहीं, अपितु गिरिराज है, भगवान श्री कृष्ण का साक्षात स्वरूप है तथा कलियुग में प्रत्यक्ष देवता हैं। यही गिरिराज महाराज श्री कृष्ण के रूप को धारण कर लेते हैं और भुजा पसार कर डट के भोजन करते हैं। इस श्याम छवि के स्वरूप को ललिता सखी राधिका जी से बतलाती हैं।
ऐसे पावन धाम गोवर्धन गिरि के दर्शनार्थ और परिक्रमा के लिये प्रत्येक माह पूर्णिमा से पूर्व ही नर-नारियों के समूह के समूह उमड़ते चले आते हैं तथा दूध-भोग चढ़ाते हुए कह उठते हैं ‘तन मन धन सब कुछ अर्पन, चले रे चलें सब गोवर्धन।’ मुड़िया पूनी (गुरू पूर्णिमा)-के पर्व पर प्रतिवर्ष लाखों भक्तजन भारी भीड़ में भी देश के कोने-कोन से नंगे पैर परिक्रमा करने आते हैं, जिस से जन-सैलाब उमड़ पड़ने से यहां लम्बी – मेला एवं कुम्भ-मेले का सा रूप दृष्टिगोचर होता है।
अपने जीवन को सफल बनाने और पाप-विनाश के लिये कुछेक लोग डंडोती (पेट के बल लेट कर)-परिक्रमा लगाते हैं तो अनेक भक्त जन दूध की धार-धूप के साथ परिक्रमा नंगे पैर पूर्ण करते हैं।
गिरिराज जी के इस रसिया की टेक उल्लिखित करना प्रासंगिक होगा-‘पूजि गोवरधन गिरधारी करी परिकम्मा की त्यारी’ के अनुसार ग्रामवासी हंसते-कूदते, नाचते-गाते, भजन-कीर्तन करते हुए गिरिराज की परिक्रमा करते हैं, मन में ‘गिरराज धरन प्रभु तेरी शरन’ का ध्यान रख कर इन ग्रामवासियों विशेष कर महिलाओं के परिक्रमा मार्ग में गाये गीत बड़े ही मनमोहक तथा श्रद्धाभाव से परिपूर्ण होते हैं। ग्रामीण महिलाओं में परिक्रमा लगाने की प्रबल उत्सुकता होती है|
निस्संदेह व्रज-जन जीवन में गिरिराज गोवर्धन के अवतरण का अत्यधिक महत्त्व है और इनका अनूठा स्थान है। गिरिराज व्रजवासियों के जीवन-मरण से संबंधित हैं। इन्हीं से व्रज साहित्य, संस्कृति एवं कला विकसित हो सकी और इन्हीें के कारण व्रज की महिमा अक्षुण रूप से जन-जन के हृदय में स्थापित हो गयी।