श्री भगवान नारायण की आज्ञा से स्वयं वायुदेव ने ही भक्ति सिद्धांत की रक्षा के लिये तमिलनाडु प्रान्त के मंगलूर जिले के अन्तर्गत उडुपी क्षेत्र से दो – तीन मील दूर वेललि ग्राम में भार्गवगोत्रीय नारायण भटट के अंश से तथा माता वेदवती के गर्भ से विक्रम संवत् 1295 की माघ शुक्ला सप्तमी के दिन आचार्य रूप में अवतार ग्रहण किया था।
आश्विन शुक्ला दशमी को कई लोगों ने इनका जन्म – दिन माना है परंतु वह इनके वेदान्त साम्राज्य के अभिषेक का दिन है अपितु जन्म का नहीं है।
इनके जन्म के पूर्व पुत्र प्राप्ति के लिये माता – पिता को बड़ी तपस्या करनी पड़ी थी। बचपन से ही इनमें अलौकिक शक्ति दीखती थी साथ ही इनका मन पढ़ने – लिखने मे नहीं लगता था; अतः यज्ञोपवीत होने पर भी ये दौड़ने, कूदने – फांदने, तैरने और कुश्ती लड़ने में ही लगे रहते थे।
इस कारण बहुत से लोग इनके पिता द्वारा दिए हुए नाम वासुदेव के स्थान पर इन्हें ‘भीम’ नाम से पुकारते थे। यह वायुदेव के अवतार थे, इसलिये यह नाम भी उन पर सार्थक ही था परंतु इनका अवतार उददेश्य – खेलना – कूदना तो था नहीं; अतः जब वेद – शास्त्रों की ओर इनकी रूचि हुई, तब थोड़े ही दिनों में इन्होंने सम्पूर्ण विद्या अनायास ही प्राप्त कर ली।
जब इन्होंने सन्यास लेने की प्रबल इच्छा प्रकट की, तब मोहवश माता – पिता ने बड़ी अड़चने डालीं; परंतु इन्होंने उनकी इच्छा के अनुसार उन्हें कई चमत्कार दिखाया, जो अब तक एक सरोवर और वृक्ष के रूप में इनकी जन्म – भूमि में विद्यमान हैं। इन्होने एक छोटे भाई के जन्म की बात कह कर ग्यारह वर्ष की अवस्था में अद्वैत मत के सन्यासी अच्युत पक्षाचार्य जी से सन्यास ग्रहण किया।
यहां पर इनका सन्यासी नाम ‘पूर्णप्रज्ञ’ हुआ। सन्यास के पश्चात इन्होंने वेदान्त का अध्ययन करना आरम्भ कर दिया। इनकी बुद्धि इतनी तीव्र थी कि अध्ययन करते समय ये कई बार गुरू जी को ही समझाने लगते और उनकी व्याख्या का प्रतिवाद कर देते।
सभी दक्षिण के प्रदेशों में इनकी विद्वत्ता की चरों तरफ धूम मच गयी । एक दिन इन्होंने अपने गुरू से गंगा स्नान और संपूर्ण दिशाओं पर विजय प्राप्त करने के लिये आज्ञा मांगी। ऐसे में एक ऐसे सुयोग्य शिष्य के विरह की सम्भावना से गुरूदेव व्याकुल हो गये।
उनकी व्याकुलता देख कर अनंतेश्वर जी ने कहा कि भक्तों कि उद्धारार्थ गंगा जी स्वयं सामने वाले सरोवर में परसों प्रकट होंगीं, अतः वे यात्रा न कर सकेंगे। सचमुच तीसरे दिन उस तालाब में हरे पानी के स्थान पर निर्मल, साफ पानी हो गया और उसमें तरंगें दीखने लगीं इसी कारण से आचार्य की यात्रा नहीं हो सकी।
अब भी हर बारहवें वर्ष में एक बार वहां गंगा जी का प्रादुर्भाव होता है जहाँ एक मंदिर भी है। इसके पश्चात् कुछ दिनों के बाद आचार्य ने यात्रा की और जगह – जगह पर विद्वानों के साथ शास्त्रार्थ किया।
इनके शास्त्रार्थ का उददेश्य होता – भगवद भक्ति का प्रचार, वेदों की प्रमाणिकता का स्थापन, मायावाद का खण्डन और मर्यादा का संरक्षण। एक जगह तो इन्होंने वेद, महाभारत और विष्णु सहस्र नाम के क्रमशः तीन, दस और सौ अर्थ हैं – ऐसी प्रतिज्ञा करके और व्याख्या करके पण्डित मण्डली को आश्चर्यचकित कर दिया।
गीता भाष्य का निर्माण करने के पश्चात इन्होंने बदरी नारायण का यात्रा की और वहां महर्षि वेद व्यास को अपना भाष्य दिखाया। जिसके बाद इन्हे दुःखी जनता का उद्धार करने के लिये उपदेश और ग्रंथ निर्माण आदि की आज्ञा प्राप्त हुई।
अतः बहुत से नृपतिगण इनके शिष्य हुए और अनेक विद्वानों ने पराजित होकर इनका मत स्वीकार किया। इन्होंने अनेक प्रकार की योग सिद्धियां भी प्राप्त की थीं और इनके जीवन में समय – समय पर वे सिद्धियां प्रकट भी हुईं।
इन्होंने अनेक मूर्तियों की स्थापना की और इनके द्वारा प्रतिष्ठित विग्रह आज भी विद्यमान हैं। श्री बदरी नारायण में व्यास जी ने इन्हें शालग्राम की तीन मूर्तियां भी दी थीं, जिन्हे इन्होंने सुब्रह्मण्य, उडूपि और मध्य तल में स्थापित कर दिया।
एक बार किसी व्यापारी का जहाज द्वारका से मलाबार जा रहा था जो तुलुब के समीप आने पर किसी कारणवश डूब गया। उसमें गोपी चन्दन से ढकी हुई भगवान श्री कृष्ण की एक सुंदर मूर्ति थी।
मध्वाचार्य को भगवान की आज्ञा प्राप्त हुई और उन्होंने मूर्ति को जल से निकाल कर उडूपि में उसकी स्थापना कर दी । तभी से वह रजत पीठपरु अथवा उडूपि मध्वमतानुयायियों का तीर्थ हो गया। एक बार एक व्यापारी के डूबते हुए जहाज को इन्होंने ही बचा लिया।
इससे प्रभावित होकर वह अपनी आधी सम्पत्ति इन्हें देने लगा परंतु इनके रोम – रोम में भगवान का अनुराग और संसार के प्रति विरक्ति भरी हुई थी अतः उन्होंने लेने से मना कर दिया। इनके जीवन में इस प्रकार के असामान्य त्याग के बहुत से उदाहरण हैं।
कई बार लोगों ने इनका अनिष्ट करना चाहा और इनके लिखे हुए ग्रंथ भी चुरा लिये; परंतु आचार्य इससे तनिक भी विचलित या क्षुब्ध नहीं हुए, बल्कि उनके पकड़े जाने पर उन्हें क्षमा कर दिया और बड़े प्रेम से व्यवहार किया।
ये निरन्तर भगवच्चिन्तन में संलग्न रहते थे। बाहरी काम – काज भी केवल भगवत – सम्बन्ध से ही करते थे। इन्होंने उडूपि में और भी आठ मंदिर स्थापित किये, जिनमें श्री सीताराम, द्विभुज कालियदमन, चतुर्भुज कालियदमन, विटठल आदि आठ मूतियां हैं।
आज भी लोग उनका दर्शन करके अपने जीवन का लाभ लेते हैं। ये अपने अंतिम समय में सरिदन्तर नामक स्थान में रहते थे जहाँ पर उन्होंने परम धाम की यात्रा की।
देह त्याग के अवसर पर पूर्वाश्रम के सोहन भटट को – अब जिनका नाम पद्मनाभ तीर्थ हो गया था, श्री राम जी की मूर्ति और व्यास जी की दी हुई शालग्राम शिला देकर अपने मत के प्रचार की आज्ञा दे गये। इनके शिष्यों के द्वारा अनेक मठ स्थापित किये गये तथा इनके द्वारा रचित अनेक ग्रंथ का प्रचार होता रहा।
श्री मध्वाचार्य के उपदेश
1-श्री भगवान का नित्य – निरंतर स्मरण करते रहना चाहिये, जिससे अंतकाल में उनकी विस्मृति न हो; क्योंकि सैकड़ों बिच्छुओं के एक साथ डंक मारने से शरीर में जैसी पीड़ा होती है, वैसी ही पीड़ा मरण काल में मनुष्य को होती है।
वात, पित्त, कफ से कण्ठ अवरूद्ध हो जाता है और नाना प्रकार के सांसारिक पाशों से जकड़े रहने के कारण मनुष्य को बड़ी घबराहट हो जाती है। ऐसे समय में भगवान की स्मृति को बनाये रखना बड़ा कठिन हो जाता है।
2-सुख – दुःख की स्थिति कर्मानुसार होने से उनका अनुभव सभी के लिये अनिवार्य है इसीलिये सुख का अनुभव करते समय भी भगवान को न भूलो तथा दुःख काल में भी उनकी निंदा न करो।
वेद – शास्त्र सम्मत कर्म मार्ग पर सदैव अटल रहो अतः कोई भी कर्म करते समय बड़े दीनभाव से भगवान का स्मरण करो। भगवान ही सबसे बड़े, सबके गुरू तथा जगत के माता – पिता हैं इसीलिये अपने सारे कर्म उन्हीें को अर्पण करना चाहिये।
3-व्यर्थ के सांसारिक झंझटों के चिंतन में अपना अमूल्य समय नष्ट न करो। भगवान में ही अपने अन्तःकरण को लीन करो। विचार , श्रवण , ध्यान तथा स्तवन से बढ़ कर संसार में अन्य कोई पदार्थ नहीं है।
4- भगवान के चरण कमलों का स्मरण करने की चेष्टा मात्र से ही तुम्हारे पापों का पर्वत का ढेर नष्ट हो जायगा फिर स्मरण से मोक्ष होगा ही , यह स्पष्ट है। ऐसे स्मरण का परित्याग क्यों करते हो।
5-सज्जनों! हमारी निर्मल वाणी सुनो। दोनों हाथ उठा कर शपथपूर्वक हम कहते हैं कि भगवान की बराबरी करने वाला भी इस चराचर जगत में कोई नहीं है , फिर उनसे श्रेष्ठ तो कोई हो ही कैसे सकता है। वे ही सबसे श्रेष्ठ हैं।
6-यदि भगवान सबसे श्रेष्ठ न होते तो समस्त संसार उनके अधीन किस प्रकार रहता ; और यदि समस्त संसार उनके अधीन न होता तो संसार के सभी प्राणियों को सदा – सर्वदा दुःख की ही अनुभूति होनी चाहिये थी।