कैसे हुआ महाभारत में कर्ण का वध?

महाभारत कर्ण वध

इतिहास प्रसिद्ध कुरुक्षेत्र का महाभारत का युद्ध कुल 18 दिन चला। आज हम आपको महाभारत के 17 वें दिन की घटना से अवगत करा रहे हैं। जो महाभारत के युद्ध में कर्ण और अर्जुन संग्राम के नाम से जानी जाती है़। यह वह समय था जब कौरव की सेना बहुत शोकाकुल हो चुकी थी। क्योंकि उनके बड़े-बड़े योद्धा वीरगति को प्राप्त होते जा रहे थे। उन्हें अब युद्ध में अपनी पराजय सामने दिखाई देने लगी थी ।

कौरवों की सेना में एक वीर योद्धा ऐसा था, जिसके पराक्रम के आगे बड़े-बड़े वीर योद्धा पराजित हो चुके थे। इस महान वीर योद्धा का नाम था कर्ण, जो कुंती और सूर्य देव के पुत्र थे। सूर्य पुत्र वीर कर्ण में एक महान योद्धा के सारे गुण थे। इसलिए अब कौरवों की ओर से युद्ध का नेतृत्व करने के लिए कर्ण को ही चुना गया। अब कौरवों को वीर योद्धा कर्ण से बहुत आशा थी कि संभवतः आज महाभारत के 17 वें दिन कोई शुभ समाचार सुनने को मिले।

कर्ण का, महाराज शल्य को अपना सारथी बनाना 

महाभारत युद्ध के 17 वें दिन पांडव की ओर से धनुर्धर अर्जुन और कौरव की तरफ से पराक्रमी कर्ण के मध्य युद्ध था। उस दिन जब पराक्रमी कर्ण शिविर से युद्ध भूमि की तरफ चलने लगे तो दुर्योधन ने भावुकता वश वीर कर्ण को अपने गले लगा लिया। उन्होंने अपने भ्राता कर्ण से कहा कि हे कर्ण ,मैं जानता हूं कि तुम एक महान पराक्रमी योद्धा हो। तुम्हें युध्द में किसी सहारे की आवश्कता नहीं है़। लेकिन फिर भी क्या आज तुम  मेरी एक बात मानोगे?

दुर्योधन की बात सुनकर कर्ण ने कहा कि हे भ्राता, मुझे आज्ञा दीजिए कि मेरे लिए क्या आदेश है? तब दुर्योधन ने कहा कि मेरे अनुज मेरा परामर्श  मानो तो आज अपने मामा जी महाराज शल्य को अपने रथ का सारथी बना लो। सभी को पता था कि महराज शल्य स्वयं एक वीर योद्धा हैं। जो युद्ध में पराक्रमी कर्ण को उचित परामर्श दे सकते हैं। इसलिए कर्ण ने दुर्योधन की इस बात को सहर्ष स्वीकार करते हुए मामा महाराज शल्य को अपने रथ का सारथी बना लिया।

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युद्ध भूमि में धनुर्धर अर्जुन और वीर कर्ण के रथ आमने सामने थे। जब महाभारत के युद्ध भूमि पर अर्जुन ने यह देखा कि आज सूर्य पुत्र कर्ण के सारथी के रूप में स्वयं महाराज शल्य साथ आयें हैं। तो वह थोड़ा भयभीत हुए। तब धनुर्धारी अर्जुन के सारथी बने श्री कृष्ण ने अर्जुन को सांत्वना दी। उन्होंने कहा कि ‘हे अर्जुन , तुम क्यों भयभीत होते हो? जब मैं स्वयं तुम्हारे साथ हूँ।’

कर्ण के पास देवशिल्पी विश्वकर्मा जी द्वारा निर्मित अद्भुत धनुष था

कहा जाता है कि धनुर्धारी अर्जुन और कर्ण के मध्य होने वाला युद्ध बहुत घमासान था। इस अभूतपूर्व युद्ध को आकाश से, स्वयं सूर्यदेव के साथ-साथ समस्त देवतागण भी देख रहे थे। महाभारत के 17 वें दिन के इस युद्ध में कभी लगता था कि धनुर्धारी अर्जुन भारी पड़ रहे हैं तो कभी वीर कर्ण। कर्ण के पास उनके गुरु परशुराम के द्वारा प्रदान किया हुआ अद्भुत धनुष था। कहा जाता है कि वह धनुष श्री विश्वकर्मा जी के द्वारा निर्मित किया गया था ।

दूसरी तरफ अर्जुन सर्वश्रेष्ठ धनुर्धारी तो थे ही, साथ ही उनके पास एक से बढ़कर एक दिव्यास्त्र थे। पुराणों में वर्णित है कि जब अर्जुन के बाणों की बौछार कर्ण के रथ पर पड़ती थी तो कर्ण का रथ 10 हाँथ पीछे हट जाता था। लेकिन जब कर्ण अर्जुन की ओर अपना बाण चलाते थे तो अर्जुन का रथ थोड़ा ही (लगभग 3 हाँथ) पीछे जाता था। लेकिन यह दृश्य देखकर धनुर्धारी अर्जुन के रथ के सारथी भगवान श्री कृष्ण लगातार कर्ण की ही प्रशंसा किए जा रहे थे।

कर्ण की प्रशंसा, भगवान कृष्ण द्वारा किये जाने पर अर्जुन का आश्चर्यचकित होना

तब कौतूहलवश धनुर्धारी अर्जुन ने भगवान श्रीकृष्ण से पूछा कि भगवन, जब मैं अपना धनुष चलाता हूँ तो कर्ण का रथ 10 हाँथ पीछे भाग जाता है। लेकिन जब कर्ण बाण चलाता है तो मेरा रथ थोड़ा ही पीछे हटता है। लेकिन ऐसी स्थिति में  भी आप मेरी प्रशंसा करने के स्थान पर कर्ण की प्रशंसा क्यों कर रहे हैं?

धनुर्धर अर्जुन की इस बात को सुनकर भगवान श्रीकृष्ण मुस्कुराने लगे। उन्होंने अर्जुन से पूछा कि हे पार्थ, मुझे बताओ कि कर्ण के रथ पर कौन-कौन है? अर्जुन ने उत्तर दिया कि कर्ण के रथ पर स्वयं कर्ण और उनके सारथी महाराज शल्य हैं। अब भगवान श्री कृष्ण फिर अर्जुन से पूछा कि अब बताओ कि तुम्हारे रथ पर कौन-कौन है? अर्जुन ने उत्तर दिया कि भगवान आप, मैं और पताका के स्वरूप में विद्यमान स्वयं पवन पुत्र हनुमान ।

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भगवान श्री कृष्ण ने कहा कि कर्ण के रथ पर केवल कर्ण और सारथी महराज शल्य हैं। इसलिए तुम अपने बाणों की बौछार से उसके रथ को 10 हाँथ पीछा हटा देते हो। लेकिन तुम्हारे रथ पर पराक्रमी तुम, स्वयं मैं और अदृश्य रूप में पवन पुत्र हनुमान भी हैं।

लेकिन इसके बाद भी वीर कर्ण का अपने बाणों के द्वारा हमारे रथ को डगमगा देना आश्चर्य उत्पन्न करता है। अब तुम ही बताओ वीर योद्धा कौन है़? अर्जुन चुप हो गए उन्हें सच का ज्ञान हो गया था। लेकिन सारथी बने भगवान कृष्ण मुस्कराये और फिर अर्जुन से बोले अरे वीर बलिशाली मेरे सबसे प्रिय, मैं तो मात्र तुमसे हास्य-विनोद कर रहा था।

अर्जुन के वध के लिए कर्ण द्वारा नागास्त्र का प्रयोग करना 

कुरुक्षेत्र में कर्ण और अर्जुन में घमासान युद्ध चल रहा था। अर्जुन अपनी पूरी शक्ति लगा रहे थे और कर्ण अपनी पूरी शक्ति लगा रहे थे। एक बार तो ऐसा लगा कि कर्ण, अर्जुन पर विजय प्राप्त कर लेगा। यह वह समय था जब कर्ण ने अर्जुन के मस्तक को काटने के लिए ‘नागास्त्र’ चलाया।

नागस्त्र इतना शक्तिशाली था कि उससे बचाव के लिए अर्जुन के पास कोई तोड़ नहीं था। जिससे निश्चित रूप से अर्जुन का मस्तक धड़ से अलग हो सकता था। लेकिन जैसे ही कर्ण ने नागास्त्र चलाया। उसी समय अर्जुन के सारथी बने भगवान श्री कृष्ण ने अपने रथ को भूमि में धंसा दिया। उसके कारण नागास्त्र अर्जुन के ठीक सर के ऊपर से निकल गया और अर्जुन बाल-बाल बच गए।

कर्ण और अर्जुन के बीच बराबर की टक्कर थी 

लेकिन अपने ऊपर नागस्त्र चलाये जाने के बाद युध्द भूमि में अर्जुन कर्ण से अत्यंत भयभीत हो गए और वे दिव्यास्त्र का उपयोग करने लगे। कर्ण को भी दिव्यास्त्र का ज्ञान था। लेकिन गुरु परशुराम के श्राप के कारण वह दिव्यास्त्र के ज्ञान को भूल चुका था। वीर अर्जुन और पराक्रमी कर्ण के बीच चलने वाले इस युद्ध में क्या प्रणाम आने वाला है किसी को नहीं मालूम था। क्यों दोनों के बीच बराबर की टक्कर थी ।

कर्ण के सारथी महाराज शल्य भी अर्जुन के बाणों की बौछार के आगे धराशायी हो गये थे। इसके बाद अपने रथ की डोर कर्ण को संभालनी पड़ी। लेकिन युद्ध के दौरान ही एक बार वीर कर्ण के रथ का पहिया भूमि में बुरी तरह धंस गया। तब कर्ण ने अर्जुन से निवेदन किया कि हे अर्जुन, इस युध्द को थोड़े समय के लिए रोक दो। ताकि मैं अपने रथ के धंसे हुए पहिये को बाहर निकाल लूँ।

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क्योंकि अपने धंसे हुये रथ का पहिये को भूमि से निकालते समय मुझ निहत्थे पर शस्त्र उठाना धर्म और नीति विरुध्द होगा। कुछ इतिहासकारों का कहना है कि धनुर्धर अर्जुन के सारथी भगवान श्री कृष्ण ने अपने प्रभाव से कर्ण के रथ का पहिया जानबूझकर भूमि ने धंसा दिया था

कर्ण का वध अंततः अर्जुन ने किया 

सच कुछ भी हो लेकिन जब युध्द भूमि में कर्ण के रथ का पहिया जब भूमि में धंस गया और वह बार-बार युद्ध के नियम और धर्म की बात करते हुए युद्ध को थोड़ी देर के लिए देर रोकने का निवेदन करने लगा तो इस पर भगवान श्री कृष्ण  कर्ण पर बहुत क्रोधित हो गए। भगवान श्री कृष्ण ने कर्ण से कहा कि उस समय तुम कौरवों की नीति और धर्म कहाँ चले गए थे जब तुम सब ने मिलकर एक अकेले अभिमन्यु का वध कर दिया था।

उस समय तुम्हारा धर्म कहाँ था जब तुम लोगों ने भरी सभा में द्रौपदी को अपमानित किया था। इसलिए अब इस समय तुम्हारे मुँह से धर्म और नीति की बातें शोभा नहीं देतीं। इसके बाद भगवान श्री कृष्ण ने अर्जुन को आदेश दिया कि हे अर्जुन, अपना शस्त्र उठाओ और अपने शत्रु का वध कर दो। धनुर्धारी अर्जुन ने भगवान श्री कृष्ण का निर्देश मानकर वैसा ही किया जैसा उन्होंने कहा था। अर्जुन ने अपने दिव्यास्त्र का प्रयोग करते हुए कर्ण का मस्तक धड़ से अलग कर दिया।

कहा जाता है कि कर्ण के वध के समय एक अद्भुत घटना घटित हुई। जब कर्ण का सर धड़ से अलग हुआ और वह मृत हो धरती पर जा गिरा तब अचानक आकाश में एक दिव्य प्रकाश प्रकट हुआ और किसी विशाल वृक्ष के समान गिरे रक्तरंजित कर्ण शरीर के अंदर से भी एक उजली किरण निकली जो उस दिव्य प्रकाश में विलीन हो गयी ।

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