भारतीय सेना के अमर बलिदानी, जिन्होंने मौत के बाद भी सैनकों की सहायता की

भारतीय-सेना-के-अमर-बलिदानी-जिन्होंने-मौत-के-बाद-भी-सैनकों-की-सहायता-कीएक तो जंग का मैदान, उस पर से भयानक ठण्ड की घनघोर अँधेरी रात ने माहोल को एकदम से वीभत्स बना दिया था । ये समय था सन 1962 का जब भारत, चीन में युद्ध छिड़ा हुआ था | कश्मीर के अनजान पहाड़ी क्षेत्र में भारतीय सेना की एक छोटी सी टुकड़ी डेरा डाले हुए थी |

एक तम्बू के अन्दर कुछ सैनिक कोयले की अँगीठी जलाये बैठे आँच सेंक रहे थे | उनका वायरलैस सेट पास ही रखा था | बाहर भीषण ठण्ड थी लेकिन जंग के शोले अभी खामोश थे इसलिये सभी अपने-अपने घरों को याद कर रहे थे |

ऐसी ही चर्चा में सभी व्यस्त थे कि तभी वायरलैस पर उनके कमाण्डर का आदेश मिला कि अपनी उत्तर वाली चौकी की सहायता के लिए तुरन्त प्रस्थान करो । अभी सभी जवान जिस स्थान पर बैठे है वहाँ से 15 मील दूर उन्हें जाना था |

सवेरा होने से पहले ही वहाँ पहुँचना था क्योंकि दिन के उजाले में दुश्मन द्वारा देखे जाने का डर था और दुश्मन द्वारा देख लिए जाने पर बचना मुश्किल था क्योंकि दुश्मन सैनिकों की तुलना में उनकी संख्या कम थी, इसलिए कैसी भी कठिनाई हो, उन्हें सवेरा होने तक उत्तर वाली चौकी पहुंचना हर हाल में आवश्यक था ।

अतः वहाँ से उसी प्रकार तत्परता पूर्वक वे लोग आगे बढ़े जिस तरह से मृत्यु को कभी न भूलने वाले योगी प्रवृत्ति के लोग, मनुष्य जीवन के समस्त कर्तव्यों का निर्वहन करते हुए आगे बढ़ते हैं |

ये बात 13 नवम्बर की है । 10 सिपाहियों की छोटी सी टुकड़ी अपने अस्त्र-शस्त्र सँभाले नक्शे के सहारे आगे बढ़ रही थी । वायरलैस से कमाण्ड पोस्ट का संपर्क बना हुआ था । संवादों का आदान प्रदान भी ठीक ठीक चल रहा था कि एकाएक ऐसा स्थान आ पहुँचा जहाँ से आगे बढ़ना लगभग असंभव हो गया । सारा स्थान बर्फ से ढका हुआ था ।

युद्ध में सैनिक, नक्शों में नदी नाले , टीले, वृक्ष आदि संकेतों के सहारे बढ़ते हैं पर बर्फ ने पृथ्वी के सभी निशान मिटा डाले थे । नदी, झरने, झील सब जम चुके थे । पेड़ पौधे तक बर्फ से ढके हुए थे | ऐसी स्थिति में आगे बढ़ना बहुत मुश्किल हो गया था । सभी सैनिक निस्तब्ध खड़े रह गये | वे सोच ही नहीं पा रहे थे की क्या किया जाये ?

कहते हैं युद्ध के समय अदृश्य आत्माओं की भावनाओं की संवेदनशीलता बढ़ जाती है, जो युद्धकाल में उनकी मौजूदगी का अहसास भी कराती हैं । द्वितीय विश्वयुद्ध के दौरान घटी ऐसी कई घटनायें रिकार्ड्स में मौजूद हैं जिनमे अतीन्द्रिय अनुभूतियों , मृतात्माओं के विलक्षण, हैरतंगेज़, क्रिया-व्यापार सम्बन्धी सैकड़ों घटनाओं का प्रामाणिक विवरण दिया हुआ है ।

प्रस्तुत घटना भी उसी तरह की है और इस तथ्य पर प्रकाश डालती है कि मृत्यु के बाद भी आत्मा के चेतनात्मक शरीर का नाश नहीं होता । मृत्यु के बाद यदि आत्मा तुरन्त नींद में नहीं चली जाती और उसकी कोई प्रबल भौतिक कामना भी नहीं होती तो वह साँसारिक कर्तव्यों में जीवित व्यक्तियों को, जीवित व्यक्तियों की भाँति ही सहायता पहुँचा सकती है ।

इस सैन्य टुकड़ी में कुल दस सैनिक थे और उन्हीं सैनिकों में से एक श्री गिरिजानन्द झा के द्वारा प्रस्तुत यह घटना 1962 के एक धर्मयुग अंक में भी छपी भी थी । अभी सैनिक इस चिन्ता में ही थे कि अब किस दिशा में कैसे बढ़ा जाये कि किसी के पैरों से चलने की आवाज़ सुनाई दी । अब तक आकाश में चन्द्रमा निकल आया था ।

आशंका से भरे सैनिकों ने देखा सामने एक भारतीय सेना का ऑफिसर खड़ा है । कन्धे पर दो स्टार देखने से मालूम पड़ता था कि वह लेफ्टिनेंट है । उन्हें देखते ही सैनिकों ने उनको सैल्यूट किया ।

सैल्यूट का उत्तर सैल्यूट से ही देकर लेफ्टिनेंट बोले “देखो आगे का रास्ता भयानक है तुम लोगों को कुछ मालूम नहीं है । चौकी अभी यहाँ से दूर है और सवेरा होने में कुल चार घन्टे बाकी है इसीलिये बिना देर किये तुम लोग मेरे पीछे पीछे चले आओ” । यह कहकर वे पीछे मुड़े तो सैनिकों ने देखा लेफ्टिनेंट साहब की कमीज में पीठ पर गोल निशान है लगता था उतना अंश जल गया था ।

बिना किसी नक्शे के सहारे लेफ्टिनेंट आगे आगे इस तरह से बढ़ रहे थे मानो वह सारा क्षेत्र उनका अच्छी तरह से घूमा हुआ हो । सैनिक परेशान भी थे और चिन्तित भी कि यह अजनबी ऑफिसर इस इलाके से इतनी अच्छी तरह वाकिफ़ कैसे है । कभी कभी आशंकाओं से मन परेशान भी हो जा रहा था कि कहीं कोई दुर्घटना तो होने वाली नहीं है ।

चुपचाप चलने में खामोशी और उदासी सी अनुभव हो रही थी सभी को । उनके मनोभावों को भांपते हुए उनके लेफ्टिनेंट कमाण्डर ने उनसे कहा “मेरी पीठ पर यह निशान जो तुम लोग देख रहे हो वह कल की गोलाबारी का है | कल जब हम लोग हमले की तैयारी में थे तभी दुश्मन सेना ने गोलाबारी शुरू कर दी । सब लोग जमीन पर लेट गये, तभी एक बम आकर मेरी तरफ़ फटा । जलती हुई बारूद के कुछ टुकड़े मेरी पीठ पर आकर गिरे और मेरी कमीज जल गई” ।

इसके आगे कुछ और कहने से पहले उन्होंने बातचीत का रुख अचानक से मोड़ दिया और कहा “तुम लोग शायद आत्मा की अमरता पर विश्वास न करते हो पर मैं करता हूँ | मरने के बाद आत्मायें’ अपने जीवन के विकास की तैयारी करती है, जिसकी जो इच्छायें होती है वह उसी तरह के जीवन की तैयारी में वे जुट जाती है और जिसकी कोई इच्छा नहीं होती है उसे भगवान् अपनी ओर से प्रेरित करके आगे के क्रम में नियोजित करते हैं” ।

इसी तरह से बातचीत करते-करते रास्ता कट गया और रात भी । जिस चौकी पर उनको पहुँचना था वह कुछ ही फर्लांग पर सबको सामने दिखाई दे रही थी | अचानक उनके आगे चल रहा ऑफिसर रुका, उसके साथ ही सभी सिपाही भी रुक गये | उसने पीछे मुड़कर सैनिकों से कहा “देखो अब तुम लोग अपने स्थान पर आ गये हो अब तुम लोग जाओ हम यहाँ से आगे नहीं जा सकते” ।

सैनिकों ने अपने ऑफिसर को सैल्यूट किया और आगे की ओर चल पड़े । ऑफिसर ने सलामी ली पर वह आगे नहीं बढ़ा । सैनिकों ने दो गज आगे जाकर फिर पीछे की ओर उत्सुकता पूर्वक देखा कि साहब किधर जा रहे है लेकिन वे हक्के-बक्के थे क्योंकि वहाँ न तो कोई साहब था और न ही कोई दूसरा व्यक्ति । दूर दूर तक उन लोगों अपनी दृष्टि दौड़ाई पर कही कोई दिखाई नहीं दिया ।

सिपाही चौकी पर पहुँचे जहाँ कमाण्डर उनकी प्रतीक्षा कर रहा था । रात में वायरलैस संपर्क टूट गया था | उनके कमाण्डर ने आते ही पूछा “तुम लोग इस बीहड़ मार्ग में इतनी जल्दी कैसे आ गये । तो उन्होंने बताया कि एक लेफ्टिनेंट उन्हें यहाँ लेकर आये और वे एक फर्लांग पहले ही कहीं अदृश्य हो गये ।

“लेफ्टिनेंट” ?- कमाण्डर ने आश्चर्य से पूछा “यहाँ तो कोई भी लेफ्टिनेंट नहीं है, तुमको जिस व्यक्ति ने रास्ता दिखाया उसका हुलिया क्या था” । सिपाहियों ने जो हुलिया उसको बताया, कमाण्डर आश्चर्य चकित रह गया उनका कथन सुनकर, क्योंकि जिस लेफ्टिनेंट के बारे में वे बात कर रहे थे उनकी एक दिन पहले ही, इसी स्थान पर दुश्मन द्वारा फेंके गए ग्रेनेड फटने से, मृत्यु हो गई थी ।

वीर गति को प्राप्त हुए अपने अमर बलिदानी ऑफिसर द्वारा की गयी सहायता को याद करके उनकी आँखे नम हो गयी |

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