एक समय की बात है | महाराज नभग श्राद्ध देव मनु के पुत्र और परम वैष्णव राजर्षि अम्बरीष के पितामह थे। ये बड़े विद्वान और जितेन्द्रिय थे। इन्हीें महाराज नभग को सनातन ब्रह्म तत्त्व का ज्ञान देने के लिये भगवान सदाशिव ने ‘कृष्णदर्शन’ नामक अवतार लिया। यह कथा शिव पुराण में प्राप्त होती है, जो इस प्रकार है-
नभग जब विद्याध्ययन करते हुए गुरूकुल में निवास कर रहे थे, तब इक्ष्वाकु आदि उनके भाईयों ने उन्हें नैष्ठिक ब्रह्मचारी मान कर उनको पैतृक सम्पत्ति में भाग न देकर समस्त सम्पत्ति आपस में बांट ली और अपना-अपना भाग लेकर वे उत्तम रीति से राज्य करने लगे। गुरूकुल से वेदों का साङ्गोपाङ्ग अध्ययन करके वापस लौटने पर नभग ने भाईयों से अपना हिस्सा मांगा तो भाईयों ने कहा कि बंटवारे के समय हम तुम्हारा हिस्सा लगाना भूल गये हैं, अतः तुम पिता जी को ही अपने हिस्से में ले लो।
नभग ने हिस्से के विषय में भाईयों द्वारा कही बात पिता से कही तो श्राद्ध देव मनु ने कहा ‘बेटा! भाईयों ने तुम्हें यह बात ठगने के लिये कही है, मैं तुम्हारे लिये भोग साधक उत्तम दाय नहीं बन सकता, तथापि मैं तुम्हारी जीविका का एक उपाय बताता हूं, सुनो।
इस समय आड़िग रस गोत्रीय ब्राह्मण एक बहुत बड़ा यज्ञ कर रहे है, उस कर्म में प्रत्येक छठे दिन का कार्य वे ठीक-ठीक नहीं समझ पाते-उसमें उनसे भूल हो जाती है। तुम वहां जाओ और उन ब्राह्मणों को विश्वेदेव सम्बन्धी दो सूक्त बतला दिया करो, इससे वह यज्ञ शुद्ध रूप से सम्पादित होगा। वह यज्ञ समाप्त होने पर वे ब्राह्मण जब स्वर्ग को जाने लगेंगे, उस समय संतुष्ट होकर अपने यज्ञ से बचा हुआ सारा धन तुम्हें दे देंगे।’
पिता के कथन अनुसार नभग ने यज्ञ में जाकर विश्वेदेव सम्बन्धी दोनों सूक्तों का शुद्ध-शुद्ध उच्चारण किया। यज्ञ कर्म समाप्त होने पर आड़िगरस ब्राह्मण यज्ञ से बचा हुआ अपना-अपना सारा धन नगभ को देकर स्वर्ग चले गये।
परंतु उस यज्ञावशिष्ट धन को जब नभग ग्रहण करने लगे, तब उसी समय भगवान सदाशिव वहां ‘कृष्ण दर्शन’ रूप् से प्रकट हो गये। उनके सारे अंग बहुत सुंदर, परंतु नेत्र कृष्ण वर्ण के थे। उन्होंने नभग से पूछा-‘तुम कौन हो, इस धन को क्यों ले रहे हो? यह तो मेरी सम्पत्ति है।’
नभग ने कहा ‘यह तो यज्ञ से बचा हुआ धन है, इसे ऋषिगण मुझे देकर स्वर्ग चले गये हैं। इसे लेने से आप मुझे क्यों रोक रहे हैं’? इस पर कृष्ण दर्शन ने कहा-‘तात! हम दोनों के इस झगड़े में तुम्हारे पिता ही निर्णायक होंगे, वे जैसा कहें, वैसा ही करना चाहिये।’
नभग ने कृष्ण दर्शन की बात अपने पिता से कही, इस पर श्राद्ध देव मनु ने भगवान सदाशिव के चरण कमलों का ध्यान किया और पुत्र नभग को समझाते हुए कहा-‘तात! वे पुरूष जो तुम्हें धन लेने से रोक रहे हैं, वे कोई और नहीं बल्कि स्वयं भगवान सदाशिव ही हैं। वैसे तो संसार की समस्त सम्पत्ति उन्हीं परमात्मा की है, परंतु यज्ञावशिष्ट धन पर उनका विशेष अधिकार है। अतः तुम्हें उनके पास जाकर अपने द्वारा हुए अपराध के लिये उनसे क्षमा मांगनी चाहिये।’
पिता की बात सुनकर नभग कृष्ण दर्शन भगवान शिव के पास वापस आये और उनसे अनजाने में हुए अपराध के लिये क्षमा मांगी। उनके चरणों में मस्तक रख कर प्रणाम किया तथा सुंदर स्तुतियों से उनका स्तवन किया।
लीलाधारी भगवान ने प्रसन्न होकर नभग पर कृपा दृष्टि डाली और मुस्कारते हुए कहा-‘नभग! तुम्हारे पिता ने धर्म अनुकूल निर्णय दिया है और तुमने भी साधु-स्वभाव के कारण सत्य ही कहा है, अतः मैं तुम पर बहुत प्रसन्न हूँ। यह सारा धन मैं तुम्हें देता हूँ, साथ ही तुम्हें सनातन ब्रह्म तत्त्व का ज्ञान भी प्रदान करता हूँ। तुम इस लोक में निर्विकार रह कर सुख भोगो, अंत में तुम्हें मेरी कृपा से सदगति प्राप्त होगी।’ ऐसा कह कर भगवान शिव अन्तर्धान हो गये।
इस प्रकार यह भगवान सदाशिव के ‘कृष्ण दर्शन’ नामक अवतार की कथा है, जो सम्पूर्ण मनोवांछित फलों को देने वाली है।