वैदिक ग्रंथों के अनुसार वेद अनंत कोटि ब्रह्मण्ड नायक भगवान के निःश्वास से उद्भूत हैं। इस आशय को गोस्वामी तुलसीदास जी ने भी कहा है|
सृष्टि के आदि में ब्रह्मा जी से उत्पन्न राजर्षि मनु के ‘भूतं भव्यं भविष्यं च सर्वं वेदात्प्रसिध्यति।’-इस वचन से स्पष्ट है कि भूत, भविष्य एवं वर्तमान कालिक सब कुछ वेदों द्वारा ही सिद्ध होता है। यह बड़े रहस्य की बात है |
क्या वेदों में इतिहास है
मीमांसकों की दृष्टि से यद्यपि वेदों में देहधारी प्राणियों के ऐतिहासिक वर्णनों का सर्वथा अभाव है तथापि उनके मत से वसिष्ठ-विश्वामित्र आदि वेददृष्ट शब्द समूह तन्नामधारी किसी महर्षि विशेष के सूचक नहीं, बल्कि वे प्रसंग अनुसार यौगिक स्वार्थों के परिचायक हैं, लेकिन ‘परंतु श्रुतिसामान्यमात्रम्’ इस श्लोक के अनुसार श्रवण मात्र में ही ऐतिहासिक व्यक्तियों के नामों जैसे जान पड़ते हैं।
मीमांसकों के अनुसार न केवल वैदिक तात्पर्यर्थ सत्ता ही अनादि और नित्य है, बल्कि मंत्रनिष्ठ, वाक्यनिष्ठ और पदनिष्ठ आक्षरिक आनुपूर्वी भी अनादि और नित्य है। अतः वेदों में उत्पत्ति-विनाशशील एक कालिक व्यक्तियों से सम्बद्ध इतिवृत्त की कल्पना को स्थान नहीं है ‘सर्वाण्यपि नामान्याख्यातजानि’ अर्थात् वेदों में प्रयुक्त होने वाले सभी नाम तत्तद धातुओं द्वारा ही निष्पन्न हैं, रूढ़ नहीं हैं।
अतः वे सभी यौगिक अर्थों के द्योतक हैं, डित्थ-डवित्थ की भांति निरर्थक नहीं हैं। इस मान्यता के अनुसार उन्होंने वेद-मंत्र की आधि भौतिक, आधि दैविक तथा आध्यात्मिक-त्रिविध व्याख्या की है, परंतु इसके साथ ही आचार्य यास्क ने ऐतिहासिक पक्ष का भी समर्थन किया है | वहीँ सायणाचार्य भी ‘त्रेतिहासमाचक्षते’ कहते हुए अनेक इतिहासों को उदधृत करते हैं।
इस प्रकार गम्भीर विचारकों को पढ़ने से यह विदित होता है कि वेदों में इतिहास तो है परंतु वह मानव-कोटि के ऊपर त्रिकालाबाधित नित्य इतिहास है और हमारी दृष्टि से मीमांसकों के इस कथन कि वेदों में इतिहास नहीं, इसका भी यही तात्पर्य है कि उनमें मानव-कोटि के व्यक्तियों का इतिहास नहीं है।
फिर यह प्रश्न उपस्थित होता है कि यदि वेदों में नित्य इतिहास है तो सायण, उब्बट, महीधर आदि प्राचीन वेदभाष्यकारों ने अपने भाष्यों में उसका उल्लेख क्यों नहीं किया?
क्या वेदों में भगवान् के अवतारों का भी वर्णन है
परंतु सायणादि के भाष्यों का गहन अध्ययन करने पर हमको उक्त प्रश्न का समुचित उत्तर प्राप्त हो जाता है | सायण ने ऋग्वेद के 1।22।17 के ‘इदं विष्णुर्वि चक्रमेव’, अथर्ववेद के 12।1।48 के ‘वराहेण पृथिवी संविदाना’, नृसिंहपूर्वतापिन्युपनिषद 4।3 के ‘नृसिंहाय विह्यहे वज्रनखाय धीमहि’ तथा ‘प्रोवाच रामो भार्गवेयः’ (ऐतरेय 7।5।34)-की व्याख्या में क्रमशः वामन, वराह, नृसिंह और परशुराम अवतारों का उल्लेख किया गया है।
अतः सुस्पष्ट है कि वेदों में अवतार-कथाएँ हैं। इसी संदर्भ में प्रस्तुत लेख में कुछ उद्धरण उपस्थित हैं। महाभारत आदि अनेक ग्रंथों की संस्कृत में टीका करने वाले पण्डित श्री नीलकण्ठ आचार्य ने अपने मंत्र रामायण में तथा धर्म सम्राट स्वामी श्री हरिहरानन्द सरस्वती (करपात्री जी) महाराज के ग्रंथों में अवतारवाद को मान्यता प्राप्त है।
विष्णु का राम रूप में अवतार का संकेत वेद में प्राप्त होता है-‘विष्णुरित्था परममस्य विद्वाज्जातो बृहन्नाभिः पाति तृतीयम।’ (ऋक0 10।1।3)
अर्थात परम पुरूष सर्वज्ञ भगवान विष्णु ही इस प्रकार राम रूप में अवतरित हुए, जो ब्रह्म होते हुए भी देहधारी बन गये।
यही नहीं तीन माताओं तथा तीन प्रकार के पिता (पालक, उपनेता तथा शिक्षक)-के वर्णन परक पंत्र में राम कथा का बीज मिलता है ‘तिस्त्रो मातृस्त्रीन पितृन विभ्रदेक ऊध्र्वस्तस्थौ नेमव ग्लापयन्ति’ (ऋक0 1।164।10)।
कौशल्या, सुमित्रा और कैकयी-तीन माताएं एवं जन्मदाता दशरथ (पालक), विद्या गुरू विश्वामित्र तथा उपनेता वसिष्ठ-तीन ही जिनके पालक थे, वह अद्वितीय राम अवतार सर्वोपरि विराजमान था, उससे किसी भी व्यक्ति को तनिक भी विक्षोभ नहीं था।
श्री राधा-कृष्ण के अवतार की कथा का भी मूल एक वैदिक मंत्र में प्राप्त होता है जिसका अर्थ है “हे राधापते (परमेश्वर-घनश्याम)! जिसके मुख में आपकी स्तुतिमयी वाणी है, उसकी स्तुतियों से प्राप्त होने वाले तुम उसके घर में ऐश्वर्य भर दो; उसकी वाणी मधुर और सत्य हो”।
यजुर्वेद (5।18) में वामन अवतार की कथा प्राप्त होती है | उसमे वर्णित श्लोक के अर्थानुसार “मैं विष्णु के पराक्रम का वर्णन करता हूं, उन्होंने तीन पैरों में समस्त लोकों को नाप लिया और आकाश को स्थिर किया। सामवेद में सीता की अग्नि परीक्षा की कथा प्राप्त होती है | उसमे वर्णित श्लोक के अर्थानुसार दिव्य तेज से उपलक्षित सीता को लेकर जाज्वल्यमान अग्नि देव भगवान राम के समक्ष उपस्थित हुए।
अथर्ववेद (10।10।1) में मत्स्य अवतार का बीज भी विद्यमान है उसमे जो श्लोक वर्णित है उसका अर्थ इस प्रकार है “तुम प्रकट होती हुई को नमस्कार और तुम प्रकट हो चुकी को नमस्कार है। हे न मारने वाली बाल मछली! तेरे स्वरूप-फैलाव को नमस्कार है। इस प्रकार उपर्युक्त प्रमाणों से स्पष्ट है कि वेदों में अवतारों की कथाएँ विद्यमान हैं।
भगवान विष्णु के रामावतार एवं कृष्णावतार का वैशिष्ट्य
जैसे अगाध समुद्र से सहस्रों नहरेें निकलती हैं, वैसे ही सत्वगुण के भण्डार भगवान श्री हरि के भी असंख्य अवतार हुआ करते हैं। भगवान विष्णु के अवतारों की गणना करने में कौन समर्थ हो सकता है, फिर उनकी महिमा की कौन कहे, उसे या तो स्वयं भगवान जानते हैं अथवा वह, जिसे वे स्वरूप बनाकर जना देते हैं।
फिर भी उनके असंख्य अवतारों में से चौबीस अवतार विशेष रूप से मान्य हैं तथा उनमें भी दस अवतारों की प्रसिद्ध सर्वत्र दृष्टिगोचर होती है। सर्वमान्य दशावतार इस प्रकार हैं-1-मत्स्य, 2-कूर्म, 3-वराह, 4-नृसिंह, 5-वामन, 6-परशुराम, 7-राम, 8-कृष्ण, 9-बुद्ध एवं 10-कल्कि।
भगवान विष्णु के इन दशावतार में भी श्री रामावतार तथा श्री कृष्णावतार की महिमा अवर्णनीय है। जहां आज के समय में अन्य कई अवतारों की उपासना-परम्परा काल के प्रवाह में भगवान की इच्छानुसार या तो शिथिल पड़ गयी अथवा लुप्तप्राय सी प्रतीत होती है, वहीं श्री राम एवं श्री कृष्ण के अवतारों की भक्ति और उपासना की परम्परा अविच्छिन्न रूप से आज भी विद्यमान है|
विद्यमान ही नहीं बल्कि सजीव, पुष्ट एवं गतिशील भी है। प्राचीन काल से आधुनिक काल तक भगवान विष्णु के उक्त दोनों अवतारों की महिमा का प्रतिपादन एवं मण्डन करने वाले अनेक ग्रंथ लिखे जा चुके हैं। उनकी प्रतिमाएं तथा मंदिर आदि भूगर्भ से प्राप्त होकर ही हमें परम्परा की प्राचीनता की साक्षी मात्र नहीं देते, बल्कि आज भी प्रत्येक प्रान्त के प्रत्येक नगर, कस्बे तथा गांव-गांव में युगों-युगों से सहस्रों एवं अर्चा विग्रह विद्यमान हैं, जिनके पूजन तथा भक्ति की परम्परा आज भी सोत्साह फल-फूल रही हैं। यह आश्चर्यजनक है|
भगवान ने अपने राम तथा कृष्ण अवतारों के रूप में इस धरा धाम पर दिव्य रसानुभूति का आस्वादन कराने वाली अदभुत लीलाएं करके भक्ति का जो अजस्र स्रोत बहाया, वह अनंत काल तक इस जगत में भक्तों को अभय-आश्वासन सहित दिव्य प्रेमयुक्त परमानंद की अनुभूति कराता रहेगा।
भगवान के अन्यान्य मुख्य अवतार किसी एक उददेश्य विशेष की पूर्ति हेतु ही हुए जैसे-मत्स्य अवतार, कूर्म अवतार, वराह अवतार, नृसिंह अवतार, वामन अवतार इत्यादि। उक्त अवतारों के प्राकटय के प्रधान हेतु के अतिरिक्त अन्य कृत्यों का उल्लेख प्रायः नहीं मिलता अथवा कुछ गौण प्रसंग ही मिलते हैं।
अनेक अवतार तो अल्प अवधि के लिये ही हुए तथा प्रयोजन सिद्ध करके अदृश्य हो गये। उनमें भी अधिकांश अवतारों में भगवान की मात्र 9 कलाओं तथा कहीं अधिक से अधिक 11 कलाओं की ही अभिव्यक्ति हुई अर्थात अन्य अवतारों में कार्य विशेष हेतु भगवान आवश्यकतानुसार सीमित कलाओं से युक्त होकर अवतरित हुए फिर कार्य सिद्ध करके अल्पकाल मे ंही उन्होंने अपने रूप का संवरण कर लिया, अतः उनका श्रृंखलाबद्ध विस्तृत लीला चरित्र नहीं मिलता।
इस दृष्टि से भगवान के ‘राम’ तथा ‘कृष्ण’ अवतार उपर्युक्त सभी कसौटियों पर बहुत बढ़े-चढ़े थे। उन्होंने न केवल विस्तृत लीलामय दिव्य-जीवन ही जिया, बल्कि अनेकानेक प्रयोजनों को भी जीवनपर्यन्त क्रमशः सिद्ध किया अर्थात् उन्होंने एक ही नहीं बल्कि अनेक लक्ष्यों की पूर्ति हेतु अवतार लिया था।
उनमे से कुछ इस प्रकार हैं |
1-उन्होंने ऐसी-ऐसी दिव्य लीलाएं कीं, जिनके श्रवण तथा स्मरण मात्र से प्रेम तथा भक्ति का हृदय में संचार होने लगता है।
2-उन्होंने अपनी अन्तरंग लीला में ऐसे गूढ़ एवं सर्व कल्याणप्रद ज्ञान को अपने वचनामृत के रूप में संसार में प्रकट किया, जो सम्पूर्ण मानव-जाति के लिये चिरस्थाई वरदान बन गया।
3-उन्होंने अपने दिव्य आचरणों से सत्य, वीरता, ओजस्विता, ज्ञान, त्याग, तितिक्षिा, वैराग्य, मर्यादा तथा अनासक्ति के जन शिखरों को छूकर दिखाया, वह सदैव-सदैव के लिये हमारे आदर्श के शिखर बन गये तथा वे सभी को वैसा बनने को प्रेरित करते हैं।
4-उन्होंने तत्कालीन सभी दुष्ट एवं आसुरी शक्तियों का समूल उच्छेद कर शान्ति का साम्राज्य स्थापित किया तथा समूचे संसार को धर्म-स्थापना के लिए अन्याय से संघर्ष करने की प्रेरण दी।
सम्पूर्ण राम कथा तथा कृष्ण कथा से कौन परिचित नहीं है, इसीलिये ऊपर संक्षेप रूप से वे सभी विशेषताएं बतायी गयीं, जो भगवान विष्णु के मात्र राम अवतार तथा कृष्ण अवतार में ही पूर्णतया दृष्टिगोचर होती हैं, अतः ‘राम’ तथा ‘कृष्ण’-अवतार भगवान के सभी अवतारों में परम विशिष्ट हैं, साथ ही दोनों अवतारों की लीलाएं तथा चरित्र हमें भक्ति योग तथा निष्काम कर्म योग के पथ पर साथ-साथ आगे बढ़ने की प्रेरणा एवं शक्ति प्रदान करते हैं।
यहाँ पर समस्त विवेचन का यह आशय कदापि नहीं समझना चाहिये कि अवतारों में भेद-बुद्धि का प्रतिपादन किया जा रहा है। वस्तुतः तो सभी मुख्य अवतारों के रूप में स्वयं भगवान विष्णु ही सदैव भिन्न-भिन्न कलेवरों में अवतीर्ण हुए, उनमें न कोई छोटा है न कोई बड़ा। सच्चे भक्तों में तो भेद-बुद्धि का लेशमात्र भी आवेश नहीं होता।
यह रहस्य ही है कि महान कृष्ण भक्त श्री चैतन्य महाप्रभु को भक्ति भाव की अवस्था में भगवान नृसिंह तथा भगवान वराह का आवेश समय-समय पर हुआ था, जिसे उनके अन्तरंग भक्तों ने दिव्य लक्षणों सहित प्रत्यक्ष देखा था। यहां तो मात्र राम अवतार तथा कृष्ण अवतार के विस्तृत लीलामय-जीवन तथा उनकी सर्वाधिक लोकप्रियता के कारणों का ही विवेचन किया गया है, जो उनके वैशिष्टय को प्रदर्शित करते हैं।
भगवान विष्णु के राम अवतार एवं कृष्ण अवतार दोनों ही परम विलक्षणताओं से युक्त एवं सर्वाधिक प्रसिद्ध हैं। दोनों ही अवतारों में बहुत सी समानताएं दृष्टिगोचर होती हैं, जिनके आधार पर उनकी विशिष्टता का प्रतिपादन किया गया है। दोनों अवतारों के देश-काल-परिस्थिति इत्यादि भिन्न होने के कारण उनकी अनेक लीलाओं में भी बाह्यतः भिन्नता दृष्टिगोचर होना स्वाभाविक है, परंतु उन दोनों में भी कोई छोटा बड़ा नहीं है, अज्ञान के कारण अथवा भ्रमवश ही व्यक्ति की कनिष्ठ-वरिष्ठ जैसी धारण बन जाती है।
वस्तुतः तो भगवान विष्णु ही अपनी संसाररूपी नाटयशाला में दो अलग-अलग नाटकों में नायक बनकर कभी राम, कभी कृष्ण के रूप में प्रकट हुए, उन्होंने स्वयं ही लीला अथवा नाटय की पटकथा लिखी, स्वयं ही अभिनेता बने तथा सूत्रधार भी स्वयं वे ही थे।
अब प्रश्न यह है कि भगवान ने यह अवतरण, यह लीला विस्तार अथवा यह नाटय क्यों किया? इसके कारणों की ऋषियों, भक्तों तथा विद्वानों ने अपने-अपने ढंग से व्याख्या की है। जिन भगवान के भृकुटि-विलास से ही सृष्टि की रचना और संहार हो जाते हैं, उन्होेंने अवतार क्यों लिये? क्या यह मात्र उनका मनोरंजन है अथवा कुछ और यह तो वे ही ठीक-ठीक जानते हैं।
अस्तु भगवान के अवतारों की तुलना मनोरंजक बुद्धि विलास ही सही, पर उसमें दोष नहीं, हां भेद-बुद्धि नहीं होनी चाहिये। भगवान की लीलाओं तथा गुणों का स्मरण तो किसी भी रूप में सदैव कल्याणकारी है, यह अकाटय सत्य है।
भगवान राम ने अपने जीवन में मर्यादाओं का कभी उल्लंघन नहीं किया। घोर दुःख में विचलित हुए बिना मर्यादाओं के लिये वे सर्वस्व त्याग करने को प्रस्तुत हो गये। उन्होंने मर्यादा-पालन का अद्वितीय आदर्श प्रस्तुत किया। चाहे पुत्र के नाते से, चाहे भाई के नाते से, चाहे पति के नाते से, चाहे स्वामी के नाते से, चाहे राजा के नाते से, चाहे हम किसी भी नाते से विचारें, उन्होंने अपनी मर्यादा का सदैव पालन किया। इसीलिये वे जन-जन के हृदय में सदैव के लिये मर्यादा पुरूषोत्तम श्री राम के रूप में बस गये।
भगवान राम के चरित्र में हमें दो मर्यादाओं के साथ-साथ पालन करने के धर्मसंकट की स्थिति में क्या करना चाहिये इसका इतिहास दुर्लभ उदाहरण भी मिलता है, जहां उन्होंने अद्वितीय त्याग किया। समाज के हित को ही प्रधानता दी तथा व्यक्तिगत क्षति और लांछन दोनों सह लिये। मर्यादा पुरूषोत्तम होने के कारण उनकी सभी लीलाएं अनुकरणीय हैं, जो जितना ही अधिक अनुकरण का प्रयास करेगा, वह उतना ही महान बनता जायगा।
दूसरी ओर भगवान कृष्ण ने अनासक्त भाव से अपने जीवन में सभी प्रकार के रसों से युक्त ऐसी दिव्य लीलाएं कीं, जिनके स्मरण मात्र से ही प्रेम का सहज संचार होने लगता है चाहे वात्सल्य, सख्य आदि किसी भी भाव में रूचि हो हृदय शीघ्र पुलकित हो उठता है। उन्होंने प्रेम का अद्वितीय उच्चादर्श उपस्थित किया।
मधुर प्रेम से ओतप्रोत विलक्षण लीलाओं के कारण वे जन-जन के हृदय में सदैव के लिये लीला पुरूषोत्तम के रूप में बस गये। भगवान कृष्ण की श्रृंगारिक लीलाएं पवित्र हैं, उनमें सांसारिक नहीं, बल्कि दिव्य प्रेम की अभिव्यक्ति है। दिव्य प्रेममयी वह लीला भक्ति को बढ़ाने वाली होने के कारण परम स्मरणीय एवं चिंतनीय है।
भगवान राम, परम प्रभु परमेश्वर की बारह कलाओं के तथा भगवान कृष्ण सोलह कलाओं के अवतार थे। इस कारण उन्हें तुलनात्मक रूप से छोटा-बड़ा सिद्ध करना नितान्त अज्ञानता का सूचक है। वस्तुतः भगवान के किसी भी अवतार में चेतना के उतने ही अंश (कलाएं) प्रकट होते हैं, जितने की आवश्यकता होती है।
स्थितियां जितनी अधिक विषम होती हैं, उतनी अधिक कलाओं सहित भगवान का अवतार होता है ऐसा मात्र अभिव्यक्ति में होता है, अवतार की सामर्थ्य समान होती है। त्रेता में धर्मरूप वृषभ के तीन पैर पवित्रता, दया तथा सत्य थे जबकि द्वापर में उसके दया तथा सत्य नामक दो ही पैर थे। त्रेतायुग की अपेक्षा द्वापर युग में समाज किस-किस रूप में पतित हो चुका था,यह वाल्मीकीय रामायण एवं महाभारत में स्पष्ट देखा जा सकता है, इसीलिये भगवान कृष्ण को अधिक कलाएं अभिव्यक्त करनी पड़ीं।
आगे भगवान राम तथा भगवान कृष्ण सम्बन्धी कुछ विषयों को सारणी के रूप में दिया जा रहा है-
भगवान राम तथा भगवान कृष्ण-दोनों अवतारों को परस्पर देखने पर उनमें प्रायः समानताएं ही प्राप्त होती हैं दोनों भगवान के ही स्वरूप जो ठहरे, सो आश्चर्य भी नहीं होना चाहिये। दोनों ही अवतारों में भगवान ने परम शरणागत वत्सलता सिद्ध की है। भगवान राम ने कहा भी है कि “जो एक बार भी शरण में आकर ‘मैं तुम्हारा हूं’-इस प्रकार कह कर मुझसे रक्षा की प्रार्थना करता है, उसे मैं समस्त प्राणियों से अभय कर देता हूं, यह मेरा स्वाभाविक व्रत है”।
इसी प्रकार से भगवान कृष्ण का वचन है कि “सम्पूर्ण धर्मों के आश्रय (अर्थात क्या करना है, क्या नहीं करना है, इस विचार)-का त्याग करके एक मेरी शरण में आ जा। मैं तुझे सम्पूर्ण पापों से मुक्त कर दूंगा, शोक मत कर”।
भगवान दोनों ही रूपों में सदैव वचन निभाते हैं, फिर भेद बुद्धि को स्थान ही कहां रहता है। सच्चे भक्त के हृदय में प्रथम तो भेदभाव आता ही नहीं और यदि आ भी जाता है तो प्रभु कृपापूर्वक तत्काल उसका भ्रम निवारण कर देते हैं, जैसे गोस्वामी तुलसीदास जी के समक्ष किया था। एक बार गोस्वमी तुलसीदास जी ने मथुरा में भगवान कृष्ण की श्रृंगार युक्त एक परम मनोहर मूर्ति के दर्शन के लिये और वे गदगद हो गये, परंतु भगवान राम के एकनिष्ठ भक्त होने के कारण वे कातर भाव में आ गए |
भक्त की इच्छा समझते ही भगवान की भक्त वत्सलता देखिये, प्रभु कृष्ण ने तत्काल अपनी प्रतिमा को धनुष-बाण हाथों में पकड़े भगवान श्री राम की प्रतिमा में परिवर्तित कर दिया। गोस्वामी तुलसीदास जी सरीखे भक्त दुर्लभ होते हैं जो एकनिष्ठ भी हों, साथ ही साथ ही अन्य भगवत-स्वरूपों के प्रति पूर्ण सम्मान भाव भी रखते हों, उनके इस विशिष्ट गुण के परिचय हेतु उनकी विनय-पत्रिका का अवलोकन करना चाहिये।
ऐसे भक्तों की इच्छा भगवान सदैव पूरी करते हैं। सारांश यह है कि भगवान के राम और कृष्ण-दोनों अवतार समान हैं, कोई भी छोटा-बड़ा नहीं है। हम अपने भाव के अनुसार चाहे जिसकी भक्ति करें, पर वे परम परमेश्वर प्रभु श्री भगवान ही हैं।