भगवान की कथा का महत्व सनातन धर्म के ग्रंथों में दिया हुआ है | कुछ विद्वान ऐसा मानते हैं कि अपनी लीला में अवतीर्ण भगवान् श्रीकृष्ण का त्रिविध प्रकाश है । द्वापर युग के कुरूक्षेत्र में श्रीकृष्ण पूर्ण सत् और ज्ञानशक्ति प्रधान हैं, द्वारका और मथुरा में पूर्णतर चित् और क्रियाशक्ति प्रधान हैं एवं श्रीवृन्दावन में श्रीकृष्ण पूर्णतम आनन्द और इच्छाशक्ति प्रधान हैं ।
कुछ लोग महाभारत और श्रीमदभागवत के श्रीकृष्ण को अलग-अलग दो व्यक्तित्व (Personality) मानते हैं । यह सब उनकी अपनी सोच है, भावना है । ‘जा की रही भावना जैसी । प्रभु मूरति तिन्ह देखी तैसी ।।’ वस्तुतः परिपूर्ण भगवान् एक ही हैं, उनकी अनन्त लीला-विलास है और लीलानुसार उनके अनन्त स्वरुप हैं, वस्तुतः वह एक ही हैं |
जिस किसी भी भाव से कोई उन्हें देखे, अपनी-अपनी दृष्टि के अनुसार उनके दर्शन करे, सब करते एक ही भगवान् के हैं । उनमें छोटा-बड़ा न मानकर अत्यन्त प्रेम-भक्ति के साथ अपने इष्ट स्वरूप की सेवा में ही लगे रहना चाहिये ।
भगवान के अवतार की व्याख्या
अवतार हेतु-प्रणव के अंतर्गत आने वाले अ, उ और म् की तथा प्रकृतिगत तत्व, सत्त्व, रजस् और तमस् की एकरूपता है । श्रीहरि के विविध अवतार में अनुगत हेतु शब्द है । श्रीहरि अपनी इच्छा से अवतार लें या नारदादि मुनि के शाप के कारण अवतार लें या कश्यपादि ऋषियों को दिये गये वरदान की वजह से अवतार लें, अवतार के मूल में शब्द ही होता है ।
यही कारण है कि सीता, गरूड़, ब्रह्मादि शब्दब्रह्मात्मक हैं-‘प्रणवगरूड़मारूह्ना महाविष्णोः’ (त्रिपाद्विभूतिमहानारायणोपनिषद् 5।1) शब्द और शब्दार्थ का पर्यवसान ज्ञान है । शब्द और अर्थ ज्ञान के प्रकारान्तर से अभिव्यंजन मात्र हैं ।
जिस प्रकार से आकाश वायु, अग्नि, जलादि से संलग्न दिखाई देता है फिर आकाश इनसे अलिप्त है, अलग है और कमलपत्र स्वाश्रित जल से अलिप्त ही रहता है उसी प्रकार से शब्द, अर्थ में संलग्न दिखाई देता है, लेकिन अर्थ शब्द से अलिप्त ही रहता है । स्व्यम्प्रकाशित शब्द ज्ञानात्मक है । ज्ञान ब्रह्मात्म तत्त्व है । जो शब्द स्व्यम्प्रकाशित नहीं हैं वह अर्थाभिव्यंजक होते हुए अर्थरूप ही हैं ।
मृदघट-घटशब्दात्मक होता हुआ मृत्तिका मात्र है। मृत्तिका-पृथ्वी, जल, तेज, वायु और आकश क्रम में अव्यक्तसंज्ञक शब्द रूप और ब्रह्मात्मस्वरूप है-‘वाचारम्भणं विकारो नामधेयं मृत्तिकेत्येव सत्यम्……….त्रीणि रूपाणीत्येव सत्यम्’ (छान्दोग्योपनिषद् 6।1।4,6।4।2), ‘सदेव सत्यम्’ (पैड़गी उपनिषद्)।
अतएव अव्यक्तसंज्ञक सीता, रूक्मिणी आदि लक्ष्मीरूपा मूलप्रकृति प्रणवात्मिका हैं। श्रीराम, कृष्ण अर्धतन्मात्रात्मक तुरीयकल्प हैं। बलरामसंज्ञक संकर्षण तथा लक्ष्मण प्रणवगत अकाराक्षरसम्भूत वैश्वानरूप हैं। प्रद्युम्न तथा शत्रुघ्न प्रणवगत उकाराक्षरसमुदभुत हिरण्यगर्भात्मक हैं। अनिरूद्ध तथा भरत ओंकारगत मकारसमुदभुत प्रबुद्ध प्राज्ञकल्प हैं ।
यही कारण है कि शब्द ब्रह्म में निष्णात परब्रह्म को प्राप्त होता है-ध्यान रहे, रामावतार में शेषवतार लक्ष्मण जी यद्यपि शत्रुघ्न जी से बड़े थे तथापि दोनों युग्म होने के कारण गर्भ में प्रथम प्रविष्टका लोक में पश्चात् जन्म की दृष्टि से उन्हें दर्शन-परिप्रेक्ष्य में अनुज मानकर ओकांरगत अकारसमुदभुत विश्व या वैश्वानर माना गया है।
कृष्णावतार में शेषावतार श्रीबलराम अग्रज थे । देवकी जी के गर्भ में भी उनका प्रथम प्रवेश ही था । योगमाया के द्वारा उनका कर्षणकर रोहिणी के गर्भ में प्रवेश किया गया, अतः उनका नाम संकर्षण हुआ ।
वे प्रद्युम्न जी तथा प्रद्युम्न पुत्र अनिरूद्ध जी से तो श्रेष्ठ थे ही तथापि शेषावतार होने के कारण उन्हें महाभारतादि में अर्धतन्मात्रात्मक तुरीयकल्प, शेषी श्रीकृष्ण को तथा शेषात्मक बलदेव जी को प्राज्ञकल्प, प्रद्युम्न जी को हिरण्यगर्भात्मक तैजसकल्प और अनिरूद्ध जी को वैश्वानरात्मक विश्वकल्प दर्शाया गया है ।
प्रकृत संदर्भ में और महाभारतादि में रामावतार तथा कृष्णावतार में एकरूपता ओकांरगत अकारात्मक विश्वरूप कहा गया है । प्रकरण का तात्पर्य प्रणव की अ, उ, म् और अमात्रसंज्ञक अर्धतन्मात्रा तथा पुरूष पादस्वरूप वैश्वानर, तैजस, प्राज्ञेश्वर, और तुरीयब्रह्म में एकरूपता, परब्रह्माश्रित शब्द ब्रह्म की जगत्कारण प्रकृतिरूपता और ब्रह्माधिष्ठित शब्द ब्रह्मात्मक प्रणव की विवर्तोपादानकारणता एवं चतुव्र्यूह की लोकोत्तर उत्कृष्टता के ख्यापन में है ।
भगवान की अवतार कलाएं
भगवान् के कलावतार भी मन्त्राक्षर रूप ही होते हैं । उदाहरणार्थ-‘ऊँ नमो नारायणाय स्वाहा’ दशाक्षर नारायणमंत्रान्तर्गत क्रमशः प्रणवादि दशाक्षर के मत्स्च, कूर्म, वराह, नरसिंह, वामन, परशुराम, श्रीराम, श्रीकृष्ण, बुद्ध, कल्कि अथवा मत्स्य, कूर्म, वराह, नरसिंह, वामन, परशुराम, श्रीराम, बलराम, कृष्ण और कल्कि अथवा हंस, कूर्म, मत्स्य, वराह, नरसिंह, वामन, परशुराम, राम सात्त्वत (कृष्ण-बलराम) और कल्कि-दशावतार हैं ।
जरा (ज्येष्ठा), पालिनिका, शान्ति, ईश्वरी, रति, कामिका, वरदा, ह्नादिनी, प्रीति और दीर्घा-ये श्रीहरि के दशकलात्मक अवतार हैं। ‘टं’ से ‘नं’ पर्यन्त-मंत्रमाता मात्रिका से सम्बद्ध ये कला हैं-
उक्त रीति से प्रकृति रूपा प्रणवात्मिका भगवान् की कला होती है । उदाहरणार्थ-‘ऊँ नमो नारायणाय’ यह अष्टाक्षरमंत्र है। केवल ओंकार भी अकार, उकार, मकार, नाद, बिन्दु, कला, अनुसंधान और ध्यान-अष्टविध होता है । अकार सद्योजातस्वरूप होता है । उकार वामदेवस्वरूप होता है । मकार अघोरस्वरूप होता है ।
नाद तत्पुरूषस्वरूप होता है । बिन्दु ईशानस्वरूप होता है । कला व्यापकस्वरूप होता है । अनुसंधान नित्यस्वरूप होता है । ध्यान ब्रह्मस्वरूप होता है । अष्टाक्षर, पृथिवी, जल, तेज, वायु, व्योम, चन्द्रमा, सूर्य, और पुरूषरूप यजमानसंज्ञक सर्वव्यापक अष्टाक्षर अष्टमूर्ति है-
गर्गसंहिता के अनुसार
श्रीहरि के अंशांश, अंश, आवेश, कला, पूर्ण और परिपूर्णतम-ये छः प्रकार के अवतार माने गये हैं। महर्षि मरीचि आदि अंशंशावतार माने गये हैं । ब्रह्मादिदेव शिरोमणि अंशावतार माने गये हैं। श्री कपिल, कूर्मादि कलावतार माने गये हैं । श्री परशुराम आदि आवेशावतार माने गये हैं । श्री नृसिंह, राम श्वेतद्वीपाधिपति हरि, वैकुण्ठ, यज्ञ, नरनारायण पूर्णावतार माने गये हैं । श्रीकृष्णचन्द्र परिपूर्णतम पुरूषोत्तमोत्तमावतार माने गये हैं-
ब्रह्म निर्गुण, निष्कल, निष्क्रिय, निर्विकल्प, निरंजन, निरवद्य, शान्त और सूक्ष्म है-फिर भी त्रिगुणामयी माया के योग से उसे सकल भी कहा जाता है । ब्रह्म के अभिव्यंजक और अभिव्यक्त स्वरूप का नाम कला है । प्रश्नोपनिषद् (6।1-4)- के अनुसार पुरूष (ब्रह्मात्मतत्त्व) षोडशकलासम्पन्न है-
क्या होती है कलायें
प्राण, श्रद्धा, आकाश, वायु, तेज, जल, पृथ्वी, इन्द्रिय, मन, अन्न, वीर्य, तप, मंत्र, कर्म, लोक तथा नाम-ये षोडश कलाएँ हैं । प्राणरूप अव्याकृत, महदात्मिका श्रद्धा, सूक्ष्म तथा स्थूल भेद से दश भूत, दश इन्द्रिय और अहम् सहित मन-ये सांख्य शैली में अचित् पदार्थ के चैबीस प्रभेद है । मंत्र तथा कर्म का अन्तर्भाव महत् (बुद्धि), अहम् तथा मन में है ।
नाम का अन्तर्भाव वाक् नामक कर्मेन्द्रिय में है । लोक, तप, वीर्य और अन्न का अन्तर्भाव पश्चयभूतात्मक शरीर में है । इस प्रकार षोडश कला का अर्थ प्रकृति तथा प्राकृत पदार्थ हैं, जो कि आत्माधिष्ठित होने से आत्मस्वरूप ही हैं । अभिप्राय यह है कि जो कुछ आत्माधिष्ठित है, वह कलापदवाच्य है ।
इस संदर्भ में चन्द्रवंशसमुत्पन्न चन्द्रतुल्य श्रीकृष्ण की षोडशकला सम्पन्नता और सूर्यवंशसमुत्पन्न सूर्यतुल्य श्रीराम की द्वादशकलासम्पन्नता का रहस्य भी समझना चाहिये । चन्द्र की अमृता, मानदा, पूषा, तुष्टि, पुष्टि, रति, धृति, शशिनी, चन्द्रिका, कान्ति, ज्योत्सना, श्री, प्रीति, अड़गदा, पूर्णा और पूर्णामृता-षोडश कलाएँ क्रमशः अ,आ,इ,ई,उ,ऊ,ऋ,ऋ,लृ,लृ, ए,ऐ,ओ,औ,अं,अः-संज्ञक स्वरवर्ण घटित हैं ।
सोमरसात्मक और प्रकाशात्मक होने से सत्त्वगुणात्मक हैं, अतएव ये कलाएँ सत्त्वपरिपाकरूपा हैं । अन्न, प्राण, मन, विज्ञान, आनन्द (स्थूल, सूक्ष्म, कारणरूप त्रिविध शरीर), अतिशायिनी (देहेन्द्रियादिगत लोकोत्तर चमत्कृति), विपरिणामिनी, संक्रामिणी (परकाया-प्रवेशादि), प्रभ्वी (कायव्यूहरचनादि), कुण्ठिनी (गरल, रिपु, सिन्धु, अग्नि, इन्द्रादि के प्रभाव का स्तम्भन), विकासिनी (महिमादि सिद्धि), मर्यादिनी (निर्धूम अग्नि को धूमयुक्त, अरजस्वला को रजस्वला, इन्द्र को अजगर आदि करने की वाक्-सिद्धि), संह्नादिनी (स्थावर-जग में लोकोत्तर उत्कर्ष की क्षमता), आहृादिनी (निर्विकार आनन्दोत्कर्ष), परिपूर्णा (शुद्ध सत्त्वोत्कर्ष) और स्वरूपावस्थिति (मुक्ति)-संज्ञक षोडश कलाएँ भी सत्त्वपरिपाकरूपा हैं ।
इसी प्रकार जैमिन्युपनिषद् के अनुसार भद्र (भजनीयता), समाप्ति (गुणों की पराकष्ठा), आभूति (प्रपच्चोत्पादन), सम्भूति (संरक्षा), भूत (संहार), सर्व (पूर्णता, उपादानता), रूप (इन्द्रियजन्य अनुभूति का आधार अलिप्त), अपरिमित (देश, काल, वस्तु से अपरिच्छिन्न), श्री (आकर्षण केन्द्र), यश (प्रशंसा), नाम (प्रतिष्ठा), अग्र (उद्बुद्ध), सजात (शक्ति संस्थान), पय (जीवनधार), महीय (महिमान्वित), रस (आनन्दोल्लास)-संज्ञक षोडश कलाएँ सत्त्वपरिपाकरूपा हैं ।
कलाओं के तान्त्रिक स्वरुप
तंत्रों में सूर्यदेव की कं भं तपिनी, खं बं तापिनी, गं फं धूम्रा, घं पं मरीची, डं. नं ज्वालिनी, चं धं रूचि, छं दं सुषुम्णा, जं थं भोगदा, झं तं विश्वा, ञं णं बोधिनी, टं ढं धारिणी और ठं डं वर्णबीज घटित कलाएँ सत्त्वात्मक तेज की विलासभूता हैं । ‘क’ से ‘ठ’ और ‘भ’ से ‘ड’ अर्थात् ‘क’ से ‘भ’ पर्यन्त चैबीस वर्णों का संनिवेश प्रकारान्तर से सूर्य की चैबीस कलाओं को द्योतित करते हैं ।
‘क’ से ‘ञ’ पर्यन्त सृष्टि, ऋद्धि, स्मृति, मेधा, कान्ति, लक्ष्मी, द्युति, स्थिरा, स्थिति और सिद्धि-सत्त्वोत्कर्षसूचक दश ब्रह्मकला (ब्रह्माजी की कला) हैं । शूरता, ईष्र्या, इच्छा, उग्रता, चिन्ता, मत्सरता, निन्दा, तृष्णा, माया और शठता-रजोगुण के उत्कर्षसूचक दश ब्रह्मकला हैं । ‘प’ से ‘श’ पर्यन्त तीक्ष्णा, रौद्री, भया, निद्रा, तन्द्रा, क्षुधा, क्रोधिनी, क्रिया, उदारी और मृत्यु-तमोगुण की प्रगल्भता से दशा रूद्रकला हैं ।
‘अ’ से ‘अः’ पर्यन्त प्रकाश शीलता, प्रीति, क्षमा, धृति, अहिंसा, समता, सत्यशीलता, अनसूया, लज्जा, तितिक्षा, दया, तुष्टि, साधुवृत्तिता, शुचिता, दक्षता और अपरिक्षतधर्मता-उद्रिक्त सत्त्व के योग से अभिव्यक्त षोडश सदाशिव कलाएँ हैं । सदाशिव कला में ही गणपति तथा शक्ति की कलाएँ संनिहित हैं ।
निवृत्ति, प्रतिष्ठा, विद्या, शान्ति, इन्धिका, दीपिका, रेचिका, मोचिका, परा, सूक्ष्मा, सूक्ष्मामृता, ज्ञाना, ज्ञानामृता, आप्यायिनी, व्यापिनी और व्योमरूपा सदाशिव की षोडशकलाएँ प्रसिद्ध हैं ।
पुरूषशिरोमणे! तत्त्वों का एक-दूसरे में अनुप्रवेश है । अतएव वक्ता तत्त्वों की जितनी संख्या बताना चाहता है, उसके अनुसार कारण कार्य में अथवा कार्य को कारण में सम्मिलित कर अपनी इच्छित संख्या सिद्ध कर लेता है ।
उक्त रीति से कला संख्या की दृष्टि से देवो में उत्कर्षापकर्ष असम्भव है । ब्रह्मा, विष्णु और महेश क्रमशः रजस्, सत्त्व, तथा तमस् के नियामक और प्रकाशक होने से क्रमशः सत्, चित्, आनन्दस्वरूप निर्गुण हैं । अतएव त्रिदेव में विभेद तथा उत्कर्षापकर्ष भी औपचारिक है, वास्तविक नहीं ।
बत्तीस व चौसठ कलाएं क्या होती हैं
सत्त्व, रजस्, तमस्, महत्, अहम् पंचभूत, मन और इन्द्रियरूप द्वादश तत्त्वों से सूर्यदेव की बारह कलाएँ सिद्ध होती हैं । सत्त्व, रजस्, तमस् की साम्यावस्था त्रिगुणमयी प्रकृति है । पंचभूत सूक्ष्म और स्थूल भेद से दस सिद्ध होते हैं । इन्द्रियों के दस प्रभेद हैं ।
इस प्रकार प्रकृति, महत्, अहम्, दस भूत, मन और दस इन्द्रिय-सांख्योक्त चैबीस तत्त्व सूर्यदेव की बारह कला में संनिहित हैं । अ,इ,उ,ऋ, लृ-पंच मूल स्वर हैं । अनुस्वार और विसर्ग (: )-सहित सप्त स्वर हैं। कवर्ग, चवर्ग, टवर्ग, तवर्ग, पवर्ग-पाँच व्यंजन वर्ग हैं ।
इस प्रकार स्वर और व्यंजन रूप बारह वर्णात्मक मूल कलाएँ हैं । बारह वर्णों में विभक्त वर्णाम्राय वस्तुतः अ आदि सात स्वर और ‘क’ से ‘म’ पर्यन्त पचीस व्यंजन रूप बत्तीस भागों में विभक्त है ।
उक्त सौरदर्शन के अनुसार त्रिगुण, महत्, अहम्, पंच तन्मात्रा, पंच महाभूत, मन, चित्त, पंच ज्ञानेन्द्रिय और पंच कर्मेन्द्रिय, पंच प्राणरूप बत्तीस प्रभेद अचित् पदार्थों के सिद्ध होते हैं । इन्हीं को बत्तीस कला भी कहते हैं । सर्ग तथा विसर्ग अथवा अनुलोम और विलोम क्रम से ये चैंसठ कलाएँ हैं ।
तत्व अथवा वर्ण क्या हैं व कितने प्रकार के हैं
उक्त अचित् प्रभेद के साथ ऊँगत अ,उ,म् तथा अर्धतन्मात्रात्मक वैश्वानर, हिरण्यगर्भ, सर्वेश्वर एवं तुरीयब्रह्मरूप चित्सूर्यप्रभेद की गणना करने पर सौरागम के अनुसार छत्तीस तत्व सिद्ध होते हैं ।
शैवागम में प्रकृति, त्रिगुण (सत्त्व, रजस्, तमस्) महत् (बुद्धि), अहम् पंच तन्मात्रा, पंच महाभूत, मन पंच ज्ञानेन्द्रिय और पंच कर्मेन्द्रिय, राग नियति, काल, विद्या, कला, माया, शुद्ध विद्या, ईश्वर तथा पुरूष-छत्तीस तत्त्व सिद्ध होते हैं ।
कलाओं का समग्र वर्णाम्राय की दृष्टि से स्कन्दपुराण के अनुसार अध्ययन तथा अनुशीलन करने पर ऊँ, चौदह स्वर, तैंतीस व्यंजन, विसर्ग, जिहृामूलीय तथा उपध्मानीय संज्ञक बावन मातृ का वर्ण सिद्ध होते हैं । ऊँ (प्रणव), ‘अ’ से ‘औ’ पर्यन्त चैदह स्वरवर्ण हैं । ‘क‘ से ’ह’ पर्यन्त तैंतीस वर्ण व्यंजन हैं । ( . ) अनुस्वार है । (: ) विसर्ग है ।
क, ख से पूर्व आधे विसर्ग के समान ध्वनि को जिहृामूलीय कहते हैं । प, फ से पूर्व आधे विसर्ग के समान ध्वनि को उपध्मानीय कहते हैं- पुराणोक्त मातृकासार इस प्रकार है-ऊँ कारगत अकार ब्रह्मा, उकार विष्णु, मकार महेश, अर्धमात्रा (ँ) सदाशिव हैं-
स्वर, व्यंजन, देवता, रूद्र, वसु, मनु, आदित्य, आदि क्या हैं
अकार से लेकर औकार तक चैदह स्वर मनुस्वरूप हैं। ककार से लेकर हकार तक तैंतीस देवता हैं। ककार से ठकार तक बारह आदित्य, डकार से बकार तक ग्यारह रूद्र हैं। भकार से षकार तक आठ वसु हैं। ‘स’ और ‘ह’ अश्विनी कुमार हैं।
इस प्रकार ‘क’ से ‘ह’ तक तैंतीस वर्ण हैं । अनुस्वार, विसर्ग, जिहृामूलीय और उमध्मानीय-ये चार अक्षर जरायुज, अण्डज, स्वदेज और उद्भिज नामक चार प्रकार के जीव बताये गये हैं- स्वायम्भुव, स्वारोचिष, औत्तम, रैवत, तामस, चाक्षुष, वैवस्तत, सावर्णि, ब्रह्मसावर्णि, रूद्रसावर्णि, दक्षसावर्णि, धर्मसावर्णि, रौच्य और भौत्य-ये चैदह मनु हैं ।
धाता, अर्यमा मित्र, वरूण, इन्द्र, विवस्वान्, पूषा, पर्जन्य, अंशु, भग, त्वष्टा और विष्णु-ये बारह आदित्य हैं । कपाली, पिड़गल, भीम, विरूपाक्ष, विलोहित, अजक, शासन, शास्ता, शम्भु, चण्ड और भव-ये ग्यारह रूद्र हैं । ध्रुव, घोर, सोम, आप, नल, अनिल, प्रत्यूष और प्रभास-ये आठ वसु हैं । नासत्य तथा दस्र-दो अश्विनी कुमार हैं।
ध्यान रहे, मन्त्रमाता मात्रिका के प्रभेद का प्रशस्त क्रम तन्त्रों में अक्षमालिकोपनिषद् के अनुसर ओंकार घटित इस प्रकार है-आदिक्षान्तमूर्तिः ‘ऊँ अ, आ, इ, ई, उ, ऊ, ऋ, ऋृ, लृ, ल§, ए, ऐ, ओ, औ, अं, अः, क, ख, ग, घ, ड़, च, छ, ज, झ, ञ, ट, ठ, ड, ढ, ण, त, थ, द, ध, न, प, फ, ब, भ, म, य, र, ल, व, श, ष, स, ह, ल, क्ष’ ’(डकारस्य लकारो बहृ§चाध्येतृसम्प्रदायप्राप्तः।’
तथा च पठ्यते- लघुषोढान्यासादि के अनुसार 52 मातृकाओं को शक्ति-सहित गणेश, शिव, सूर्य, विष्णुरूप माना गया है । इनके अर्थानुसन्धानपूर्वक जप से धर्म, काम, मोक्ष की सिद्धि सुनिश्चित है ।
य, र, ल, व, श, ष, स, ह, ल और क्ष-से सम्बद्ध धूम्रा, ऊष्मा, ज्वालिनी, विस्फुलिड़िगनी, सुश्रिया, सुरूपा, कपिला, हव्यवाहिनी और कव्यवाहिनी-दस वह्नकलाएँ हैं । षकार पीत वर्ण का है । सकार श्वेत वर्ण का है । हकार अरूण वर्ण का है । क्षकार असित (कृष्ण) वर्ण का है । स्वर श्वेत वर्ण के हैं । स्पर्श पीत वर्ण के हैं । अतिरिक्त (पर) यरादि रक्त वर्ण के हैं ।
प्रकारान्तर से यह भी समझना चाहिये कि मातृकाओं कि परा, पश्यन्ती, मध्यमा और वैखरी-संज्ञक चार प्रभेद ईशकला हैं । सर्वतत्त्वात्मिका, सर्वविद्यात्मिका, सर्वशक्त्यात्मिका तथा सर्वदेवात्मिका-ये चार ईशकलाएँ हैं |