मनुष्य एवं ईश्वर का संबंध पूर्वकाल से ही एक ऐसी मानवीय भूमि पर प्रतिष्ठित है , जहां एक के उत्क्रमण और दूसरे के अवतरण के द्वारा परस्पर आकर्षण होता रहा है।
ईश्वर मनुष्य की स्वानुभूतियों से ऊपर इच्छामय , प्रेममय और आनंदमय है तथा योगी और परमात्मा , मनुष्य और देवता , ज्ञानी और ब्रह्म , भक्त और भगवान , संत और अन्तर्यामी के रूप में यह व्यक्त होता रहता है। एक ही भावभूमि से उद्धृत होने के कारण भक्त और भगवान दोनों के संबंधों में एक विशेष प्रकार की एकता लक्षित होती है ।
साधना अवस्था में भाव ग्रंथियों से आपूरित संवेदनशील मानव अपने भावों का यथेष्ट आरोप अपने उपास्य पर करता है। मनुष्य को फलस्वरूप साधना में आत्मानुभूति या आत्म विहृलता आदि किसी न किसी प्रकार से वैविध्य की सृष्टि का अनुभव होता है। उपासक और उपास्य, दोनों तादात्म्य की स्थिति प्राप्त कर अन्तरोन्मुख में विरूपता को प्रकट करने का निर्माण करते हैं , जिसे अन्तर्यामी रूप में अवतार कहा जाता है ।
योगी प्रारम्भ से लेकर सिद्ध अवस्था तक नाना अवस्थाओं में परमात्मा के अनेक रूप एवं रंगों या अलौकिक स्थितियों में उसी विरूपता का अनुभव करते है। उसी प्रकार से ज्ञानी ब्रह्म की अद्वैत – स्थिति तक पहुंचने से पूर्व मुड़कर या माया के द्वारा विरूपता का अनुभव करता है । संत अपनी अन्तर्मुखी वृत्तियों एवं आत्मानुभूति के आधार पर अपने अन्तर्यामी के साथ भावनात्मक संबंध रखता है , जिसमे बुद्धि की अपेक्षा हृदय तत्व की अधिक प्रधानता रहती है।
संत किसी विशेष मत या सिद्धांत का विरोधी नहीं होता है , उसमें आत्माभिव्यजंन की अजस्र धारा सर्वत्र प्रवाहित होती है । उसका अन्तर्यामी अलख (जो देखा न जा सके) , अविनाशी , निर्गुण-निराकार , निरूपित होते हुए भी मनुष्य के समान संवेदनशील , आदर्श और सहृदय वाला व्यक्ति होता है । संतों की उपासना का आधार नामोपासना है , परंतु ये किसी विशेष नाम के पक्षपाती नहीं होते । उपास्य नाम – राम , केशव , आदि कोई भी होते हैं ।
अपने उपास्य ईश्वर का उपर्युक्त नाम अन्तर्यामी रूप में होता है । उपासना में भी उपास्य मुख्य रूप से ब्रह्म ही होता है , जिसे उपनिषदों ने आत्मब्रह्म , सर्वभूतान्तरात्मा , आत्मरूप, षोडश कलायुक्त पुरूष तथा अन्तर्यामी कहा है । ‘अन्तर्यामी’ शब्द से आत्म ब्रह्म की निरपेक्षता या उदासीनता का भाव न होकर मानवोचित संवेदना , भावुकता और जिज्ञासा का बोध होता है । वह आत्म तत्व संत के लिये पुत्र और धन से भी अधिक प्रिय है , क्योंकि आत्मा, हृदय ब्रह्म है ।
आचार्य शंकर के अनुसार वह सर्वरूप हृदय ब्रह्म ही उपासनीय है , अन्य मंत्रों में उसे मनोमय पुरूष कहा गया है | वह प्रकाशमय है । हृदय के अंदर स्थित वह धान या जौ के परिमाण-स्वरूप वाला सभी का स्वामी और सभी का शासनकर्ता तथा सभी का अधिपति है ।
बृहदारण्यकोपनिषद में अन्तर्यामी रूप की चर्चा करते हुए कहा गया है कि अन्तर्यामी का अवतार संवेदना, जिज्ञासा और भावना के आधार पर होता है । वह अन्तर्यामी जल , अग्नि , अंतरिक्ष , वायु , प्राणी , जीव , चंद्रमा , सूर्य, दिशाएं , आकाश आदि के अंदर समस्त स्थानों में , सबके अंदर है । सभी उसके शरीर हैं , वहीं सबका नियमन करता है ।
पांचरात्र आगमों में ब्रह्म के चार रूपों में एक अन्तर्यामी रूप भी माना गया है । अन्तर्यामी अवतार ईश्वर की वह शक्ति या रूप है जो निर्मम ज्वाला के रूप में मनुष्य के हृदय कमल में स्थित रहता है । यह जीवों के हृदय में प्रविष्ट होकर उनकी सब प्रकार की प्रवृत्तियों को नियंत्रित करती है । अन्तर्यामी रूप दो प्रकार के होते हैं – एक रूप में वे मंगलमय विग्रह के साथ जीव के सखा के रूप में उसके हृदय कमल में वास करते हैं और उसकी रक्षा करते हैं | इस तरह से ध्येय रूप में उसके साथ-साथ अवस्थित रहते हैं ।
दूसरे रूप में वह जीव की सभी अवस्थाओं में उसकी रक्षा करते हैं । संतों ने हृदय में स्थित इसी अन्तर्यामी को अपना सहज सौम्य व्यक्तित्व प्रदान किया है और अन्तर्यामी अवतार को आद्य कोटि में माना है । कबीरदास तो अपने हृदय में नित्य प्रति उसके प्राकट्य का आनंद लेते थे । उनकी कृतियों में जिस निर्गुण राम का उल्लेख है , वह हृदय स्थित ब्रह्मरूप है ।
रामपूर्वतापिन्युपनिषद (6)- में कहा गया है कि योगी लोग जिस नित्यानन्द स्वरूप चिन्मय ब्रह्म में रमण करते हैं , वह परब्रह्म परमात्मा ‘राम’ ही है । सगुणोपासक अपने इष्टदेव की उपासना अष्टयाम पूजा और अर्चना द्वारा करते हैं , परंतु संत केवल नामोपासना एवं यौगिक पद्धतियों का उपयोग करते हैं । इनके अनुसार ब्रह्म सक्रिय एवं अन्तर्यामी है और भक्तों का पालक तथा उनका अभीष्ट फलदाता है ।
संतों ने ईश्वर के साथ सखा , भाई , गुरू , स्वामी , माता , पिता , प्रियतम आदि अनेक व्यक्तिगत एवं सामाजिक संबंध स्थापित किये है । संतों की साधना अंदरूनी होती है , बहिर्मुखी नहीं अतः वे अपने अन्तर्यामी के प्रति व्यक्तिगत संबंध रखते हैं ।
संत कबीरदास ने भी अन्तर्यामी श्री राम को पूर्ण ब्रह्म कहा है । गुरू अर्जुन देव ऐसे धनी गोविन्द का गुणगान करते हैं , जिन्होंने विष्णु के रूप में करोड़ों अवतार धारण किये हैं जिनका करोड़ों रूप ब्रह्माण्ड में विस्तार है । इनमे करोड़ों देवता स्थित हैं और करोड़ों वैकुण्ठ जिनकी सृष्टि में विद्यमान हैं ।
सगुणोेपासक की तरह संतों में भी माधुर्य एवं सखी भाव आदि दिखायी पड़ता है । संत कबीरदास जी का मानना है कि हरि उनका पति है और वह उस प्रिय की बहुरिया हैं जिसके बिना उनका अस्तित्व ही नहीं है । उनसे मिलने के लिये ही वे श्रृंगार करते हैं और उनसे मिलने के लिये ही वे सदा बेचैन रहते हैं ।
संतों में अन्तर्यामी के प्रति स्वकीयाजनित दास्य भाव की अभिव्यक्ति पायी जाती है , अपने अलख और अविनाशी पुरूष में सगुण रूप की अभिव्यक्ति देखने को मिलती है । यह संबंध किसी सिद्धांत , दर्शन या सम्प्रदाय से प्रभावित नहीं होता , अपितु उनमें व्यक्तिगत रूप से स्वानुभूतिपरक आत्म निवेदन , दैन्य आदि स्वाभाविक उद्गार प्रतिष्ठित रहते हैं । संतों को अपने अन्तर्यामी में विराट रूप का भी दर्शन होता है । गीता में कहा गया है कि जो मुझे सर्वत्र सब में देखता है , उसके लिये मैं अदृश्य नहीं होता और वह मेरे लिये अदृश्य नहीं होता ।
उपर्युक्त विवरण से स्पष्ट होता है कि वह अन्तर्यामी ईश्वर समस्त भूतों में तथा आकाश से लेकर पाताल तक कण-कण का वासी है , सबका अन्तरात्मा होने के कारण वही ज्ञेय है । भाव-भक्ति रूप में वह अन्तर्यामी रूप से प्रकट होता है । वह नेति-नेति के रूप में निरूपित है । इस आत्म मूर्ति मे स्थूल रूप का अभाव होते हुए भी यह सगुण साकार के गुण से युक्त है । यह ईश्वर का एक विशिष्ट स्वरूप है जो ध्येय , ज्ञेय , और पूज्य है ।