” जहाँ राधा कृष्ण का प्रेम रचा -बसा है”
यह कथा है प्रभु के अदभुत प्रेम के रहस्य की, जिसमें एक परम भक्त ने अपने भगवान को धरती पर बसाने के लिए एक ऐसे खूबसूरत घर का निर्माण कराया जिसकी सुंदरता स्वर्ग लोक से भी बढ़कर है़। उस परम भक्त द्वारा कराये गये भगवान के घर को देखकर ऐसा लगता है़ जैसे की किसी राजा-महाराजा का महल हो।
शायद आपको आसानी से विश्वास न हो, लेकिन यह सच है कि भगवान श्री कृष्ण-राधा के प्रेम का साक्षात दर्शन कराने वाले इस प्रेम मंदिर को जो कोई भी देखता है़, वह ठगा सा रह जाता है़ क्योंकि यह वह प्रेम मंदिर है़ जो हर दर्शन करने वाले व्यक्ति के हृदय को कृष्ण भक्ति के प्रेम से सराबोर कर देता है़।
हम प्राचीन काल के मंदिरों की सुंदरता के किस्से सदियों से सुनते आ रहे हैं। लेकिन यदि आधुनिक वैज्ञानिक तकनीक का उपयोग करते हुए किसी मंदिर का निर्माण कराया जाये तो वह निश्चय ही प्रेम मंदिर की तरह दिखेगा। विज्ञान का चमत्कार इस मंदिर में देखते ही बनता है। पलक झपकते ही इस मंदिर का रंग-रूप परिवर्तित हो जाता है। ऐसी स्थिति में देखने वाले को ऐसा भ्रम होता है कि क्या यह वही मंदिर है जिसमें उसने प्रवेश किया था।
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क्योंकि जब लोग-बाग इस मंदिर के अंदर जाते हैं तो उसकी छटा अलग होती है़। लेकिन जब मंदिर से बाहर आते हैं तो ऐसा लगता है़ कि उसका रंग किसी जादूगरनी ने अपने जादू की छड़ी से बदल डाला है़। क्योंकि क्षण-क्षण में इस मंदिर की सुंदरता का वर्ण बदलता रहता है ।
कहाँ है यह मंदिर
यह मंदिर अपने देश के उत्तर प्रदेश के मथुरा जिले में अपनी अदभुत सुंदरता और भव्यता की कहानी सुना रहा है। इस खूबसूरत कहानी को लिखने वाले हैं जगत गुरु कृपालु महाराज जी, जो भगवान कृष्ण के अनन्य भक्त रहे। कहा जाता है कि एक बार कृपालु महाराज जी को अपने स्वप्न में एक सुंदर महल सा भवन दिखा। महाराज जी कौतूहल वश उस महल के अंदर गये।
उस महल में उनके प्रभु श्री कृष्ण भगवान, राधा जी के साथ बैठे थे। जब कृपालु जी महाराज की नींद खुलीं तो भी सपने में जो उन्होंने देखा था उसे भूल नहीं पाए। यह महल उनके मन में बस गया था। उन्होंने संकल्प लिया एक ऐसा ही महल अपने प्रभु के लिए इस धरती पर बनाएंगे। अपने इस संकल्प को पूरा करने के लिए जगत गुरु कृपाल महाराज ने 14 जनवरी 2001 को अपने सांवली सूरत वाले प्रभु श्री कृष्ण व सलोनी राधा जी के मंदिर का शिलान्यास किया और नाम रखा प्रेम मंदिर।
मंदिर के निर्माण की कथा
इस मंदिर के निर्माण के लिए देश के कोने- कोने से कारीगरों और वास्तुकारों को बुलाया गया। जगत गुरु कृपालु महाराज जी ने वास्तुकारों को एक ही बात समझायी कि उनको इस मथुरा की धरती पर एक ऐसा मंदिर बनाना है जो स्वर्ग से सुंदर हो। वास्तुकारों ने महाराज जी की कल्पना को साकार रूप देने के लिए भरपूर मेहनत की। कहते हैं कि वास्तुकारों ने काल्पनिक मंदिर के सैकड़ों चित्र पहले कैनवस पर उकेरे।
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उनमें से एक चित्र कृपाल महाराज जी को हू ब हू वैसा ही लगा जैसा कि उनके हृदय में बसा हुआ था। इस मंदिर के चित्र को हरी झंडी मिलते ही काम शुरू हो गया। इस मंदिर को बनाने में लगभग 11 वर्षों का समय लगा। बताते हैं की इस मंदिर के निर्माण में लगभग 100 करोड़ रुपए का खर्चा आया। इस मंदिर को तैयार करने के लिए हजारों शिल्पकारों ने अपना योगदान दिया। यह प्रेम मंदिर लगभग 54 एकड़ भूमि में बना हुआ है़।
भारतीय शिल्प कला का प्रतीक
प्रेम मंदिर भारतीय शिल्प कला का बेजोड़ नमूना है । इस मंदिर की सुंदरता देखते ही बनती है। इस मंदिर की खूबसूरती में चार चांद लगाने के लिए इटालियन करारा संगमरमर का उपयोग किया गया है। मंदिर की हिंदू स्थापत्य शैली भक्तों को बहुत लुभाती है। इस मंदिर में फव्वारे और उद्यान पर्यटकों को नयनाभिराम अच्छे लगते हैं। जिसे देखकर हर कोई मंत्रमुग्ध हो जाता है। प्रवेश द्वार पर बने आठ मयूर अत्यंत सजीव प्रतीत होते हैं।
इस मंदिर की विशेष बात यह है कि इस मंदिर में कुल 94 स्तंभ हैं। जिनको गोपीकाओं का स्वरूप दिया गया है। ऐसा लगता है कि पूरे मंदिर में गोपियाँ नृत्य कर रही हों। मंदिर के अंदर भगवान श्री कृष्ण और राधा रानी की मूरत है। प्रेम मंदिर के अंदर का दृश्य किसी राजसी ठाठ बाट से कम नहीं है। फिर क्यों ना हो, क्योंकि यहां सृष्टि को चलाने वाला सम्राट स्वयं जो विराजमान है। मंदिर के अंदर का हिन्दू वास्तु शिल्प लोगों को चकाचौंध कर देता है।
मंदिर की अदभुत गतिविधियां
इस मंदिर में राधा कृष्ण की सुंदर झांकियां जहाँ भक्तों को द्वापर युग के वृंदावन का स्मरण कराती हैं। वहीं गोवर्धन पर्वत से जुड़ी हुई भगवान श्री कृष्ण की लीला, कालिया नाग का संहार आदि दृश्य पर्यटकों को कृष्णमय कर देते हैं। यहां आने के बाद भक्त इस मंदिर को अपने मन मंदिर में बसा लेते हैं और भक्ति से सरोबार उनकी भावनायें प्रबल हो जातीं है। वे कह उठते हैं:-
जब मैं था तब हरि नाहि
अब हरि है मैं नाहि
प्रेम गली अति सांकरी
ता मै दो ना समाहि