हमारे पौराणिक ग्रंथों को रचते समय विद्वान लेखकों ने ऐसे-ऐसे हैरतअंगेज रहस्यों का उल्लेख किया है़ कि जिसको जानने के बाद हर कोई आश्चर्य में पड़ जाता है़। तब सभी के मन में कौतूहल जन्म ले लेता है़ और हृदय में यही सवाल उठ खड़ा होता है कि क्या ऐसा भी हो सकता है ?
कहते हैं कि जब गोस्वामी तुलसीदास जी अपना ‘राम चरित मानस’ ग्रंथ लिखते- लिखते अरण्य कांड पर पहुँच गए थे। तब वह अरण्य कांड में सीता हरण वाले प्रसंग में पहुंचकर बड़े गंभीर सोच में पड़ गए। क्योंकि एक तरफ तो उन्हें अपना ग्रंथ पूरा करना था और दूसरी तरफ माता सीता की पवित्रता को गंगा की तरह निर्मल बनाये रखना था।
अब वे अजीबोगरीब अनेक प्रकार के विचारों के जाल में उलझ गये। तब आपको जानकर आश्चर्य होगा कि उस समय गोस्वामी तुलसीदास जी ने विज्ञान का सहारा लिया। कहते हैं कि उन्होंने विज्ञान से जुड़ी हुईं तमाम पुस्तकों के पन्नों को पलट डाला। मानस मर्मज्ञ काव्या नंदन कहती हैं कि उन्होंने विज्ञान का विस्तार से अध्ययन ही नहीं किया बल्कि एक अनोखा शोध कार्य भी कर डाला।
कहते हैं कि जिस रहस्य के बारे में लक्ष्मण जी को भी पता नहीं था, गोस्वामी तुलसी दास जी ने अपने ‘राम चरित मानस’ में विज्ञान के उस अनूठे रहस्य का सहारा लिया। निश्चय रूप से अरण्य कांड पढ़ते समय आपने यह दोहा अवश्य पढ़ा होगा कि
लक्ष्मणहुँ यह मरम ना जाना ।
जा कुछ चरित रचा भगवाना ।।
दरअसल गोस्वामी तुलसीदास जी इन दोनों पंक्तियों में रामचरितमानस के गूढ़ रहस्य को उजागर करना चाहते हैं। कहते हैं कि लक्ष्मण जी को भी उस रहस्य के बारे में जानकारी नहीं थी, जिस रहस्य की गाथा पहले ही विधाता लिख चुके थे। पुराणों में वर्णित है़ कि रामचरित मानस के अरण्य कांड में लंका पति रावण जब सीता जी का हरण करने आया तो उसकी यह पहली गलती नहीं थी बल्कि गोस्वामी तुलसीदास जी के अनुसार यह उसका दूसरा दुस्साहस था।
उसकी इस दूसरी गलती के लिए गोस्वामी तुलसीदास जी लंकापति रावण की इस दुष्ट सोंच से छल पूर्वक निपटना चाहते थे, क्योंकि कहा जाता है़ कि इसी रावण ने एक बार ब्रह्म ऋषि कुश ध्वज की विद्वान पुत्री देवी वेदवती का भी शील भंग करने का प्रयास किया था, एवं उनके केशों को पकड़ कर घसीटा था। तब अपने अपमान से क्रोधित एवं दुखी होकर देवी वेदवती ने योगविद्या द्वारा स्वयं को अग्नि में समर्पित कर दिया था।
कहते हैं कि स्वयं को अग्नि में समर्पित करते-करते वेदवती ने संकल्प ले लिया था कि वह एक न एक दिन इस दुष्ट रावण से उसके इस दुस्साहस का प्रतिशोध अवश्य लेगी। कहते हैं कि अपना मानव जीवन त्याग देने के पश्चात भी वेदवती जीवात्मा के रूप में अग्निदेव की शरण में रही, और लंकापति रावण से, अपने पति भगवान् विष्णु (वेदवती ने भगवान विष्णु को पति रूप में पाने के लिए तप किया था एवं वे उन्हें मन ही मन अपना पति मान चुकी थी) द्वारा प्रतिशोध लेने के बाद ही मुक्ति प्राप्त की ।
लंकापति रावण जिस सीता जी को हरण करके ले गया वे सीता न होकर उनका क्लोन था
गोस्वामी तुलसी दास जी के अनुसार अब वह समय आ चुका था जब रावण के बल को छल पूर्वक निपटा जाये। तब 14 वर्ष के वनवास के दौरान पंचवटी में सीताहरण के पूर्व अग्नि देव से प्रार्थना की गई वह लंकापति रावण को दण्ड देने के लिए सहायता करें। दरअसल अग्नि देव के पास अभी तक ब्रह्म ऋषि कुश ध्वज की पुत्री वेदवती की जीवात्मा समाहित थी।
उस समय यह योजना बनायी गयी कि ब्रह्म ऋषि कुश ध्वज की पुत्री वेदवती की जीवात्मा को किसी तरह सीता जी के क्लोन में प्रविष्ट करा दिया जाये और असली सीता जी को कहीं छिपा दिया जाये। ताकि सीता जी 14 वर्ष के वनवास में सुरक्षित रह सकें और वनवास के पश्चात श्री राम के पास सकुशल पहुंचाया जा सके।
पौराणिक रहस्य कथा, जिसे कम ही लोग जानते हैं
कहते हैं कि तब ब्रह्मा जी ने सीता जी की उंगली से कोशिका लेकर सीता जी के सदृश्य ही एक पुतला तैयार कर दिया और योजना के अनुसार वेदवती की जीवात्मा को सीता जी के पुतले में प्रविष्ट करा दिया गया। इस प्रकार जब वन में पंचवटी कुटिया में श्री राम और श्री लक्ष्मण जी के जाने के बाद जो नारी अकेली आश्रम में रह गईं वह सीता जी न होकर उनकी क्लोन थी।
क्योंकि असली सीता जी तो अग्नि देव के शरण में पहुंच गई थी । फिर विधाता को वेदवती द्वारा रावण से प्रतिशोध लेने के प्रण को पूरा जो कराना था। इसलिए उन्होंने रावण द्वारा सीता जी नहीं बल्कि उनके पुतले में स्थापित वेदवती की जीवात्मा का हरण करा दिया। उन वेदवती नामक देवी (जो स्वयं महामाया का ही अंश थीं) ने लंका पहुंचकर रावण के नाकों चने चबवा दिये।
रावण क्यों भय खाता था सीता जी के पास जाने से
रामचरितमानस के कई प्रसंगों में सीता जी के क्लोन का रहस्य उजागर होता है। इस बात का तो पुराणों में स्पष्ट वर्णन भी किया गया है कि लंका पति रावण ने सीता जी को अपने महाद्वीप लंका में अशोक वाटिका में कैद करके रखा था । कहते हैं कि रावण जब भी सीता जी पर अत्याचार करने के लिए आगे कदम बढ़ाता था तो धरती में से एक अग्नि-ज्वार फूट पड़ता था, जिसमें भस्म हो जाने के भय से रावण वापस भाग जाता था ।
सीता जी के आस -पास अग्नि का पहरा होने का एक कारण यह भी बताया जाता है कि सीता जी के क्लोन मे रहने वाली देवी वेदवती की जीवात्मा के साथ सदैव अग्नि देव रहते थे। क्योंकि ब्रह्म ऋषि की पुत्री वेदवती, मृत्यु के पश्चात (जीवात्मा रूप में) उन्हीं अग्नि देव में समाहित थीं।
कहते हैं कि एक बार दुष्ट रावण ने सीता जी को मार डालने का प्रयास किया । लेकिन उसी समय सीता जी के काया के अंदर उपस्थित विद्वान देवी वेदवती ने एक अमोघ महा मंत्र पढ़कर दुष्ट रावण की तरफ फेंका। जिसके कारण वह घास के तिनके के समान छिटक कर दूर जा गिरा।
इसीलिए सीता जी लक्ष्मण जी या हनुमान जी के साथ नहीं आयीं
राम चरित मानस में कई बार ऐसा प्रसंग आया कि जब सीता जी पवन सुत हनुमान जी अथवा लक्ष्मण जी के साथ लंका से वापस श्री राम जी के पास वापस आ सकती थीं। लेकिन उन्होंने ऐसा नहीं किया। क्योंकि उस समय वेदवती की जीवात्मा एक निश्चित समय के लिए सीता जी की परछाई में विलीन थी। यदि वह उस समय के पूर्व वापस श्री राम जी के पास आ भी जाती तो भी देवी वेदवती सीता जी के शरीर से न निकल पाती।
फिर देवी वेदवती को अपने प्रतिशोध स्वरुप रावण का वध जो करवाना था। रावण का समूल नाश ही उनके प्रतिशोध का मुख्य उद्देश्य था। इसलिए जब तक लंका का सर्वनाश न हो जाये तब तक वह वापस श्री राम के पास कैसे जा सकती थी। देवी वेदवती में तमाम वेदों का ज्ञान व शक्ति थी। वह चाहती तो स्वयं भी रावण का संहार कर सकती थी।
क्योंकि लंकापति रावण द्वारा वेदवती को अपमानित किए जाने के बाद से ही वह प्रतिशोध की अग्नि में तप रही थी। लेकिन इस बारे में अग्नि देव जी ने देवी वेदवती से प्रार्थना की थी कि लंका पहुंचकर वह ऐसा कोई कार्य न करें कि जिससे सीता जी की परछाई का भेद खुल जाये।
फिर देवी वेदवती भी भगवान श्री राम के कर-कमलों के द्वारा ही रावण को उसके कुकर्मों का प्रतिफल दिलाना चाहती थी। कदाचित विधाता ने ऐसा ही रच रखा था और देवी वेदवती यह बात जानती थी। इसीलिए तमाम शक्तियों से परिपूर्ण होने के बावजूद देवी वेदवती ने लंका में अपनी सीमितता बनाये रखी और रावण को मारे जाने तक मूकदर्शक बनी रही।
क्या होता है यह क्लोन
विज्ञान की भाषा में कहें तो क्लोन वैज्ञानिक पद्धति द्वारा किसी जीवित कोशिका से तैयार की गई उसके जैसी ही प्रतिच्छाया है़। जिसका रंग, रूप, बनावट असली यानी वास्तविक होने का आभास कराता है़। यह क्लोन पशु, पक्षी, पेड़-पौधे, मनुष्य आदि किसी का भी हो सकता है। क्लोन वह प्रतिबिंब है़ जिसका चेहरा- बनावट आदि वास्तविकता का आभास कराती है।
कहते हैं कि देश-विदेश के कुछ-एक प्राचीन, रहस्यमय युद्ध में क्लोन का उपयोग किया गया। दुश्मनों झांसा देने के लिए युद्ध भूमि में राजा का क्लोन खड़ा कर दिया जाता था। दुश्मन की सेना उस क्लोन को असली राजा समझ कर उलझी रहती थी। तब तक राजा को अपनी की सेना को सुदृढ़ करने का समय मिल जाता था और वह पुनः संगठित होकर दुश्मन पर पूरी ताकत के साथ हमला बोल देता था और विजय हासिल कर लेता था।